“कान फिल्मोत्सव में मिले महत्व से जाहिर है अगला दशक भारतीय सिनेमा को बदलने वाला होगा”
भारतीय दृष्टि से इस बार का कान फिल्म फेस्टिवल अभूतपूर्व रहा है। यह इस फिल्म फेस्टिवल का 75वां साल है और संयोग से भारत भी आजादी की 75वीं वर्षगांठ मना रहा है। पहली बार भारत को ‘कंट्री ऑफ ऑनर’ के रूप में कान फेस्टिवल में बुलाया गया था और जिस तरह से हमारा वहां स्वागत हुआ उसे देख ऐसा लगा कि यह पूर्व-नियोजित था। भारत और फ्रांस अपने राजनयिक संबंधों की 75वीं वर्षगांठ भी धूमधाम से मना रहे हैं।
भारत और कान महोत्सव का एक गहरा और पुराना रिश्ता रहा है क्योंकि जिस साल भारत आजाद हुआ था, उस समय चेतन आंनद की बनाई फिल्म नीचा नगर ने कान में ग्रां प्री पुरस्कार प्राप्त किया था। हां, यह जरूर है कि ऑस्कर को फिल्मी दुनिया में सबसे बड़ा पुरस्कार माना जाता है लेकिन कान में मिलने वाले पुरस्कारों की वैल्यू भी कम नहीं है। यानी भारत ने अपनी छाप इस फिल्म फेस्टिवल में उसी साल छोड़ दी थी जिस साल वह आजाद होकर अपने पैरों पर खड़ा हुआ था।
इस साल पहली बार हुआ है जब किसी देश का पूरा प्रतिनिधिमंडल रेड कारपेट पर चला, जिसमें केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर, ए.आर. रहमान, शेखर कपूर, नवाजुद्दीन सिद्दीकी, प्रसुन जोशी और आर. माधवन जैसे लोग शामिल थे। नवाजुद्दीन सिद्दीकी की मैं खास तौर पर चर्चा करना चाहूंगी। नवाजुद्दीन का कान फिल्म फेस्टिवल में सातवां साल है और उन्हें वहां खूब सेलिब्रेट किया जाता है। इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि मेनस्ट्रीम कमर्शियल सिनेमा से ज्यादा वहां स्वतंत्र सिनेमा को सराहा जाता है।
हम देख सकते हैं कि मसान, लंचबॉक्स और मंटो जैसी फिल्मों ने कैसे वहां धूम मचाई और गैंग्स ऑफ वासेपुर ने तो इतिहास ही रच दिया था। इससे पहले मैक्सिम गोर्की के उपन्यास पर आधारित फिल्म नीचा नगर को भी वहां पुरस्कृत किया गया था, जो एक अंडरडॉग की कहानी है, जिसमें हवाबाजी नहीं बल्कि सिर्फ सच्चाई है। भारत के लिए सबसे ज्यादा गर्व की बात यह रही कि शौनक सेन की डॉक्यूमेंट्री आल दैट ब्रिद्स को गोल्डन आई अवार्ड यानी बेस्ट डॉक्यूमेंट्री का आवार्ड मिला। इस बार के फेस्टिवल में भारत को केंद्र में रखकर ही फिल्मों का प्रदर्शन किया गया और जितनी भी फिल्में भारत के तरफ से गई हुई थीं, सभी को शानदार रेस्पांस मिला; चाहे आर.माधवन की राॅकेट्री हो या मैथिली फिल्म धुई हो या फिर निखिल महाजन की मराठी फिल्म गोदावरी हो।
भारत के महान डायरेक्टर सत्यजीत राय को तो वहां आल टाइम ग्रेटेस्ट में माना जाता है। इस बार उनकी फिल्म प्रतिद्वंद्वी ने भी धमाल मचाया और यह दर्शाता है कि राय का आकर्षण कान फिल्म फेस्टिवल में पहले जैसा ही है। राय को ऑस्कर में भी लाइफ टाइम अचीवमेंट अवार्ड मिला था और फ्रांस ने तो उन्हें अपना सबसे बड़ा नागरिक सम्मान दिया। इस बार गर्व की बात यह भी रही कि दीपिका पादुकोण कान फेस्टिवल की एक जूरी मेंबर थीं. हालांकि इससे पहले शेखर कपूर और ऐश्वर्या राय बच्चन जैसे लोग भी इसके जूरी रह चुके हैं।
मेरी समझ से कान फिल्म फेस्टिवल का एक रूप यह भी है कि वह बॉक्स ऑफिस और फिल्मोत्सवों के बीच एक पैरलल लाइन खींचता है क्योंकि यहां सबसे ज्यादा निर्देशकों के क्राफ्ट को सराहा जाता है। विशेष रूप से यह स्वतंत्र सिनेमा का सबसे बड़ा मंच है। क्रिस्टियां ज्यूं जिस तरह स्वतंत्र सिनेमा को बढ़ावा देते हैं, वह सराहनीय है। स्वागत कार्यक्रम के अगले दिन दीपिका पादुकोण ने इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल गोवा का एक पोस्टर लांच किया और उसी दिन मैंने ‘इंडिया इज ए कंटेंट हब ऑफ द वर्ल्ड’ पर एक सेशन मोडरेट किया। हमने चर्चा की कि भारतीय फिल्में ग्लोबल हैं या नहीं? अंत मैंने जयशंकर प्रसाद की चार पंक्तिया पढ़कर खत्म की, हिमाद्रि तुंग शृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती, स्वयंप्रभा समुज्ज्वला स्वतंत्रता पुकारती, अमत्र्य वीर पुत्र हो, दृढ़- प्रतिज्ञ सोच लो, प्रशस्त पुण्य पंथ है, बढ़े चलो, बढ़े चलो।
कान से इस बार हम बहुत कुछ सीखे और अब कोशिश करेंगे कि गोवा फिल्म फेस्टिवल में भी फिल्मों का चयन अंतराष्ट्रीय स्तर का हो। हमने यह भी चर्चा की कि कैसे भारतीय स्वतंत्र फिल्मों को वैश्विक स्तर पर स्पेस दिलाया जा सके। मोटा-मोटी कहा जाए तो भारतीय दृष्टि से पूरा फेस्टिवल सकारात्मक रहा। हमें वहां बहुत सुंदर रेस्पांस मिला। पहली बार किसी देश का लोक गायक वहां रेड कारपेट पर चला होगा। राजस्थान के मशहूर लोक गायक मामे खान को ले जाकर भारत ने एक बड़ा संदेश भी दिया कि कैसे हम संस्कृति को भी नहीं भूलें हैं। लब्बोलुआब यह है कि इस बार कान और भारत के बीच जो समन्वय स्थापित हुआ है, उसको आगे बढ़ाने की हम कोशिश करेंगे।
अंत में, आर माधवन की फिल्म रॉकेट्री को वहां स्टैंडिंग ओवेशन मिला। भारतीय सिनेमा में अब फिर से अंतर्मुखी फिल्में बनने लगी हैं। नब्बे के दशक की वह कहानी जिसमें लड़की बारिश में नाचती थी और मार-काट होता था उससे अब हम ऊपर उठ चुके हैं और यही वजह है कि पंकज त्रिपाठी और नवाज जैसे अभिनेता वहां सेलिब्रेट किए जाते हैं। गौरतलब है कि अंतर्मुखी फिल्में बॉलीवुड के 100 करोड़ क्लब का पार्ट नहीं हैं। ये वे फिल्में हैं जिन्हें लोग पैशन और दिल से बनाते हैं। भारतीय दृष्टि से कहूं तो अगला दशक भारतीय सिनेमा को बदलने वाला रहेगा।
(लेखिका भारतीय फिल्म सेंसर बोर्ड की सदस्य हैं। जैसा कि राजीव नयन चतुर्वेदी को बताया)