वीरा चतुर्वेदी
एक अरसा बीत गया जब हिंदुस्तान पाकिस्तान के बीच खेले जा रहे एक क्रिकेट मैच का ऐसा रोमांचकारी अंत हुआ कि लगा जिंदगी में फिर इतनी खुशी कभी नहीं मिलेगी। अनिल कुंबले को जब मैन ऑफ़ द मैच अवार्ड के लिए पुकारा गया तो वह भी जैसे अपनी सफलता को पूरी तरह पचा नहीं पाया था। बड़े सकुचाते हुए जब उसने बधाई स्वीकार की और कहा कि यह जीत केवल उसके अपने बढ़िया प्रदर्शन की वजह से नहीं मिली है बल्कि पूरी टीम के सहयोग के बिना वेह 10 विकेट ले ही नहीं सकता था।
बहुत सही कहा था कुंबले ने। ठीक क्रिकेट या दुसरे टीम गेम कि तरह फिल्म निर्माण भी एक टीम वर्क है। निर्देशक, कहानीकार, संगीतकार, नायक, नायिका, सम्पादक, साउंड रिकार्डिस्ट और न जाने कितने कितने सहकलाकारों के सहज सहयोग से बनती है एक फिल्म। अगर ये अच्छी बने तो इसके लिए सभी को श्रेय मिलना जरूरी है। उसमे परिमाण की मात्रा कम ज्यादा भले ही हो जाए।
इन दिनों फिल्मो और टीवी कलाकारों के लिए ढेरों अवार्ड्स हैं। स्वयं सरकार भी फिल्मो में बेहतरीन प्रदर्शन के लिए पुरस्कार की व्यवस्था करती है। सर्वश्रेष्ठ नायक-नायिका आदि के अलावा, कई प्रतिष्ठान कलाकारों को लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड से भी नवाजते हैं। दिलीप कुमार, राज कपूर, देव आनंद, आदि तमाम कलाकारों को इस पुरस्कार से नवाजा जा चुका है।
लाइफटाइम अचीवमेंट का अर्थ है इस क्षेत्र में जीवन भर की मेहनत का फल। ठीक है सभी बड़े सितारे इस पुरस्कार के हकदार हैं, लेकिन उनका क्या जो इन सितारों की चमक-दमक के बावजूद फिल्म के हर फ्रेम में अपनी उपस्थिति दर्ज करा गए और फिर भी पुरस्कार से हमेशा वंचित रखे गए।
मुझे याद आती है ओम प्रकाश की। कुछ बरस पहले टीवी पर एक टॉक शो में महमूद ने 'प्यार किये जा' नामक फिल्म में अपने उस यादगार दृश्य का उल्लेख किया था जिसमे वे पिता बने, ओम प्रकाश को एक रोमांचित करने वाली कहानी सुनाते हैं। यह दृश्य उन दोनों के कॉमिक टाइमिंग का एक यादगार पल बनकर हमेशा इतिहास में दर्ज रहेगा।
महमूद ने बताया कि उन्हें इस दृश्य के लिए अवार्ड भी मिला लेकिन ओम प्रकाश खाली हाथ ही रहे। महमूद का सवाल था की क्या ओम प्रकाश के प्रभावशाली अभिनय के बिना यह सीन उतना सुन्दर हो सकता था? ओम प्रकाश के चेहरे पर पल-पल आते-जाते भावों का जो मेला लगा था, उसे क्या कभी कोई भुला सकता है? यही नहीं आज कि पीढ़ी भी चुपके -चुपके नमक फिल्म हर दुसरे दिन टीवी पर देख लेती है। धर्मेन्द्र, अमिताभ, शर्मिला और जया जैसे दिग्गजों के होते हुए भी ओम प्रकाश किसी भी जगह फीके नहीं पड़े। देखा जाये तो फिल्म के असली हीरो वही हैं। अगर ओम प्रकाश हंसाते थे तो साथ में रुलाना भी वेह खूब जानते थे | 'दिल अपना और प्रीत पराई' में उनके अस्पताल वाले दृश्य हंसाते-हंसाते रुला जाते हैं। उनकी बिदाई वाला दृश्य फिल्म का यादगार दृश्य बन पड़ा है। 10 लाख, अन्न दाता, खानदान, बुड्ढा मिल गया जैसी अनगिनत फिल्मों में इस कलाकार ने हम सब को अपने साथ रोने और हंसने पे मजबूर किया। जीवन भर जो कलाकार फिल्मों के लिए ही जिया और उसी में काम करते हुए मर गया, उसके जीवन कि उप्लब्धि तो केवल जनता का प्यार ही मानी जायेगी। काफी उम्र पा कर संसार से विदा हुए ओम प्रकाश को इस बीच किसी भी बड़ी संस्था या पत्रिका ने उनके जीवन भर की उपलब्धियों का खाता देखने की ज़हमत नहीं उठायी। वे भीड़ भरे हॉल में तालियों के बीच लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड से सज्जित होने से महरूम ही रह गए।
ओम प्रकाश के साथ ही याद आते हैं मदन पुरी। शायद जबसे उन्होंने दाढ़ी बनानी शुरू की होगी, वे फिल्मो में काम करने लगे। खलनायकी में वे बेजोड़ थे। उपकार में जितने घृणित और क्रूर मदन पुरी लगे हैं, उतना क्रूर तो कभी उनका बहुप्रशंसित भाई अमरीश भी नहीं लगा। फिर याद कीजिये 'दुल्हन वही जो पिया मन भाये' के दादाजी की।
जिन्दगी भर खलनायकी करने वाला वेह चेहरा ऐसा कोमल हो उठा था की मन उसके प्रति स्नेह से भर जाता है। बहुमखी प्रतिभा के धनी इस कलाकार की फिल्मो में गुमनाम, पूरब पश्चिम , आंखें जैसी अनेक मशहूर फिल्में शामिल हैं लेकिन क्या किसी ने उन्हें लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड से नवाजा?
ऐसे कलाकारों की सूची लम्बी है जिन्होंने जीवन भर अपनी हर फिल्म में पुरे समर्पण के साथ जान लगाकर काम किया और जनता के बीच सराहे गए। जनता उन्हें ऐसे भूमिकाओं में देखना पसंद करती थी और बार-बार देख कर भी उक्ताती नहीं थी | के.एन सिंह धुमाल, राजेंद्र नाथ, जोंनी वॉकर, जीवन नाजिर हुसैन, कन्हैया लाल, आगा मुकरी जैसे अनेक कलाकार अपने फन में माहिर थे, तभी तो आज भी वे हमारी यादों में जिंदा हैं। कांजी आंखों और शाही आवाज वाले मुराद, राजसी लिवास में हों या फटे कपड़ों में, अपनी आँखों से ही सब कुछ कह जाते थे। हां प्राण इन लोगो से कुछ अधिक भाग्यवान रहे। उन्हें कई सम्मान के साथ लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड भी मिला।
जब लीला चिटनिस किसी अनजान शहर में जिन्दगी कि अंतिम सांसें गिन रही थी, उनकी याद किसी को नहीं आई, ललिता पवार तो दादासाहेब फाल्के अवार्ड कि सशक्त प्रत्याशी होकर भी खाली हाथ ही चली गयी हमारे बीच से। सौभाग्यशाली थे प्रदीप जिन्हें जीवन के अंतिम काल में दादासाहेब फाल्के अवार्ड दिया गया पर तब तक इस सम्मान का आनंद उठाने की ताकत ही उनमे नहीं बची थी |
एक थी कुक्कू जिनके नाम से कभी फिल्मे बिकती थी या कि डेयरडेविल नदिया। क्या थी उनके जीवन भर कि कमाई? केवल एक गुमनाम मौत और 4 सतरे समाचार पत्रों में। फिल्म एक ऐसा माध्यम है जो कलाकारों को हमेशा जिंदा रखता है। फिर आज तो टीवी है, ढेरों चैनल्स हैं जिन पर दिन रात नई पुरानी फिल्मों के जरिये ये कलाकार हर दिल में जिंदा रहते हैं। तो ठीक है भले न मिले अजीत या लीला मिश्रा को लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड, उनके प्रशंसकों के दिलों में तो उनकी इज्जत बाल भर भी कम नहीं होगी। भले ही उनके नाम के आगे कोई सरकारी उपाधि न लगे पर जितनी बार उनकी फिल्में परदे पर उभरेंगी , दर्शकों के दिल में उनके लिए प्यार दुगना हो जायेगा और यही होगा उनका लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड।