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लोगों को मानसिक रोगी बना रहा है डिजिटल एडिक्शन

शराब और तम्बाकू की तरह दुनियाभर में डिजिटल एडिक्शन, खासकर मोबाइल फोन का जरूरत से ज्यादा इस्तेमाल, भी एक...
लोगों को मानसिक रोगी बना रहा है डिजिटल एडिक्शन

शराब और तम्बाकू की तरह दुनियाभर में डिजिटल एडिक्शन, खासकर मोबाइल फोन का जरूरत से ज्यादा इस्तेमाल, भी एक बड़ी स्वास्थ्य समस्या बनती जा रही है। स्मार्ट फोन ने तेजी से मानसिक स्मार्टनेस को कुंद करना शुरू कर दिया है। चिकित्सा विशेषज्ञ अब इसे डिजिटल महामारी तक कहने में संकोच नहीं करते। स्मार्ट फोन किस तरह हमारे शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित कर रहा है, ये समझने से पहले हमें ये जानना होगा कि भारतीय समाज में मोबाइल फोन ने कितनी और किस हद तक घुसपैठ कर ली है।

भारत मोबाइल फोन इस्तेमाल करने वाला चीन के बाद दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा देश है। देश के डिजिटल लैंडस्केप में मोबाइल फोन ने किस तरह घुसपैठ कर लिया है उसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि भारत में इस वक्त 90 करोड़ से ज्यादा लोग मोबाइल फोन का इस्तेमाल कर रहे हैं। इनमें 60 करोड़ लोग स्मार्ट फोन का प्रयोग करते हैं। इसमें भी चीन के बाद भारत का दूसरा स्थान है। बाजार विशेषज्ञों का अनुमान है कि 2025 तक ये आंकड़ा 100 करोड़ को पार कर जाएगा।

ये बात किसी से छिपी नहीं है कि हमारे देश में मोबाइल फोन का इस्तेमाल जरूरत से ज्यादा होता है। अब ये केवल बातचीत का जरिया नहीं रहा, इसका ज्यादातर इस्तेमाल इंटरनेट, वीडियो देखने और सोशल मीडिया पर सक्रिय रहने के लिए किया जाता है। मोबाइल पर गेम खेलना अब आम बात है। मोबाइल इस्तेमाल के मामले ने अमीर और गरीब के अंतर को कम कर दिया है। रिक्शा चलाने वाले या फूटपाथ पर सामान बेचने वाले भी इसका इस्तेमाल कर रहे हैं।डिजिटल पेमेंट के लिए और खाली समय में मनोरंजन के लिए।  

नेशनल सेंटर फॉर बायोटेक्नोलॉजी इन्फॉरमेशन ने 2023 में ही एक सर्वे कराया जिसका मकसद ये जानना था कि किस तरह मोबाइल या स्मार्ट फोन का अत्यधिक इस्तेमाल लोगों के मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित कर रहा है। 18 से 15 आयुवर्ग में कराए शोध में ये बात सामने आई कि डिजिटल एडिक्शन का डिप्रेशन (13%), एंग्जायटी (10.7%), स्ट्रेस (12.5%) नींद की अनियमितता (3.4%) से सीधा सम्बन्ध है। लगभग इसी तरह का सर्वे विश्वविद्यालय के छात्रों पर किया गया तो उनमें डिप्रेशन और दूसरे मानसिक रोगों के लक्षण के साथ साथ वजन बढ़ना, आखों की तकलीफ, पीठ दर्द जैसी तकलीफ की शिकायतें पाई गईं।

मेडिकल एक्सपर्ट के अनुसार सोने के समय मोबाइल के इस्तेमाल से नींद न आने की बीमारी का रिस्क बढ़ जाता है। मोबाइल स्क्रीन से निकलने वाली ब्लू लाइट मेलाटोनिन नामक हार्मोन्स के बनने में व्यवधान डालती है. ये हार्मोन्स नींद के लिए मददगार होती है। आगे चलकर इसकी वजह से कई मानसिक रोग हो सकते हैं। मसलन, डिप्रेशन, एन्गजायटी आदि। इसके अलावा. स्मार्ट फोन पर अत्यधिक निर्भरता एक डर को जन्म देता है जिसे फियर ऑफ मिसिंग आउट (फोमो) कहा जाता है। किसी खबर या सामाजिक घटना की जानकारी छूट जाने का डर। कुछ मिस कर जाने और दोस्तों से पिछड़ जाने का डर। मोबाइल पर आने वाल हर नोटिफिकेशन और सोशल मीडिया प्रेशर दिमागी तनाव बढ़ाता है।

साइबर बुलिंग (Cyberbullying) और ऑनलाइन दुर्व्यवहार के बढ़ते मामले, सोशल मीडिया प्लैटफॉर्म्स, मेसेजिंग एप्स पर नकारात्मकता युवाओं में मानसिक समस्याओं के मुख्य कारण होते हैं। डिजिटल एडिक्शन से होने वाली समस्याओं के शुरुआती लक्षण स्पष्ट होते हैं। बात बात पर गुस्सा आना, चिड़चिड़ा हो जाना, घर में या बाहर किसी से मामूली बात पर लड़ पड़ना आदि। ये दिमाग को धीरे धीरे इस कदर प्रभावित कर देता है कि पढाई लिखाई पर तो फर्क पड़ता ही है, किसी काम में मन नहीं लगता। दिमाग में व्याकुलता और निराशा का वास होने लगता है जो आगे चलकर मानसिक रोग का रूप ले लेता है। मनोचिकित्सक मानते हैं कि मोबाइल का अत्यधिक इस्तेमाल यादाश्त को कमजोर करता है और सोचने समझने तथा निर्णय लेने की क्षमता को बेअसर कर देता है।

इस समस्या का सबसे चौंकाने वाला पक्ष ये है कि दूसरे देशों की तुलना में भारत में मोबाइल एडिक्शन के शिकार में नाबालिगों की संख्यां बहुत ज्यादा हैं। मेडिकल विशेषज्ञ मानते हैं कि कम उम्र के किशोरों पर किसी भी लत का दिमागी कुप्रभाव तेजी से पड़ता है। अगर उन्हें फोन न मिले या उनसे फोन ले लिया जाए तो वे बड़ी आसानी से नोमोफोबिया के शिकार हो सकते हैं। नोमोफोबिया का मतलब है – मोबाइल फोन के बिना रहने का डर। ये लक्षण तनाव और चिंता बढ़ाता है जो मानसिक रोग का कारण बन सकता है।

वैसे तो विशेषज्ञों ने इस समस्या के समाधान के कई मार्ग बताए हैं पर सबसे ज्यादा जोर काउंसेलिंग और सख्त अनुशासन पर दिया है। जैसे स्कूल और कॉलेजों में मोबाइल के इस्तेमाल पर रोक है वैसे ही इसे घर में नियंत्रित करना जरूरी है। लोगों को ऑफ लाइन विकल्पों पर भी ध्यान देना होगा, चाहे खेल हो या मनोरंजन। वैसे, आजकल कई ऐसे ऐप्स भी उपलब्ध हे जो स्क्रीन टाइम ट्रैक कर आगाह करते है। डॉक्टरों ने तो डिजिटल डिटॉक्स का सुझाव भी दिया है। मतलब, उपवास रखने की तरह सप्ताह में कम से कम एक दिन डिजिटल उपवास रखा जाए। कुल मिलाकर ये ऐसी समस्या है जिसका समाधान खुद करना होगा। डॉक्टर तो पिक्चर में तब आएंगे जब स्थिति हाथ निकल चुकी होगी। 

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