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राष्ट्रवाद की नई व्याख्या के दौर में नए सिरे से सोचने को मजबूर करती है 'राग देश'

फिल्म 'आजाद हिन्द फौज' के तीन जांबाज अफसरों के खिलाफ अंग्रेजों द्वारा लगाए देशद्रोह के मुकदमे के आसपास घूमती हुई देशद्रोह और देशभक्ति को बहुत सरल शब्दों में परिभाषित करती है।
राष्ट्रवाद की नई व्याख्या के दौर में नए सिरे से सोचने को मजबूर करती है 'राग देश'

- प्रेम बहुखंडी

'राग देश’ राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित निर्देशक तिग्मांशू धूलिया के निर्देशन में बनी ऐतिहासिक किन्तु सत्य घटनाओं पर आधारित फिल्म है। फिल्म 'आज़ाद हिन्द फौज' के तीन जांबाज अफसरों के खिलाफ अंग्रेजों द्वारा लगाए देशद्रोह के मुकदमे के आसपास घूमती हुई देशद्रोह और देशभक्ति को बहुत सरल शब्दों में परिभाषित करती है। आजादी के पहले के भारत में विभिन्न राजनैतिक दलों और नेताओं की राजनीति का खुलासा भी बहुत ही हलके-फुल्के ढंग से किन्तु गहराई के साथ किया गया है। 

सुभाष चंद बोस और उनकी आज़ाद हिन्द फौज के तीन जांबाज अफसरों की कहानी के साथ-साथ यह कैप्टन लक्ष्मी सहगल और कर्नल प्रेम सहगल की प्रेम कहानी भी है। इसमें वकील भोला भाई देसाई की देशभक्ति और देशद्रोह को लेकर दी गईं दलीलें भी हैं और कुछ भारतीयों की गद्दारी भी। आज जबकि पूरी दुनिया सहित भारत वर्ष में राष्ट्रीयता और राष्ट्रभक्ति को फिर से परिभाषित करने का प्रयास किया जा रहा है, ऐसे समय में यह जानना और भी जरूरी है कि 40 के दशक में हमारे स्वतंत्रता सेनानियों ने किस मानसिकता और जज्बे के साथ अंग्रेजों से संघर्ष किया होगा। क्या मज़बूरियां थीं, क्या जरूरत थी, जो अपनी जान को हथेली पर रखकर ब्रितानी हुकूमत की बन्दूक के आगे खड़े हो गए?

हमारे पहले के सरकारी इतिहासकारों ने इतिहास को एक खास तरीके से लिखा और आज के सरकारी इतिहासकार उसे भगवा रंग से रंगने में लगे हैं लेकिन देश की आजादी में योगदान तिरंगा और भगवा/ हरा से इतर भी है। एक रंग काफी लाल था, लहू के जैसा या यूं कहें कि लहू का रंग और इस रंग के साथ आजादी की लड़ाई में कूदने वालों में लाखों लाख भारतीय-किसान, मज़दूर, नौजवान, छात्र, औरत, मर्द सभी शामिल थे।

यह फिल्म ऐसे ही तीन नौजवान अफसरों की कहानी है, जो नौकरी के लिए अंग्रेजी सेना में भर्ती हो जाते हैं। अंग्रेजों की तरफ से जापान के खिलाफ द्वितीय विश्व युद्ध में शिरकत भी करते हैं किन्तु नेताजी सुभाष चंद बोस के आह्वान पर अंग्रेज सेना से विद्रोह करते हैं और अपनी बन्दूक की नली को अंग्रेज शासन की तरफ तान देते हैं। इस दौरान अनेकों बार अपने ही देशवासियों पर गोलियां चलाने पर भी मजबूर हो जाते हैं।

अंततः इन पर देशद्रोह का मुकदमा चलता है। ये तीन जाबांज अफसर थे - प्रेम सहगल, गुरबख्श सिंह ढिल्लो और शाहनवाज खान। एक हिंदू, एक सिख और एक मुसलमान। जिन पर लाल-किले में ऐतिहासिक मुकदमा चला था, जिसमें उनकी पैरवी भोला भाई देसाई, जवाहरलाल नेहरू, कृष्ण मोहन काटजू ने की थी। कौन थे ये भोला भाई देसाई? क्योँ और कैसे लड़ा गया था ये मुकदमा? क्या नतीजा रहा होगा इस मुक़दमे का? ये कैप्टन लक्ष्मी सहगल कौन थीं? देश की आज़ादी के बाद ये कहां गईं?  ‘जय हिन्द’ का नारा किसने दिया? ‘दिल्ली चलो’ का नारा क्या था?

फिल्म इन्हीं सवालों का जवाब है। फिल्म को बहुत साफ-सुथरे तरीके से, बिना ऐतिहासिक तथ्यों को तोड़े-मोड़े स्पष्ट तरीके से फिल्माया गया है। फिल्म में निर्देशक तिग्मांशू धूलिया को छोड़कर कोई बड़ा नाम नहीं है। इसके बारे में फिल्म निर्माता गुरदीप सिंह सप्पल का कहना है कि हम फिल्म को फिल्मी पर्सनालिटी से दूर देश के असली हीरो पर केंद्रित करना चाहते थे, जिसमें हम सफल हुए हैं।

कलाकारों के चयन के बारे में निर्देशक तिग्मांशू धूलिया का कहना है कि जान-बूझकर ऐसे कलाकारों  को लिया गया है, जो शक्ल से अमीर और शारीरिक रूप से चुस्त-दुरुस्त दिखते हों। इसके लिए नए पुराने कलाकारों का स्क्रीन टेस्ट लिया गया और अंततः कुणाल कपूर, मोहित मारवाह, अमित साध का चयन किया गया। कैप्टन लक्ष्मी सहगल के रोल के लिए ऐसी लड़की चाहिए थी जो हिंदी भी तमिल तरीके से बोले और हमारी खोज पूरी हुई चेन्नई की मृदुला मुरारी के रूप में। फिल्म के निर्माण के समय अनेक समस्याएं आईं। रिसर्च का काम काफी कठिन था। तथ्यों को जस का तस रखने के साथ साथ रोचक भी बनाना था। लोकेशन, कपड़े,  बोलचाल सभी कुछ उस जमाने के हिसाब से रखना चुनौतीपूर्ण था। फिल्म अनेक जगहों में वर्तमान राजनीति और राजनीतिज्ञों के खिलाफ भी जाती है। इस चुनौती का मुकाबला भी करना था। नेताजी सुभाष चंद बोस को लेकर देश का एक बड़ा तबका खासकर नौजवान बहुत भावुक है, लिहाजा इस  बात को भी ध्यान में रखा जाना था। 

फिल्म अनेक मामलो में ऐतिहासिक है और इसको बनाना चुनौतीपूर्ण भी था। आज के दौर में जब मीडिया और खासकर टेलीविजन मीडिया अपने सबसे बुरे और चुनौतीपूर्ण दौर से गुजर रहा है, ऐसे दौर के टेलीविजन चैनल जब सांप-सपेरे, भूत-प्रेत, अंध-विश्वास, सास-बहू और शोरगुल का खेल, खेल रहे थे, ऐसे समय में राज्य सभा टेलीविजन चुपचाप, पूरी गंभीरता से नेताजी सुभाष चंद बोस और उनके साथियों पर शोध कर रहा था।

(लेखक राज्यसभा टीवी के शोध विभाग के प्रमुख हैं।)

 

 

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