भारत किसानों का देश है।लेकिन आधुनिकता और उपभोग की संस्कृति हावी हो जाने के कारण किसानी को नुकसान हुआ है। किसान मौसम, खाद, सिंचाई की समस्याओं के जूझता हुआ फसल पैदा करता है। लेकिन जब खरीद फरोख्त की बारी आती है तो किसान ठगा सा महसूस करता है। भारत में जूट की खेती का अपना इतिहास रहा है। तमाम तरह के अनाज, सब्जी जूट के बैग में ही पैक होकर ग्राहकों तक पहुंचती थी। आज लेकिन जूट के किसानों के अस्तित्व पर संकट पैदा हो गया है। देश के चालीस लाख जूट किसान अपने प्रश्नों के साथ सड़क पर आ गए हैं। उन्हें कोई राह नजर नहीं आ रही है।
किसी जमाने में मुनाफे का सौदा रहने वाली जूट की खेती आज किसान के लिए जी का जंजाल बन गई है। बाजार में जूट की खपत में भारी कमी आई है। किसानों से जूट की खरीद फरोख्त करने वाली जूट मिलों ने हाथ खड़े कर दिए हैं। इस तरह जूट किसान कहीं के नहीं रह गए हैं।
जूट मिलों ने पिछ्ले कुछ महीनों में उत्पादन में भारी गिरावट की है। इसका नतीजा यह हुआ है कि जूट की खेती करने वाले किसानों की फसल बेकार जा रही है। उन्हें उपज के औने पौने दाम तक नहीं मिल रहे हैं। किसानों के अलावा जूट कारोबार से जुड़े कारोबारी और ट्रांसपोर्टर भारी नुकसान में हैं। उत्पादन को लेकर, जूट मिलों के इस फैसले से आज यह नौबत आ गई है कि सभी जूट कारोबारी, जूट किसान आजीविका चलाने के लिए मोहताज हो गए हैं।
जूट खेती आज इस स्थिति में पहुंची है तो इसके पीछे सबके बड़ा कारण है जूट पैकेजिंग मैटेरियल एक्ट का उल्लंघन, जो कि भारतीय चीनी उद्योगों द्वारा किया जा रहा है। जूट पैकेजिंग मैटेरियल एक्ट 1987 के नियम अनुसार भारतीय उद्योगों को यह निर्देश दिए गए हैं कि वह अपने उत्पादों को पैक करने के लिए भारतीय जूट मिलों द्वारा तैयार किए गए जूट बैग का इस्तेमाल करेंगे।एक्ट के अनुसार 100 प्रतिशत अनाज और चीनी को पैक करने के लिए जूट बैग का इस्तेमाल किया जाना था। शुरुआत में चीजें ठीक ढंग से चलीं। मगर समय के साथ कई बदलाव आए। खाद और सीमेंट की पैकेजिंग में नवीनता आई और इस तरह यह दोनों जूट पैकेजिंग से बाहर हो गए। आहिस्ता आहिस्ता कुछ और वस्तुएं, जिनका जूट पैकेजिंग होना अनिवार्य था, उनके प्रतिशत में भी कमी आई। इसी तरह चीनी की पैकेजिंग में यह बदलाव आया कि एक्ट के अनुसार 20 प्रतिशत चीनी का जूट बैग में पैक होकर ग्राहकों तक पहुंचना अनिवार्य कर दिया गया। लेकिन बीते 10 वर्षों में चीनी उद्योगों द्वारा भारी अनियमितता बरती गई है।
साल 2014 से ही जूट कमिश्नर के ऑफिस द्वारा नियमित रूप से चीनी उद्योगों से संपर्क किया जाता है और जूट पैकेजिंग मैटेरियल एक्ट का हवाला देकर कहा जाता है कि 20 प्रतिशत चीनी की जूट पैकेजिंग सुनिश्चित की जाए। लेकिन हैरानी की बात है कि चीनी उद्योगों द्वारा कभी भी जूट कमिश्नर ऑफिस के नोटिस का संज्ञान नहीं लिया जाता। अफसोस की बात तो यह है कि इस लापरवाही और एक्ट के उल्लंघन के बावजूद चीनी उद्योगों पर जिम्मेदार प्रशासन द्वारा किसी किस्म की कार्रवाई नहीं की गई है।
यह बेहद शर्मिंदगी की बात है कि चीनी उद्योगों द्वारा जूट पैकेजिंग की जगह सस्ती प्लास्टिक पैकेजिंग का इस्तेमाल किया जा रहा है। प्रशासन के जिम्मेदार अधिकारी सब कुछ देखकर, जानकर भी मूक दर्शक बने हैं। न ही चीनी उद्योगों को जूट पैकेजिंग मैटेरियल एक्ट मानने के लिए बाध्य किया जा रहा है और न ही उन पर किसी तरह का जुर्माना लगाया जा रहा है।
कुछ समय पहले तक, पूर्वी भारत में स्थित जूट मिलों के सामने यह चुनौती रहती थी कि वह भारत सरकार द्वारा रखी गई जूट बैग की डिमांड की सप्लाई सुचारू ढंग से सुनिश्चित कर सकें। जूट बैग की भारी डिमांड के कारण जूट मिलों का कारोबार उन्नति पथ पर था। इस उन्नति को ध्यान में रखते हुए तमाम जूट मिलों ने अपनी उत्पादन क्षमता बढ़ाने पर ध्यान दिया। मगर इस साल जिस तरह की घटनाएं हुईं, उन्होंने जूट मिलों को भारी नुकसान पहुंचाया है। चीनी उद्योगों द्वारा प्लास्टिक पैकेजिंग से जूट मिलों पर गहरा आघात पहुंचा है।
इस बीच, रूस यूक्रेन युद्ध के कारण गेंहू की फसल के दाम बढ़ गए थे। जिस कारण किसानों ने सरकार की जगह निजी क्षेत्र को गेंहू बेचने की इच्छा जताई। किसानों को सरकार की जगह निजी क्षेत्र के साथ गेंहू की खरीद फरोख्त में मुनाफा नजर आया। जब किसानों ने गेंहू की फसल सरकार की जगह निजी क्षेत्र को बेचनी शुरु की तो गेंहू की पैकेजिंग के लिए जूट बैग की जगह अन्य पैकेजिंग मैटेरियल इस्तेमाल होने लगा। यहां से जूट मिलों को एक और बड़ा झटका लगा। चूंकि अब सरकार के पास कम मात्रा में गेंहू था तो, उसकी पैकेजिंग के लिए कम जूट बैग चाहिए थे। इस तरह जूट मिलों के उत्पादन में गिरावट आई और जूट मिलों ने जूट किसानों से दामन छुड़ा लिया। इतना ही नहीं जूट मिलों ने जो जूट बैग बनाए थे, वह भी पड़े पड़े बर्बाद होने लगे।
संकट की इस स्थिति में किसान सड़क पर उतर आए हैं। यह उनके अस्तित्व की बात है। यदि उन्होंने अब भी अपनी आवाज नहीं उठाई तो उनके बच्चे भूखे मरने लगेंगे। पश्चिम बंगाल में किसान सड़क पर आकर चक्का जाम करने से लेकर मोर्चा निकालने का काम कर रहे हैं। स्थिति इतनी बुरी है कि इन किसानों को लागत के आधे दामों पर अपनी फसल बेचनी पड़ रही है। इनके पास कोई विकल्प नहीं है। इनके बच्चे भूख से बिलख रहे हैं। किसानों के अलावा जूट मिल मजदूरों की स्थिति भी बहुत खराब है। जूट मिलों द्वारा कर्मियों के काम का समय घटा दिया गया है। चूंकि उत्पादन क्षमता कम हुई है तो कर्मियों से कहा गया है कि रोज काम पर आने की जरूरत नहीं है। इससे कर्मियों को आर्थिक झटका लगा है।
सबसे अधिक दुःख की बात यह है कि इतना सब कुछ खुलेआम हो रहा है और कोई भी आवाज नहीं उठा रहा। जूट बैग की जगह चीनी उद्योगों द्वारा प्लास्टिक पैकेजिंग मैटेरियल इस्तेमाल किया जा रहा है।इसका कितना बड़ा पर्यावरण नुकसान है, यह सब जानते, समझते हुए भी खामोश हैं। एक तरफ देश दुनिया में पर्यावरण संरक्षण की बातें और सम्मेलन हो रहे हैं। दूसरी ओर चंद मुनाफे के लिए जूट बैग की जगह प्लास्टिक पैकेजिंग इस्तेमाल हो रही है। जूट बैग की कीमत अधिक हो सकती है लेकिन यह लंबी अवधि तक बार बार इस्तेमाल किए जा सकते हैं और इनसे प्रकृति को कोई नुकसान नहीं है। लेकिन उपभोग की संस्कृति ऐसी हावी हो गई है कि बेचारा किसान, जूट मिल मजदूर जागते हुए रात गुजार रहा है और ज़िम्मेदार लोगों के कान में जूं तक नहीं रेंग रही। यदि इस मुद्दे पर ध्यान नहीं दिया गया तो आने वाले समय में यह समस्या और अधिक विकराल हो जाएगी और उसके जो परिणाम होंगे, वह किसी भी सभ्य समाज पर एक बदनुमा दाग बनकर हमेशा के लिए रह जाएंगे। सरकार और प्रशासन को चाहिए कि वह एक्ट, नियम का कड़ाई से पालन कराएं और अनियमितता बरतने वालों पर दंडात्मक कार्रवाई करें। इसके अतिरिक्त सरकार को जूट मिल मालिकों, किसानों, चीनी उद्योगपतियों के साथ बैठक कर के नीति बनानी चाहिए। जिससे वर्तमान समस्या का स्थाई समाधान हो सके।जब किसान के चेहरे से चिंता के बादल हटेंगे, उसका भविष्य उज्ज्वल होगा, तभी भारत "किसानों" का देश रह पाएगा।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। विचार निजी हैं।)