-विशाल शुक्ला
ये एक अलसाई हुई सी सुबह थी, फागुन की दस्तक देती सुबह, झरते पत्तों के आवाज से जगाती एक सुबह। लेकिन पता नही क्यों इस सुबह में सब कुछ सहज और सामान्य नही था। वक्त सवेरे का था पर उजाला एक काली चादर ओढ़ छुप गया था, क्योंकि ‘चांदनी’ के जाने की एक मनहूस खबर इसकी पीठ पर सवार हुए चुपचाप चली आ रही थी। कौन जानता था कि आज का सवेरा हिन्दी सिनेमा की ‘नागिन’ के जाने का सदमा देकर जाएगा।
सन् 1963 में भारत की पटाखा राजधानी और छोटी काशी कही जाने वाले तमिलनाडु के शिवकाशी में जन्मी श्रीअम्मा यंगर अयप्पन नाम की बच्ची, जिसने मात्र 4 साल की उम्र में चाइल्ड आर्टिस्ट के तौर पर अपना करियर शुरु किया था, हिन्दी फिल्मों में अपनी अपार लोकप्रियता के चलते श्रीदेवी के नाम से समूचे देश में जानी गईं। पिछले साल उनके सिनेमा में 50 साल पूरे होने पर बोनी कपूर ने क्या खूब कहा था कि ‘ आप जानते हैं किसी ऐसे कलाकार को, जिसने 300 फिल्मों के साथ अपने करियर के 50 साल महज 54 साल की उम्र मे पूरे कर लिए हों।’
वर्सेटाइल एक्ट्रेस: श्रीदेवी के जाने के बाद उनके चाहने वाले अपने-अपने तरीके से उन्हे याद तो कर रहे हैं लेकिन जिस तरह से खबरिया चैनलों और वेबसाइटों उन्हें पर मिस चांदनी, हवहवाई गर्ल जैसे उपनामों से संबोधित कर उनकी प्रतिभा को सीमित कर दिया जा रहा है, वो शायद उनके साथ सबसे बडी नाइंसाफी है। अस्सी के दशक में जब उनका करियर अपने पूरे उफान पर था, और उस दौर की नायिकाओं के लिए मौके भी सीमित थे, उसी दौर में उन्होंने ‘सदमा’ की याद्दाश्त खो चुकी लडकी का किरदार न केवल स्वीकार किया बल्कि उसे पूरे जुनून के साथ निभाकर उसे जीवंत कर दिया। सनद रहे कि अस्सी के दौर में उन्होंने सदमा जैसा किरदार उस वक्त किया जब उनका करियर पूरे शबाब पर था और उन्हे ‘लेडी अमिताभ’ कहा जा रहा था, वो चाहतीं तो आराम से अपने कंफर्ट जोन में रहते हुए केवल पैसा बटोरु फिल्म करना जारी रख सकतीं थीं। इसी दौर में उन्होंने साइंटिफिक थ्रिलर मिस्टर इंडिया में अपने अभिनय से सबको दीवाना बना लिया, मिस्टर इंडिया के किरदार को भी वक्त के लिहाज से उस समय ‘ऑइकानिक’ आंका गया था।
निजी जिंदगी में बेबाक और पर्दे पर सशक्त:आम तौर पर जैसा कि हिन्दी सिनेमा का चलन और रिवाज है कि एक्ट्रेस का करियर छोटा माना जाता है, जिस कारण अभिनेत्रियां बॉलीवुड के काले सच के बारे में खुलकर बोलने से बचतीं हैं। जबकि श्रीदेवी ने इस चलन को तोड़ते हुए कुछ वक्त पहले साफ तौर पर कहा था कि हमारे वक्त में अभिनेत्रियों के लिए शूटिंग के दरम्यान बेसिक सुविधाएं भी नही थीं। हमे झाड़ियों के पीछे कपड़े बदलने पड़ते थे, जबकि अपनी बेटियों को इंडस्ट्री में सेट करने के लिए कोशिश में लगी श्रीदेवी को भी अपनी बेबाकी के नफे-नुकसान का डर रहा ही होगा।
इसके अलावा श्रीदेवी ने 70 एमएम के पदे पर भी चांदनी, लम्हे, चालबाज और अपनी आखिरी फिल्म मॉम में औरत के हक-हकूक की आवाज को खुलकर बुलंद करने वाले किरदारों को निभाकर उन्हें जीवंत कर दिया। याद कीजिए सफेद साड़ी में लिपटी ‘चांदनी’, जो अपने प्रेमी के ठुकरा दिए जाने पर दुखी तो है पर वो दूसरे संबंध में जाने से कतई नही हिचकती. और कौन भुला सकता है लम्हे की वो पूजा, जो अपनी से दुगुनी उम्र के आदमी से इश्क करती है औऱ न सिफ करती है बल्कि खुलकर उसे स्वीकारती भी है और क्या आप भूले होंगे चालबाज़ की मंजू और अंजू का डबल रोल करने वाली श्रीदेवी को। और याद रहे श्रीदेवी ने ये फिल्में उस वक्त में की जब आज की तरह न तो रियलिस्टिक फिल्में बन रहीं थीं और न ही उस वक्त का समाज एक औरत को इस तरह के किरदारों में स्वीकारने में सहज था, तो देखा जाए तो ये उस वक्त में ऐसी फिल्में करना बहुत बड़ा करियर रिस्क था।
इस कड़ी में अगर साल उनकी आखिरी फिल्म मॉम के उस किरदार का जिक्र न किया जाए जिसमें अपनी बेटी के गैंगरेप का बदला लेने को आतुर गुस्से और संकल्प से भरी एक मां पूछती है कि अगर गलत और बहुत गलत में से चुनना हो तो आप किसे चुनेंगे।
उनके सिनेमाई करिज्मा को समझना हो तो उनकी कमबैक फिल्म इंग्लिश-विंग्लिश का ये संवाद देखिए-
‘मर्द खाना बनाए तो कला है और औरत खाना बनाए तो उसका फर्ज‘
लगभग हर दूसरे भारतीय परिवार में होने वाली औरतों की दबी इच्छाओं और उनकी अनदेखी पर प्रतिरोध स्वरुप इससे खूबसूरत अभिव्यक्ति शायद ही हो सके।