द्रमुक प्रमुख एम करुणानिधि के अंत्येष्टि स्थल को लेकर जिस तरह से विवाद हुआ उससे मुझे 11 साल पहले पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर के निधन के बाद का वाकया याद आ गया। चंद्रशेखर का निधन आठ जुलाई 2007 को हुआ था। उनके समर्थक और नजदीकी रिश्तेदार चाहते थे कि उऩका अंतिम संस्कार यमुना नदी के किनारे वहीं हो जहां महात्मा गांधी, जवाहर लाल नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री, इंदिरा गांधी, चरण सिंह को आखिरी विदाई दी गई थी। उनकी मांग शायद जायज थी कि क्योंकि दिवंगत युवा तुर्क देश के प्रधानमंत्री रहे थे और वह भी सिर्फ 16 साल पहले।
जब कई पूर्व प्रधानमंत्रियों का अंतिम संस्कार यहां हुआ तो चंद्रशेखर का क्यों नहीं? वह पूर्व प्रधानमंत्रियों के वर्ग और बिरादरी में शामिल थे और इस विशेष जगह पर स्थान पाने के हकदार थे। लेकिन भारत सरकार के पास इस विशेष स्थान पर अंतिम संस्कार के लिए अनुमति देने को लेकर कुछ बाध्यताएं थी। संभवतः जगह की कमी इसका कारण हो और इसके अलावा सरकार यह नहीं चाहती थी कि यह एक उदाहरण बने और भविष्य में भी ऐसी मांग उठे।
चंद्रशेखर के समर्थकों की इस मांग के बीच मेरे पास तत्कालीन केंद्रीय गृह सचिव का फोन आया। उन्होंने मुझसे तुरंत चंद्रशेखर के परिवार से मिलकर उन्हें इस बात के लिए राजी करने के लिए कहा गया कि वे यमुना किनारे अंतिम संस्कार की मांग छोड़ दें। इस कॉल से मैं आश्चर्यचकित रह गया क्योंकि मेरे पास इस तरह का कोई अधिकार नहीं था कि मैं परिवार को मांग छोड़ने और जगह बदलने के लिए राजी कर कर सकूं ।
मैं यहां यह बताना चाहूंगा कि क्यों गृह सचिव ने लोगों से आग्रह करने जैसी भारी ज़िम्मेदारी के लिए मुझे चुना। दरअसल, स्पेशल प्रोटेक्शन ग्रुप (एसपीजी) में सात साल तक रहने के दौरान मैं लगातार चार प्रधानमंत्रियों की निजी सुरक्षा में रहा। चंद्रशेखर जब छोटे से कार्यकाल (10 नवंबर 1990 से 21 जून) के दौरान प्रधानमंत्री थे तो उनकी सुरक्षा भी हमारे ही ग्रुप के जिम्मे थी। मैं उन्हें अच्छी तरह से जानता था। इसकी वजह से मेरे पूर्व बॉस ने गृह सचिव को सलाह दी कि वह सरकार के अनुरोध को उनके परिवार तक पहुंचाने और उन्हें समझाने का जिम्मा मुझे सौंपे।
तब मैं कैबिनेट सचिवालय में अलग जिम्मेदारी के तहत कार्यरत था। लेकिन गृह सचिव स्तर के अधिकारी का आग्रह (वास्तव में आदेश) को नहीं मानना आसान काम नहीं था। इस आदेश से बचने के लिए मैंने उनके कहा कि मैं कैबिनेट सचिव के मातहत काम कर रहा हूं और ऐसे में इस काम के लिए उऩकी मंजूरी जरूरी है। मैं उस वक्त विस्मित रह गया जब गृह सचिव ने कहा कि वह कैबिनेट सचिव के चैंबर से ही बोल रहे हैं और उन्होंने मेरे बॉस से इसके लिए स्वीकृति ले ली है। अब मेरे पास इस काम से बचने का कोई विकल्प नहीं था। इसके बाद मैं चंद्रशेखर के 3, साउथ एवेन्यू स्थित आवास पर पहुंचा और उनके बड़े बेटे पंकज चंद्रशेखर को भरे हुए दिल से अपने आने का कारण बताया।
पंकज ने मुझे बताया कि तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और यूपीए की चेयरमैन सोनिया गांधी भी परिवार के सदस्यों से फोन पर बात कर विशेष स्थान की जगह दूसरी जगह अंतिम संस्कार करने का सरकार का आग्रह मान लेने का प्रयास कर रहे हैं पर अभी तक कोई समाधान नहीं निकला है। इससे साफ होता है कि शोकाकुल परिवार को जगह बदलने के लिए राजी करना कितना कठिन कार्य था। वह भी ऐसे समय में जब वहां चंद्रशेखर का पार्थिव शरीर रखा हो सैकड़ों वीआइपी उन्हें श्रद्धांजलि देने के लिए आ रहे हों।
इसके बाद मैं जल्दी से कमरे से बाहर निकला और कोने में जाकर गृह सचिव को स्थिति की जानकारी दी। वह आश्वस्त थे। मैंने अपना काम किया पर मुझे पता था कि यह मेरे लिए करीब-करीब असंभव कार्य था क्योंकि इसमें सभी बड़े लोग विफल हो गए थे। आखिरकार परिवार के लोग जीते और चंद्रशेखर का अंतिम संस्कार वहीं हुआ जिस स्थान को परिवार के सदस्यों ने तय किया था। ये सरकार सहित सभी के लिए महत्वपूर्ण क्षण था। आगे भी ऐसे क्षण आएंगे और इसके लिए योजनाबद्ध तरीका अपनाया जाना चाहिए।
शुक्र है कि करुणानिधि के मामले में कोर्ट ने द्रमुक कार्यकर्ताओं और परिवार के सदस्यों की इच्छा के अनुसार उन्हें पूर्व मुख्यमंत्री सीएन अन्नादुरई के मरीना बीच स्थित स्मारक के अंदर दफनाने का आदेश दिया। अब ऐसा करना आसान हो गया। अगर इसे सरकार पर छोड़ दिया जाता या लोगों, पार्टी और परिवार के सदस्यों की इच्छा के अनुसार अंतिम संस्कार की अनुमति नहीं दी गई होती तो कानून और व्यवस्था के लिए बड़ी समस्या खड़ी हो गई होती।
(लेखक सुरक्षा विश्लेषक, एसपीजी के पूर्व अधिकारी, सामयिक मुद्दों पर लिखने वाले फ्री लांसर है। ये उनके निजी विचार हैं।)