किताब का नाम- बिलिवर्स डिलेमा
लेखक- अभिषेक चौधरी
प्रकाशक- पैन मैकमिलन
पृष्ठ- 452
मूल्य- 999 रुपये
क्या एक कवि, जिसकी आवाज में लाखों का दिल बसता हो, एक राजनेता के रूप में वैचारिक जटिलताओं से जूझ सकता है? वो कवि है तो चिंतन उसका एक आसन्न और निरंतर चलने वाली क्रिया है, लेकिन एक राजनेता के तौर शब्दों के इतर तारतम्यता बिठाना क्या एक कवि के बस की बात है? अभिषेक चौधरी की किताब "बिलीवर्स डिलेमा" इस सवाल का जवाब देती है, जो अटल बिहारी वाजपेयी की जीवनी का दूसरा भाग है। यह 1977 से 2018 तक की उनकी यात्रा को न केवल एक राजनेता, बल्कि एक इंसान, कवि और दूरदर्शी नेता के रूप में उकेरती है। यह किताब सिर्फ हिंदुत्व की कहानी नहीं, बल्कि एक ऐसे शख्स की कहानी है, जो अपने विश्वासों और देश की जरूरतों के बीच संतुलन तलाशता रहा।
किताब का दूसरा भाग वाजपेयी के आपातकाल के बाद राजनीतिक उदय, जनसंघ के पतन, बाबरी विध्वंस, 1998 के परमाणु परीक्षण, गुजरात दंगे, गठबंधन राजनीति, यूपीए काल और नाभिकीय सौदों तक की राजनीति को गहराई से दिखाता है। चौधरी ने अभिलेख, दस्तावेज़ और मौखिक साक्षात्कार का उपयोग करके वाजपेयी की राजनीति और हिंदू राष्ट्रवाद को जनता के बीच स्वीकार्य बनाने की यात्रा को बहुत ही स्पष्ट रूप से दिखाया है।
"बिलीवर्स डिलेमा" 1977 की इमरजेंसी के बाद के भारत से शुरू होती है, जब वाजपेयी जनता पार्टी के विदेश मंत्री बने। चौधरी इस दौर को जीवंत करते हैं, जब वाजपेयी अपनी वैचारिक जड़ों और राष्ट्रीय हितों के बीच संतुलन बनाते दिखते हैं। किताब का एक अनूठा फीचर वाजपेयी की विदेश नीति की गहराई है। 1977 में इजराइली मंत्री मोशे दयान से उनकी गुप्त मुलाकात इसका सबूत है। यह मुलाकात, जो मोरारजी देसाई की नीतियों के खिलाफ थी, भारत-इजराइल संबंधों की नींव बनी। घरेलू और पश्चिमी एशिया की राजनीति की साधते हुए ये दौर काफी अहम था।
1998 के परमाणु परीक्षण और कारगिल युद्ध (1999) के दौरान वाजपेयी की कूटनीति भी किताब में विस्तार से जगह दिया गया है। लाहौर बस यात्रा जैसे शांति प्रयास उनके मानवीय दृष्टिकोण को दर्शाते हैं, हालांकि आंतरिक दबावों ने इन्हें सीमित किया। चौधरी लिखते हैं कि वाजपेयी ने वैश्विक मंच पर भारत को एक नई पहचान दी, जो आज भी प्रासंगिक है।
इस किताब में कश्मीर समाधान के लिए “चेनाब फ़ॉर्मूला” का भी जिक्र किया गया है। ये एक गुप्त प्रस्ताव था, जिसमें जम्मू‑कश्मीर के पश्चिमी हिस्से को पाकिस्तान और पूर्वी हिस्से को भारत में रखने की योजना थी। ये किताब भारत की बदलती राजनीतिक वैचारिकी को भी टटोलती है। लेखक कई उदाहरणों से बताता है कि वाजपेयी ने भारतीय राजनीति में हिंदू राष्ट्रवाद को सत्ता में लाने के लिए महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनके नेतृत्व और रणनीतियों के कारण ही नरेंद्र मोदी जैसे नेताओं के लिए मार्ग प्रशस्त हुआ।
साल 2002–2003 का दौर राजनीति में विशेष महत्व रखता है। मई 2002 में जम्मू के कालूचक में आतंकवादियों ने हमला किया, जिसमें 22 लोग मारे गए। इस बीच अलगाववादी नेता अब्दुल गनी लोन की हत्या ने वाजपेयी की कूटनीति और सुरक्षा रणनीति को चुनौती दी। उन्होंने कश्मीर में संतुलन बनाने की कोशिश की और अमेरिकी सहयोग के माध्यम से स्थिति को संभाला। इसी समय गुजरात में नरेंद्र मोदी का राजनीतिक उदय हुआ।
दंगों के बाद, मोदी की रैलियों और भाषणों ने उन्हें जनता के बीच लोकप्रिय बना दिया। भाजपा राज्य में जीती और मोदी की उड़ान को एक नया पंख मिला। वाजपेयी ने देखा कि मंच पर मोदी जनता को प्रेरित करने और पार्टी को मज़बूत करने में सक्षम हैं। उनकी तेज़तर्रार, भावनात्मक और आकर्षक शैली ने वाजपेयी की धीमी, संतुलित छवि के विपरीत उन्हें जनता के बीच मजबूत नेता के रूप में स्थापित किया। किताब में मोदी-अटल जुगलबंदी पर विस्तार से बात की गई है।
आर्थिक सुधारों में वाजपेयी का योगदान किताब का एक और आकर्षक पहलू है। गोल्डन क्वाड्रिलेटरल प्रोजेक्ट और टेलीकॉम क्रांति ने भारत को आधुनिक अर्थव्यवस्था की ओर ले जाने में मदद की। भारत में डिजिटल इंडिया की चमक जो आज हर जगह दिखता है, ठेले-खोमचे वालों से लेकर, रेंड़ी-पटरियों पर जो यूपीआई दिखता है, उस क्रांति का बिगुल कहीं न कहीं बाजपेयी ने भी बजाय था। चौधरी इन सुधारों को वाजपेयी की गठबंधन राजनीति के संदर्भ में देखते हैं, जहां उन्होंने 24 दलों को एकजुट रखा।
2007 के स्ट्रोक ने उनकी आवाज छीन ली, जिसे किताब मार्मिक ढंग से बयान करती है: “अगस्त 2007 में आए स्ट्रोक ने उनका सबसे अनमोल उपहार छीन लिया: उनकी आवाज।” दअरसल, साल 2007 में, अटल बिहारी वाजपेयी को एक स्ट्रोक हुआ, जिससे उनकी बोलने और चलने‑फिरने की क्षमता प्रभावित हुई। उन्हें दिल्ली के ऑल इंडिया इंस्टिट्यूट ऑफ़ मेडिकल साइंसेज़ में भर्ती कराया गया और इसके बाद वे अधिकांश रूप से सार्वजनिक जीवन से दूर रहे। वे अब भी बातचीत कर सकते थे, बस उनकी आवाज़ थोड़ी कमजोर और कुछ शब्द समझने में मुश्किल होते थे। किताब 2018 में वाजपेयी की देहांत के साथ समाप्त होती है।
यह पुस्तक इसलिए खास है क्योंकि यह सिर्फ हिंदुत्व पर नहीं, बल्कि विदेश नीति, संवेदनशील राजनीतिक फैसलों और सत्ता निर्माण की राजनीति को भी दिखाती है। आसान भाषा और फीचर‑स्टाइल में लिखी गई यह किताब पाठकों को वाजपेयी की राजनीतिक यात्रा को सहज और स्पष्ट तरीके से समझने का अवसर देती है। ये किताब सबके बुक शेल्फ में रहनी चाहिए।