पाकिस्तानी लेखक सबा इम्तिजायज की एक किताब आई थी, कराची यू आर किलिंग मी। और निर्देशक सुनील सिप्पी को बस यही लाइन याद रह गई। कई फिल्मों की छाप लिए नूर कहना क्या चाहती है यह पता नहीं चल पाता। नूर (सोनाक्षी सिन्हा) पत्रकार है और उसे अच्छी स्टोरी करना है। अच्छी यानी जो आम लोगों से जुड़ी हुई हों। अब यह पता नहीं नूर को किसने कहा कि सनी लियोनी आम लोगों से जुड़ी हुई नहीं है। खैर उसे अलग तरह की स्टोरी करना है और बॉस उससे सनी लियोनी का इंटरव्यू लेने भेज देता है। इसी जद्दोजहद में वह एक अच्छी स्टोरी निकालती है लेकिन उसके साथ धोखा होता है और वह स्टोरी कोई और अपने नाम से चला देता है।
नौ दिन चले अढ़ाई कोस की तरह यह फिल्म भी सिर्फ ऊपरी सतह को छू कर निकल जाती है। न नूर के दोस्त साद (कनन गिल) और जारा (शिबानी दांडेकर) न नूर का धोखेबाज बॉयफ्रेंड (पूरब कोहली) रंग जमा पाए हैं। नूर तो आज की असमंजस में फंसी पीढ़ी का प्रतिनिधित्व तक ठीक से नहीं कर पाती। फिल्म एक फ्रेम से उठ कर दूसरे फ्रेम में पहुंचती है और बस शॉट दर शॉट कोई भी असर डाले बिना बस यूं ही खत्म हो जाती है। मधुर भंडारकर की पेज थ्री में कोंकणा सेन ने भी ठीक ऐसा ही करदार निभाया था। वह भी पत्रकार बनी थीं और कुछ अलग तरह का काम करने के बजाय बॉस उनसे पेज थ्री की पार्टियों की रिपोर्टिंग कराता है। लेकिन कोंकणा ने बहुत संजीदगी से उस किरदार को निभाया था। सोनाक्षी की तरह सतही ढंग से नहीं।
जब तक सोनाक्षी सिन्हा कुछ कर गुजरने की इच्छा रखने वाली नूर के किरदार में हैं तब तक वह प्यारी लगती हैं। लेकिन जैसे ही वह अपनी बात रखने वाला लंबा संवाद कहती है वह उसी वक्त बेरौनक हो जाती हैं। फेसबुक पोस्ट के लंबे संवाद को उन्होंने इतने खराब ढंग से बोला है जैसे लगता है वह खुद भी फिल्म से ऊब गई थीं और चाहती थीं कि बस अब फिल्म खत्म होना चाहिए।