राजनीति अब शतरंज की वह बाजी है, जिसमें अपनी चाल से ज्यादा विपक्ष की चाल को अपना कर उससे बाजी झपटना ही जीत की रणनीति बन गई लगती है। यूं तो केंद्र और देश के कई राज्यों में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) विपक्ष के एजेंडे के एकाध सूत्र अपनाकर कामयाबी हासिल करने की मिसालें लगातार कई चुनावों में कायम कर चुकी है, लेकिन क्या इस मुद्दे के साथ भी वह अपनी सोशल इंजीनियरिंग कर पाएगी? खैर, कश्मीर घाटी में पहलगाम आतंकी हमले के बेहद दर्दनाक, क्षोभ और गुस्से के माहौल में अचानक केंद्रीय राजनैतिक मामलों की कैबिनेट समिति ने 30 अप्रैल को अगली दशकीय जनगणना (हालांकि वह दशक 2020 में ही खत्म हो चुका है और अब अगले दशक का आधा भी पूरा होने वाला है) में जाति भी गिनने का फैसला सुनाया तो एकबारगी हैरानी-सी हुई। वजहः हाल तक उसके तमाम नेता-कार्यकर्ता और शीर्ष नेतृत्व भी जाति जनगणना का खुलकर विरोध करता रहा है और इसे अपने हिंदुत्व के एजेंडे के तहत हिंदू समाज को बांटने का एजेंडा बताता रहा है। चाहे तो आप ‘बटेंगे तो कटेंगे’ जैसे हाल के नारे याद कर सकते हैं। लेकिन पार्टी को एहसास है और आंकड़े भी बताते हैं कि सिर्फ ऐसे नारों के आसरे चुनाव जीतना संभव नहीं है, बिहार जैसे राज्य में तो नहीं ही। तभी तो बिहार भाजपा की जाति और आरक्षण के मामले में केंद्रीय पार्टी से अलग लाइन रही है। उसने मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की ही अगुआई में महागठबंधन की सरकार के 2023 में राज्य जाति सर्वेक्षण का समर्थन किया था। लेकिन क्या जाति जनगणना सिर्फ बिहार या उत्तर प्रदेश जीतने की रणनीति का हिस्सा है? या पार्टी के वैचारिक संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की सौवीं वर्षगांठ के इस साल में किसी नई वैचारिकी का नतीजा है?
सरकार को झुकाया?ः जाति गणना के सरकारी फैसले के बाद कांग्रेस की प्रेस कॉन्फ्रेंस
यह कयास जरूर हवा में है कि इस फैसले की पूर्व संध्या पर पहली बार संघ प्रमुख मोहन भागवत प्रधानमंत्री निवास पहुंचे थे। इसके अलावा पार्टी और सरकार की ओर से सिर्फ केंद्रीय मंत्री अश्विनी वैष्णव की प्रेस ब्रीफिंग है कि, ‘‘जाति जनगणना हमारे समाज के सामाजिक और आर्थिक ढांचे को मजबूत करेगी, राष्ट्र निरंतर प्रगति करता रहेगा। कांग्रेस सत्तर साल से इससे इनकार करती रही है।’’ इसी ओर इशारा करते हुए कांग्रेस तथा लोकसभा में प्रतिपक्ष के नेता राहुल गांधी ने कहा, ‘‘एक पेच दिखता है, कहीं यह भी महिला आरक्षण जैसी गुगली तो नहीं।’’ सरकार के इस फैसले के बाद प्रेस कॉन्फ्रेंस में उन्होंने ऐलान किया, ‘‘यह हमारी और विपक्ष की जीत है। हम इसका स्वागत करते हैं, लेकिन हम जानना चाहेंगे कि यह किस विधि से किया जाता है। जाति जनगणना का फायदा तभी है जब उसे गैर-बराबरी दूर करने, संसाधनों में सबको संख्या के अनुपात में हिस्सेदारी देने के लिए इस्तेमाल किया जाए। इसके लिए हमने तेलंगाना मॉडल सीधे लोगों से पूछ कर बनाया है।’’ राहुल इसके साथ आरक्षण की सीमा 50 फीसदी को हटाने और अनुच्छेद 15.5 के तहत निजी क्षेत्र में आरक्षण की बातें भी करते हैं, जो 2006 में यूपीए सरकार के तहत लाया गया था।
कांग्रेस और इंडिया ब्लॉक की लगभग सभी पार्टियों के नेता इसे अपनी जीत बताते हैं। समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव इसे समाजवादियों, पीडीए (पिछड़ा, दलित, आदिवासी) और मुलायम सिंह की जीत बताते हैं। राष्ट्रीय जनता दल के तेजस्वी यादव भी इसे लालू यादव के संघर्षों और महागठबंधन सरकार के जाति सर्वेक्षण की जीत बताते हैं।
दरअसल मंडल आयोग की रिपोर्ट में ही जाति जनगणना की सिफारिश की गई थी, जिसे नब्बे के दशक में वी.पी. सिंह सरकार के लागू करते ही देश की राजनीति खासकर उत्तर भारत में पिछड़े और दलित नेताओं का उभार दमखम के साथ हुआ था। हालांकि पिछड़ा आरक्षण 1993 में लागू हुआ तो पी.वी. नरसिंह राव की कांग्रेसी सरकार थी। लेकिन 1996 में संयुक्त मोर्चा की एचडी देवेगौड़ा की सरकार के दौरान अगली जनगणना में जाति गिनने का कैबिनेट ने फैसला किया था। 2001 की जनगणना में भाजपा की अगुआई वाली एनडीए की अटलबिहारी वाजपेयी सरकार ने जाति गणना से परहेज किया।
फिर, 2004 में कांग्रेस की अगुआई में यूपीए की सरकार बनी तो समाजवादी खेमे के नेताओं लालू यादव, मुलायम यादव, शरद यादव वगैरह ने संसद में जाति जनगणना का मुद्दा उठाया। कांग्रेस में एक बड़े धड़े के मानव संसाधन मंत्री अर्जुन सिंह, कानून मंत्री एम. वीरप्पा मोइली जैसे नेता भी उसके पक्ष में थे। अर्जुन सिंह ही शिक्षा में ओबीसी आरक्षण का बिल लाए थे। इस तरह 2010 में तब के वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी की अध्यक्षता में कैबिनेट ने अलग से सामाजिक आर्थिक जाति जनगणना का फैसला किया। 4,900 करोड़ रुपये की लागत से जुटाए गए आंकड़े आज तक सार्वजनिक नहीं किए गए हैं।
फिर 2014 में केंद्र में आई नरेंद्र मोदी सरकार के दौरान 2016 में उसकी रिपोर्ट को कैबिनेट ने पेचीदगी और कई खामियां भरा पाया और उसकी समीक्षा के लिए तब के नीति आयोग के उपाध्यक्ष अरविंद पनगडि़या की अगुआई में पांच सदस्यीय समिति बनाने का फैसला किया। लेकिन 2019 में सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका की सुनवाई के दौरान केंद्र ने बताया कि पनगडि़या समिति के बाकी सदस्यों की नियुक्ति नहीं हो पाई और समिति की एक भी बैठक नहीं हो सकी। बाद में 2021 में सुप्रीम कोर्ट में ही एक दूसरी याचिका की सुनवाई में सरकार ने कहा कि जाति गणना न करने का सरकार का नीतिगत फैसला है। उसी दौरान संसद के भी सवालों के जवाब में गृह राज्यमंत्री नित्यानंद राय ने कहा था कि अगली जनगणना में जाति शामिल करने का सरकार की नीति नहीं है।
तो, फिर अब इस फैसले की वजह क्या है? पहली नजर में तो कई विपक्षी नेताओं को भी लगा कि कश्मीर में आतंकी हमले से उपजी बड़ी कार्रवाई की मांग के नैरेटिव को कुछ हल्का करने के लिए यह नई सुर्खी आगे कर दी गई है। वजह: सरकार ने न यह कहा है कि जनगणना कब शुरू होगी (जो 2020 में कोविड महामारी के हवाले रोकी गई मगर टलती ही गई), न इस साल के बजट में उसका खास प्रावधान किया गया है, बल्कि उस मद में राशि 1,300 करोड़ रुपये से घटाकर 560 करोड़ कर दी गई है। हालांकि सरकार के ही मुताबिक, 2019 में तकरीबन 6,000 करोड़ रुपये खर्च का अनुमान लगाया गया था। शायद इसी वजह से राहुल गांधी महिला आरक्षण जैसे पेच की बात करते हैं, जिसे अगली जनगणना और उसके बाद संसदीय क्षेत्रों से परिसीमन से जोड़ दिया गया है।
दूसरी वजह चुनाव हो सकते हैं। इस साल बिहार में तो अगले साल पश्चिम बंगाल और 2027 में उत्तर प्रदेश के चुनाव होने हैं। 2024 के लोकसभा चुनावों में खासकर संविधान, आरक्षण (जिसमें जाति जनगणना अभिन्न अंग की तरह जुड़ती गई है) वगैरह के मुद्दों पर झटका खा चुकी भाजपा शायद अब कोई कसर बाकी नहीं छोड़ना चाहती। बिहार में नीतीश कुमार और उनकी जदयू की डांवाडोल स्थिति से अति पिछड़ा और महादलित वोट बैंक में बेचैनी दिख रही है। उसमें सेंध लगाने के लिए राजद और कांग्रेस दोनों ही सक्रिय दिखती हैं।
कांग्रेस ने अपना प्रदेश अध्यक्ष भी अति पिछड़ा समाज के राजेश कुमार को बनाया है। पार्टी लगातार संविधान बचाओ जैसे मुद्दों पर सम्मेलनों के जरिए अति पिछड़ा और दलितों को खींचने की कोशिश कर रही है। ऐसे में करीब 36 प्रतिशत अति पिछड़ा समाज के वोट बिखरे तो एनडीए और भाजपा के लिए मुश्किल हो सकती है। भाजपा इस बार वहां अपना मुख्यमंत्री बनाने का सपना पाले हुए है। ऐसे में जाति जनगणना पर हामी सहारा दे सकती है। जदयू, चिराग पासवान की लोजपा जैसे बिहार में एनडीए के बाकी घटक दलों के लिए वजूद का सवाल बन गया है क्योंकि नए वक्फ संशोधन के खिलाफ राज्य के कई इलाकों में लगातार जैसे भारी जुलूस निकल रहे हैं, उससे खासकर पासमांदा मुसलमानों के वोट गंवाने का खतरा है।
यही हाल उत्तर प्रदेश में है, जहां पिछले लोकसभा चुनावों में भाजपा 33 सीटों पर सिमट गई थी। यहां भी मायावती की बसपा के बिखरने से दलित और अति पिछड़ा वोट सपा और कुछ हद तक कांग्रेस की ओर जाते दिख रहे हैं। भाजपा के साथ संजय निषाद और राजभर की छोटी पार्टियों की साख भी धूमिल होती दिख रही है। मुख्यमंत्री आदित्यनाथ की अल्पसंख्यक विरोधी नीतियों की भी एक सीमा है। इसलिए जाति जनगणना सहारा बन सकती है।
बहरहाल, आखिरी जनगणना अंग्रेजी राज में 1931 में प्रकाशित हुई थी, उसी के आधार पर मंडल आयोग का आरक्षण तय हुआ था। लेकिन 2023 में बिहार और अब कांग्रेस शासन वाले तेलंगाना ने जाति सर्वे के बाद आरक्षण को 65 प्रतिशत तक बढ़ाने की पेशकश की है। बिहार का मामला तो सुप्रीम कोर्ट में है, जिसमें केंद्र हलफनामा दे चुका है कि जनगणना सिर्फ केंद्र ही कर सकता है। लेकिन 1961 में केंद्र ने राज्य सरकारों को अन्य पिछड़े समुदायों (ओबीसी) की जनगणना करने की इजाजत दे दी थी। यह काका कालेलकर पिछड़ा आयोग की सिफारिश के आधार पर किया गया था। अलबत्ता देशव्यापी जाति गणना की सिफारिश नहीं मानी गई थी। जो भी हो, अब देखना है आगे की राजनीति क्या शक्ल लेती है। इसके नतीजे तो बिहार चुनाव में ही दिख सकते हैं।