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कॉमेडी के साथ सेक्स एजुकेशन पर देती है जरूरी मैसेज फिल्म "कहानी रबरबैंड की"

बॉलीवुड में यौन शिक्षा और कंडोम को लेकर हालांकि कई फिल्में बनी हैं मगर डायरेक्टर सारिका संजोत की इस...
कॉमेडी के साथ सेक्स एजुकेशन पर देती है जरूरी मैसेज फिल्म

बॉलीवुड में यौन शिक्षा और कंडोम को लेकर हालांकि कई फिल्में बनी हैं मगर डायरेक्टर सारिका संजोत की इस सप्ताह रिलीज हुई सोशल कॉमेडी फिल्म "कहानी रबरबैंड की" काफी यूनिक और कई मायनों में अलग कहानी है। महिला निर्देशिका ने जिस तरह एक संजीदा सब्जेक्ट को हल्के फुल्के ढंग से पेश किया है।

फ़िल्म के पहले हिस्से में आकाश (मनीष रायसिंघन) और काव्या (अविका गोर) की प्यारी सी प्रेम कहानी को दर्शाया गया है। दोनों की नोकझोंक के बाद दोस्ती, प्यार और फिर शादी होती है। कहानी में मोड़ उस समय आता है जब आकाश द्वारा कंडोम का इस्तेमाल करने के बावजूद काव्या गर्भवती हो जाती है। इससे दोनों की जिंदगी में उथल पुथल मच जाती है। आकाश के मन में शक पैदा होता है कि काव्या के करीबी दोस्त रोहन (रोमिल चौधरी) का इस मामले में हाथ है। आकाश उस पर बेवफाई का इल्ज़ाम लगाता है तो काव्या नाराज़ होकर और गुस्से में अपने मायके चली जाती है। बाद में जब आकाश को एहसास होता है कि खराब और एक्सपायरी डेट वाला कंडोम होने के कारण वह सुरक्षा देने में सफल नहीं हुआ था तो आकाश कंडोम बनाने वाली कंपनी पर अदालत में मुकदमा दर्ज करवाता है। यहां से फ़िल्म की एकदम नई कहानी शुरू होती है। इस केस को उसका करीबी दोस्त नन्नो (प्रतीक गांधी) लड़ता है, जो अपने पिता के मेडिकल स्टोर पर बैठता है मगर एलएलबी की डिग्री भी रखता है। जबकि बचाव पक्ष की वकील सबसे विख्यात एडवोकेट करुणा राजदान (अरूणा ईरानी) होती है, जो अब तक एक केस भी नहीं हारी। अब कोर्ट में केस कौन जीतता है, इसके लिए आपको फ़िल्म देखनी पड़ेगी। लेकिन यह कोर्ट रूम ड्रामा काफी मजेदार भी है और आंख खोलने वाला भी है।

मून हाउस प्रोडक्शंस के बैनर तले बनी इस फ़िल्म में अदाकारी की बात करें तो मनीष के दोस्त नन्नो के रोल में प्रतीक गांधी ने एकदम नेचुरल अभिनय किया है। स्क्रीन पर मनीष और अविका की केमिस्ट्री और उनके बीच ट्यूनिंग काफी अच्छी है। अरुणा ईरानी का काम बतौर वकील काबिल ए तारीफ है। फिल्म का कुछ संवाद कहानी रबरबैंड की के मैसेज को आगे बढाते हैं जैसे ‘कंडोम खरीदने वाला छिछोरा नहीं बल्कि जेंटलमैन होता है। मनीष का यह संवाद बड़ा प्रभावी लगता है "काव्या है तभी तो कांफिडेंस है।"

देखा जाए तो ये फ़िल्म जहां यौन शिक्षा, कंडोम के इस्तेमाल के बारे में खुलकर बात करती है वहीं दवा कंपनियों, डॉक्टर्स द्वारा कमीशन के लिए आम लोगों की जिंदगी में उथल पुथल लाने के बारे में भी बताती है। कैसे एक्सपायरी डेट वाली दवाएं बाजार तक पहुंचाई जाती हैं, इसमे डॉक्टर्स, मेडिकल स्टोर वाले और दवा कम्पनी से जुड़े लोग किस तरह शामिल होते हैं, यह भी दर्शाया गया है।

सारिका संजोत की फ़िल्म एंटरटेनमेंट और कॉमेडी के साथ महत्वपूर्ण मैसेज देती है। सारिका संजोत का लेखन और निर्देशन प्रभावी है। मीत ब्रदर्स और अनूप भट का संगीत उम्दा है। फारूक मिस्त्री का छायांकन उच्च स्तर का है। फ़िल्म की एडिटिंग संजय सांकला ने बखूबी की है।

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