एक समय था जब पढ़ाई का मतलब होता था-शिक्षक की आँखों में आत्मीयता, ब्लैकबोर्ड पर चॉक की आवाज़, और साथियों के साथ बहसें। वह एक सामाजिक और भावनात्मक अनुभव था, जहाँ ज्ञान सिर्फ़ पाठ्यक्रम नहीं, एक साझा प्रक्रिया थी। लेकिन आज की पढ़ाई एक स्क्रीन में सिमट गई है। मोबाइल, टैबलेट या लैपटॉप पर टिके छात्र घंटों तक वीडियो देखते हैं, नोट्स डाउनलोड करते हैं और टेस्ट देते हैं। यह निरंतर संपर्क शारीरिक नहीं, मानसिक थकान को जन्म देता है-एक अदृश्य दबाव जो बार-बार स्क्रीन की ओर खींचता है, प्रदर्शन की बेचैनी से भरता है, और लगातार तुलना के तनाव में डाल देता है।
तकनीक ने कई सुविधाएँ दी हैं, लेकिन अत्यधिक डिजिटल इंटरैक्शन मानसिक संतुलन को बिगाड़ सकता है। ResearchGate पर प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार, वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग और मेटावर्स जैसे डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म parasympathetic nervous system की गतिविधियों को कम कर देते हैं, जिससे उपयोगकर्ता अधिक थका हुआ और तनावग्रस्त महसूस करता है। एक अन्य अध्ययन में पाया गया कि विश्वविद्यालय के छात्र जब लंबी अवधि तक स्क्रीन पर टिके रहते हैं, तो उनका learning satisfaction घटता है, और self-regulation के अभाव में यह डिजिटल बर्नआउट की ओर ले जाता है।
भारत में भी यह समस्या तेज़ी से उभर रही है। NCERT की 2022 की रिपोर्ट -“Mental Health and Well‑being of School Students” -के अनुसार, 51% छात्रों ने ऑनलाइन पढ़ाई में सामग्री को समझने में कठिनाई बताई, जबकि 81% छात्रों ने पढ़ाई, परीक्षा और परिणाम को चिंता का सबसे बड़ा कारण माना। यह आँकड़ा स्पष्ट करता है कि डिजिटल शिक्षा केवल तकनीकी समस्या नहीं, मानसिक स्वास्थ्य का एक गहरा संकट भी है।
इसके साथ ही, छात्र और शिक्षक के बीच जो आत्मीय संवाद शिक्षा की आत्मा हुआ करता था, वह अब लगभग समाप्त हो गया है। Azim Premji University के एक सर्वे में पाया गया कि 80% से अधिक शिक्षकों ने माना कि ऑनलाइन कक्षाओं में छात्रों से भावनात्मक जुड़ाव बनाए रखना लगभग असंभव है। इस संवादहीनता का असर यह है कि छात्र अपने डर, थकान या भ्रम को व्यक्त नहीं कर पाते, और अकेले ही उस बोझ से जूझते रहते हैं।
इस संकट से उबरने के लिए केवल तकनीक को दोष देना पर्याप्त नहीं है। समाधान वहां है जहां समझ, सहानुभूति और संतुलन है। World Health Organization की गाइडलाइन कहती है कि कम उम्र के बच्चों को सीमित स्क्रीन टाइम और लगातार ब्रेक मिलना चाहिए-लेकिन यह चेतावनी केवल छोटे बच्चों पर ही नहीं, बल्कि किशोरों और युवा छात्रों पर भी लागू होती है। ब्रेक, मानसिक विश्राम और लाइव संवाद की भूमिका ऑनलाइन शिक्षा में अनिवार्य रूप से होनी चाहिए।
शिक्षा केवल अंक लाने की प्रक्रिया नहीं है-वह मन, मस्तिष्क और जीवन को संतुलित करने की विधा है। अगर कोई छात्र परीक्षा में सफल होकर भी भीतर से बिखर जाए, तो यह उसकी नहीं, हमारी प्रणाली की विफलता है। अब समय है कि हम छात्र को एक रोल नंबर नहीं, एक सोचने‑समझने वाला व्यक्ति मानें। जो भी ऑनलाइन शिक्षा का भविष्य बने, वह तभी सार्थक होगा जब उसमें तकनीक के साथ करुणा, और कंटेंट के साथ संवाद जोड़ा जाए। स्क्रीन के उस पार भी एक मन है-जो थकता है, डरता है, और उम्मीद करता है। उस मन को सुनना, समझना और संभालना ही इस युग की सबसे बड़ी ज़िम्मेदारी है।