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प्रथम दृष्टि: निजता का सम्मान हो

अगर कोई आइआइटी का पूर्व छात्र बैरागी जीवन जीना चाहता है तो यह उसका व्यक्तिगत निर्णय है। उसकी निजता का...
प्रथम दृष्टि: निजता का सम्मान हो

अगर कोई आइआइटी का पूर्व छात्र बैरागी जीवन जीना चाहता है तो यह उसका व्यक्तिगत निर्णय है। उसकी निजता का सम्मान होना चाहिए

 

अखबारों की कुंभ के संदर्भ में एक सुर्खी ‘आस्था का सैलाब’ अरसे से प्रकाशित होती रही है। जब कभी यह आयोजित होता है, लाखों लोग संगम में स्नान करने पहुंचते हैं। देश के कोने-कोने से, यहां तक कि विदेशों से आने वाली भीड़ हर बार सैलाब की तरह उमड़ती है। धार्मिक आस्था रखने वाले लोगों का इतनी भारी संख्या में एक स्थान पर जुटने का दुनिया में दूसरा उदाहरण नहीं है। इस दौरान पूरी व्यवस्था को दुरुस्त रखना स्थानीय शासन-प्रशासन के लिए हमेशा बड़ी चुनौती रहा है, लेकिन इस अवसर पर आने वालों की निष्ठा और अनुशासन के बगैर ऐसा कर पाना किसी के लिए संभव नहीं। दूरदराज से आस्थावान लोग आते हैं, स्नान और पूजा-पाठ करते हैं और वापस अपने-अपने घर लौट जाते हैं। कुंभ में आने वाली भीड़ बरसों से किंवदंती का रूप ले चुकी है और यहां के मेले में अपनों से बिछड़ने और मिलने की अद्भुत कहानियां लोक संस्कृति का पुरातन काल से ही हिस्सा रही हैं। 

जाहिर है, आस्था का यह विराट पर्व पूरी दुनिया के लिए कौतुहल का विषय रहा है। हालांकि लोगों को अक्सर हैरानी महज यहां उमड़ने वाले लोगों के हुजूम देख ही नहीं होती है, बल्कि इसलिए भी होती है कि इस पूरे आयोजन का इतना पुख्ता प्रबंधन कैसे संभव होता है। इसे समझने के लिए सुदूर देशों से न सिर्फ चर्चित हस्तियां आती हैं बल्कि कई विश्वविख्यात प्रबंधन संस्थान के शोधकर्ता भी आते हैं। महाकुंभ निस्संदेह सुचारू प्रबंधन का उत्कृष्ट नमूना है। उसकी भव्यता से प्रभावित होकर कई अंतरराष्ट्रीय हस्तियां यहां उपस्थित साधु-संतों से दीक्षा भी लेती हैं।

प्रयागराज में इस बार का महाकुंभ इस मामले में कुछ अलग नहीं है। यह सिर्फ विदेशी सैलानियों को आकर्षित नहीं कर रहा बल्कि दूसरे मुल्कों से ऐसे लोगों को भी खींचता है जो सनातन संस्कृति के मूल्यों से प्रभावित होते हैं। सरकारी आंकड़ों के अनुसार करोड़ों लोग अब तक आ चुके हैं और उनके आने का सिलसिला पूरे महाकुंभ के दौरान अनवरत चलता रहेगा। हालांकि इस बार के कुंभ में सोशल मीडिया की व्यापकता ने एक नया रंग दे दिया है। इस बार वहां सैकड़ों यूटयूबर, सोशल मीडिया इंफ्लूएंशर और रील बनाने वालों का भी जमावड़ा लगा है, जिन्हें वहां मौजूद हर दूसरा संत-महात्मा हैरान कर रहा है। उन्हें कोई ऐसा बैरागी भी मिल जाता है जिसने देश की एक बेहतरीन आइआइटी से शिक्षा ग्रहण के बाद लाखों की नौकरी को त्याग कर अध्यात्म का रुख किया है। उन्हें वहां कोई बॉलीवुड की बहुचर्चित पूर्व अभिनेत्री मिल जाती है जिसे महामंडलेश्वर की उपाधि मिल गई है। किसी युवती की डिजिटल दुनिया में तस्वीर वायरल हो जाती है। कैमरा और मोबाइल थामे इस आतुर मीडिया की कौम के लिए वहां मौजूद हर शख्स की कहानी, चेहरा या रंगढंग अधिक से अधिक लाइक्स पाने का आसान जरिया लगता है। 

वैसे तो कुंभ हमेशा से इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का पसंदीदा रहा है लेकिन सोशल मीडिया की नई फौज के लिए यह मात्र आस्था का महापर्व नहीं है। उनके लिए यह अनगिनत रील बनाने का ऐसा मंच है जहां उसे असीमित संभावनाएं दिखती हैं। बाजारवाद के इस दौर में जब रील और विडियो बनाकर उसे अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचाना और उनसे मिले लाइक्स के आधार पर पैसा कमाना लाखों युवाओं का पसंदीदा शौक बन चुका है, यह आश्चर्यजनक नहीं लगता। उन्हें शायद यह अजूबा लगता है कि उनकी अपनी दुनिया से अलग यह कैसी जगह है, जहां कोई साधु अपनी जटाओं में अनाज उगा रहा है, कोई कड़ाके की सर्दी में बिना कपड़ों के रह रहा है। शायद उन्हें यह समझ नहीं आता कि कोई शख्स सामान्य जीवन में उपलब्ध विलासिता के तमाम साधन-संसाधन को पीछे छोड़ कर आध्यात्मिक जीवन कैसे अपना सकता है। रील बनाने की अंधी दौड़ में वे इससे बेखबर लगते हैं कि साधु-संत और वैराग्य हमेशा से भारतीय संस्कृति और सनातन परंपरा का हिस्सा रहे हैं। ऐसे कई बैरागियों के उदाहरण मिल जाएंगे, जिन्होंने आलीशान जिंदगी जीने के बाद संन्यासी जीवन को चुना। इस बार के कुंभ में चर्चित आइआइटी बाबा पहले और आखिरी बैरागी नहीं है जिन्होंने ऐसा किया, न ही ममता कुलकर्णी पहली अभिनेत्री हैं जिन्हें अध्यात्म की शरण में जाना पड़ा। उनसे पहले अभिनेत्री परवीन बाबी से लेकर अभिनेता विनोद खन्ना तक बॉलीवुड की कई नामवर हस्तियां मानसिक शांति और सुकून की चाहत में अध्यात्म की शरण में गई हैं। उनमें से किसी ने अपने गुरु से दीक्षा ली तो किसी ने सेलेब्रिटी की जिंदगी पीछे छोड़कर एकाकी जीवन को अपनाया।

कुंभ धार्मिक और आध्यात्मिक उत्सव है, जो सैकड़ों साल से करोड़ों लोगों की आस्था का प्रतीक है। सोशल मीडिया का प्रादुर्भाव आज के समाज की हकीकत है, जिसके व्यापक प्रभाव से इनकार नहीं किया जा सकता लेकिन आस्था रखने वालों को किसी भी माध्यम में तमाशा की तरह प्रस्तुत करने से परहेज करना चाहिए। अगर कोई आइआइटी का पूर्व छात्र बैरागी जीवन जीना चाहता है तो यह उसका व्यक्तिगत निर्णय है। उसकी निजता का वैसा ही सम्मान होना चाहिए जैसे देश के किसी भी आम नागरिक का होता है। अध्यात्म का जीवन उन्होंने वैसे ही चुना है, जैसा हम और आप अपनी-अपनी पसंद की चीजें चुनते हैं।

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