“मणिपुर में दो जनजातीय महिलाओं का वीडियो संसद सत्र शुरू होने से ठीक पहले आया और पूरे देश को शर्मसार कर गया। देश के बाकी हिस्सों में आदिवासी औरतों के साथ जो हो रहा है, उसकी कहानियां बताती हैं कि यह हिंसा सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था की ओर से बाकायदा संगठित और पोषित है”
आखिरकार, तकरीबन ढाई महीने बाद एक युवती और एक अधेड़ महिला को निर्वस्त्र कर दिनदहाड़े सरेराह घुमाए जाने का लीक हुआ एक वीडियो मणिपुर के मसले पर देश को झकझोरने का सबब बना। इसके दस दिन बाद विपक्षी दलों के 21 सांसदों ने वहां का दौरा किया। महिला सांसदों से मिली पीड़ित औरतों ने बताया कि उस घटना के दौरान पुलिस खुद दानवी भीड़ का हिस्सा बनी रही थी। जनजातीय या आदिवासी औरतों पर ऐसे हमले दो समुदायों के टकराव में सिर्फ मणिपुर में नहीं हो रहे हैं। अपने जल, जंगल और जमीन को बचाने के लिए आदिवासियों की लड़ाई में उनकी औरतों के साथ अत्याचार को एक औजार की तरह इस्तेमाल करने का सिलसिला देश के दूसरे हिस्सों में भी बढ़ता जा रहा है।
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़े भी इसकी गवाही दे रहे हैं। एनसीआरबी के अनुसार, अनुसूचित जनजाति की महिलाओं पर जुल्म की घटनाओं में 2020 (8272 घटनाएं) के मुकाबले 2021 में (8802 घटनाएं) 6.4 फीसदी की वृद्धि दर्ज हुई है। ऐसा हर मामला थाने में दर्ज नहीं होता। इनमें अपंजीकृत मामले ज्यादा होते हैं, जो आधिकारिक आंकड़ों को कम कर देते हैं। झारखंड ट्राइबल रिसर्च इंस्टिट्यूट के पूर्व निदेशक डॉ. प्रकाशचंद्र उरांव कहते हैं, “आदिम जनजातीय समूह तमाम तरह के जुल्म झेलने को बाध्य होते हैं, वहां से अत्याचार और उत्पीड़न के आंकड़ें रेंग कर भी जिला मुख्यालय तक नहीं पहुंच पाते।”
आदिवासी महिलाओं के साथ आए दिन पुलिसिया अत्याचार होता है
इस साल की शुरुआत में बिहार के रोहतास जिले में कैमूर की पहाड़ियों के बीच बसे एक पिछड़े गांव नागाटोली की राजकली उरांव अपनी सहेलियों के साथ सूखी लकड़ियां इकट्ठा करने जंगल गई थी। वहां वन विभाग के सिपाहियों ने उसके साथ सामूहिक बलात्कार कर उसकी हत्या कर दी। आज तक कैमूर के आदिवासी इस मामले को लेकर आंदोलन कर रहे हैं। बीते अप्रैल में झारखंड के साहेबगंज जिले के बोरियो इलाके में पति संग मेला घूमकर लौट रही एक महिला के साथ सामूहिक दुष्कर्म की घटना हुई। पिछले साल के आखिरी महीने में इसी इलाके की रूबिका प्रधान की हत्या हुई और बारह टुकड़ों में उसकी लाश की बरामदगी की खबरें सुर्खियों में छाई रही थीं। इसी तरह महाराष्ट्र के नंदुरबार में एक आदिवासी लड़की की सामूहिक बलात्कार के बाद हत्या कर दी गई। सच्चाई सामने लाने के लिए उसके पिता ने बेटी का शव कथित तौर पर 44 दिनों तक नमक के गड्ढे में संरक्षित रखा ताकि जांच की जा सके। मार्च 2022 में महाराष्ट्र के ही पालघर के एक फार्महाउस में एक आदिवासी युवती की हत्या कर दी गई थी। 2022 की जुलाई में झारखंड के पश्चिमी सिंहभूम जिले में एक औरत को डायन बताकर मार डाला गया। इसी महीने में मध्य प्रदेश के गुना जिले में संपत्ति विवाद में एक औरत को जिंदा जला दिया गया। ऐसी तमाम खबरें आती हैं और कुछ समय बाद गायब हो जाती हैं।
जून 2022 में तेलंगाना के भद्राद्री कोठागुडेम जिले के चंद्रगोंडा मंडल के मद्दुकुर और बेंदलापाडु गांवों की चार गर्भवती महिलाओं सहित नौ आदिवासी औरतों ने आरोप लगाया था कि वन अधिकारियों ने उन्हें डंडे और बेल्ट से पीटा। आरोप है कि कर्मचारियों ने चार आदिवासी औरतों की सिर्फ पिटाई नहीं की, बल्कि चारों को घने जंगल में ले जाकर उनमें से दो को निर्वस्त्र कर दिया। उत्तर प्रदेश में आदिवासियों के मुद्दे पर काम करने वाली रोमा मलिक कहती हैं, “विभाग के वनपाल अपने इलाके में बहुत हैसियत रखते हैं। वे जो चाहे, जैसा चाहें व्यवहार आदिवासियों के साथ करते हैं। जाहिर है, इस व्यवहार में बदसलूकी ज्यादा रहती है।” वे कहती हैं, “वन विभाग आदिवासियों की संस्कृति, सामाजिक सरोकार और आस्था में लगातार हस्तक्षेप करता रहता है।”
छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा में रहने वाली सामाजिक कार्यकर्ता सोनी सोरी खुद बर्बर पुलिस ज्यादती का शिकार रही हैं। उन्हें जिस पुलिस अधिकारी के कार्यकाल में प्रताड़ित किया गया था बाद में उसे राष्ट्रपति मेडल से सम्मानित किया गया। इस घटना पर देश के नागरिक समाज में बहुत तीखी प्रतिक्रिया हुई थी। सोनी कहती हैं, “आदिवासी औरतों के खिलाफ हिंसा की घटनाओं के इतने पहलू हैं कि इसका कोई एक कारण नहीं गिनाया जा सकता। हर राज्य में आदिवासियों पर अलग-अलग किस्म से अत्याचार हो रहे हैं। जैसे, छत्तीसगढ़ में माओवादियों के खिलाफ अभियान में पुलिस पर आरोप है कि वह आदिवासियों की जिंदगी में अपराध का जहर घोलती है।”
यूनाइटेड नेशंस सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल्स के अन्तर्गत चेंजमेकर का खिताब जीतने वाली सृष्टि बक्शी के विचार में, “महिलाओं को समाज में उनकी जगह या औकात दिखाने के लिए बलात्कार या यौन हिंसा के कई अन्य रूपों का उपयोग उपकरण के रूप में किया जाता है, लेकिन आदिवासी अंचलों में कानून व्यवस्था का लचर होना और जातीय दबाव समूहों के साथ पुलिस की मिलीभगत का इतिहास न सिर्फ रक्तरंजित है बल्कि प्रभुता-संपन्न जातियों की क्रूरता की कहानियां अब दंतकथाओं का रूप ले चुकी हैं।”
सामाजिक हिंसा के आयाम
छत्तीसगढ़ में उनके जैसी अनगिनत आदिवासी महिलाएं पुलिस प्रताड़ना का शिकार हुई हैं। फिलहाल छत्तीसगढ़ और झारखंड में नक्सलियों के नाम पर लगभग 4000 आदिवासी महिलाओं पर पुलिस केस दर्ज हैं। आदिवासी औरतों पर केवल राज्य ही हिंसा नहीं करता, केवल पुलिस ही मुकदमे नहीं लादती। एक तो अनुसूचित इलाकों में कारोबार और पैसे की लालच में बढ़ता बाहरी लोगों का प्रवेश और मिश्रित आबादी भी उनके ऊपर अत्याचारों का सबब बनती है। इस परिघटना को कोई चार दशक से अधिक होने को आ रहा है, जब आदिवासी इलाकों में खनिजों और प्राकृतिक संसाधनों की लूट के लिए आजाद भारत में शहरी ठेकेदारों का आना शुरू हुआ था। इसका सबसे अच्छा और सहज प्रमाण हिंदी में अस्सी के दशक में बना सिनेमा है, जहां आदिवासी औरतों पर अत्याचार की शुरुआती छवियां सामने आई थीं। इनमें आक्रोश, मैसी साहब, अंकुर, द्रोहकाल, मृगया, जैसी फिल्में थीं। आदिवासी समाज के भीतर औरों के ऊपर होने वाले अत्याचारों की छवियां थोड़ी देर से सामने आईं, हालांकि झारखंड की डायन-बिसाही प्रथा पर बनी पहली डॉक्युमेंट्री फिल्म को आए भी तीस साल हो रहे हैं।
बिहार के रोहतास जिले के कैमूर की पहाड़ियों के एक आदिवासी-बहुल गांव सोली के लक्ष्मण सिंह खरवार कहते हैं, “गैर-आदिवासी समाज आदिवासी स्त्री को सस्ता और सहज उपलब्ध साधन मानता है। किसी औरत के साथ कुछ भी होता है, कुछ दिनों तक उबाल रहता है, फिर बाद में शांति पसर जाती है। अपने रोज के संघर्ष में लोग घटना को भूल जाते हैं।”
आम तौर से जनजातियों के बारे में एक धारणा यह है कि वहां का समाज मातृसत्तात्मक होता है। मणिपुर की ताजा घटनाओं ने इस धारणा को अचानक तेज धक्का दिया है, जहां मैतेई औरतों का संगठन ‘माइरा पैबिस’ कुकी औरतों के खिलाफ खड़ा हुआ दिखता है। इसी तरह, यह जानना भी हैरतनाक है कि आदिवासी औरतों पर जुल्म का सबसे बड़ा प्रहार उनके अपने समुदाय के भीतर होता है, जब उन्हें डायन या बिसाही बताकर उनकी हत्या तक कर दी जाती है। माना जाता है कि देश के छह राज्यों में डायन प्रथा अब भी जिंदा है और आए दिन अलग-अलग बहानों से औरतें मारी जा रही हैं। ऐसे मामलों में झारखंड देश में सबसे आगे है, हालांकि यहां भी सभी जनजातियों में समान रूप से यह बुराई नहीं पाई जाती। कुछ खास क्षेत्रों और जनजाति समूहों में ही डायन-बिसाही की प्रथा देखी जाती है।
आंकड़ों के मुताबिक, सन् 2000 से लेकर 2021 तक 3000 से ज्यादा औरतों की डायन बताकर हत्या कर दी गई है। 2020 और 2021 के कोरोनाकाल को छोड़ दें, तो इस अवधि में तकरीबन हर साल ऐसे मामलों की संख्या सौ के पार ही रही है। ऐसे ज्यादातर मामलों में पड़ोसी, रिश्तेदार और परिचित लोग ही किसी महिला के खिलाफ ‘डायन है’ की अफवाह फैलाते हैं। किसी व्यक्ति का लंबे समय तक बीमार रहना, खेती में कम उपज, पालतू पशुओं की मृत्यु, किसी घर में असामयिक मौत, आर्थिक नुकसान, घर में होने वाली रोजमर्रा की कलह के पीछे को किसी डायन की ‘करतूत’ मान लिया जाता है।
भारत में जादू-टोना करने के संदेह में 2018 में मारे गए लोगों में 26 फीसदी लोग अकेले झारखंड में थे। त्रिपुरा में इस साल के अप्रैल में आठ लोगों ने कौशल्या घाटवाल नाम की एक आदिवासी लड़की का अपहरण कर सिर्फ इसलिए हत्या कर दी क्योंकि उन्हें इस बात का शक था कि वह डायन है। स्थानीय पुलिस के मुताबिक, लड़कों ने कौशल्या के शव को चंपाहोर पुलिस स्टेशन थाना क्षेत्र के अंतर्गत लेंगटीबारी गांव के एक ऐसे हौद में फेंक दिया, जिसका इस्तेमाल नहीं होता था। इसी तरह, जलपाइगुड़ी के चाय बागानों में भी डायन प्रथा का बोलबाला है। मिशिगन विश्वविद्यालय की डॉ. सोमा चौधरी ने आदिवासी औरतों पर किए जा रहे अत्याचार की दर्दनाक व्याख्या अपने एक रिसर्च पेपर में की है। एक मामले में सोमा ने पाया कि एक औरत पर पशुओं में बीमारी फैलाने का आरोप लगाया गया था और उस पर हमले की योजना बनाई गई थी, लेकिन वहां की कुछ औरतें जागरूक थीं और उन्होंने एक स्वयं-सहायता समूह बना रखा था। ये समूह ऐसे आक्रमण होने से रोकता है।
तमाशबीन पुलिस प्रशासन
ऐसे मामलों में स्वाभाविक रूप से पुलिस और प्रशासन की जिम्मेदारी बनती है, लेकिन आम तौर से स्थानीय पुलिस मूक दर्शक ही बनी रहती है। भुवनेश्वर स्थित उत्कल विश्वविद्यालय के समाजशास्त्र विभाग की सहायक प्राध्यापक डॉ. तान्या मोहंती कहती हैं, “सूचनाओं के बावजूद स्थानीय पुलिस अक्सर ऐसी घटनाओं को गंभीरता से नहीं लेती और इसे समाज का आंतरिक मामला मान बैठती है।” इस बात को झारखंड की ही एक हालिया घटना पुष्ट करती है जहां मारा गया व्यक्ति पुरुष था, फिर भी पुलिस मूकदर्शक बनी रही क्योंकि उस व्यक्ति को मारने का फैसला ग्राम सभा ने लिया था।
मामला सिमडेगा जिले के कोलेबिरा का है, जहां 4 जनवरी 2022 को संजू प्रधान नाम के व्यक्ति की गांववालों ने इसलिए हत्या कर दी क्योंकि वह जंगल से लकड़ी काट रहा था। उसी की काटी लकड़ियों के बीच गांववालों ने संजू को जिंदा जला डाला। हैरत की बात है कि वहां दो थानों के पुलिसवाले मौजूद थे, उनसे मृतक की मां गुहार लगा रही थी, लेकिन उन्होंने कोई हस्तक्षेप नहीं किया।
पूरी कहानी तब खुली जब ह्यूमन राइट्स लॉ नेटवर्क और पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज की एक टीम घटनास्थल पर दो दिन बाद पहुंची। पता चला कि 4 जनवरी को करीब 1500 ग्रामीणों ने एक सभा रखी थी। उसमें कोलेबिरा पुलिस और डीएफओ को भी बुलाया गया था। पुलिस तो पहुंची लेकिन वन विभाग के अधिकारी नहीं पहुंचे। बैठक में संजू प्रधान को भी बुलाया गया था लेकिन वह नहीं आया। इसके बाद ग्रामीणों ने वहीं पर उसके घर जाने का सामूहिक फैसला लिया। उसके घर पहुंच कर पुलिस के सामने ग्रामीणों ने संजू को जला दिया। इनमें मृतक के तीन सगे चाचा भी शामिल थे।
कुछ मामले ऐसे भी होते हैं, जहां गांव के मुखिया की बात भी नहीं मानी जाती। ऐसा ही एक केस 9 जून को पिछले साल झारखंड के सेरेंगदाग में देखने को मिला, जहां जमीन विवाद के चक्कर में डायन का आरोप लगाकर होलो देवी नाम की एक औरत को जहर खिलाकर मार दिया गया। लोहरदगा जिला में सेन्हा प्रखंड के अंतर्गत सेरेंगदाग थाना क्षेत्र में आने वाले गणेशपुर गांव की यह घटना बहुत बर्बर थी। होलो देवी इस गांव के प्रधान की समधी थी। पहले लोगों ने उसे लाठी-डंडे से मारा-पीटा, फिर चावल में जहर मिलाकर खिलाया, इसके बाद भी मौत नहीं हुई तो जिंदा ही उसे बोरे में बंद कर घाटी में फेंक दिया। ग्राम प्रधान का कहना था कि ग्राम सभा की बैठक में होलो देवी को बुलाने की कोई योजना नहीं थी, फिर भी उसको उसके रिश्तेदारों ने बुलवाया और प्रधान सहित चार-पांच लोगों के मना करने के बावजूद मारा-पीटा। किसी को अपनी बात न मानता देख प्रधान बैल चराने निकल लिया। दिलचस्प है कि जिस ग्राम सभा की बैठक में हत्या हुई, उसकी अध्यक्षता ग्राम प्रधान के हाथ में ही थी।
इन मामलों से यह समझ में आता है कि प्रशासनिक व्यवस्थाएं और कानून आदि से औरतों पर अत्याचार के मामले नहीं सुलझने वाले हैं। इस संबंध में रेचेड ऑफ द अर्थ के मशहूर चिंतक और लेखक फ्रांत्ज फैनन ने बहुत पहले कानून व्यवस्था के छद्म को उजागर करते हुए लिखा थ्ााः कुछ राजनीतिक व्यवस्थाएं अमूर्त सिद्धांतों की घोषणा करती हैं किंतु निश्चित कमान जारी करने से परहेज करती हैं। यह वह साजिश है, जो औरत को सामूहिक अधिकारों से वंचित रखने के अदृश्य मॉडल को मजबूत बनाए रखती है। यही औरतों को व्यवस्था के विरुद्ध लामबंद भी नहीं होने देती।
जमाने की हवा
झारखंड के साहेबगंज जिले में एक आदिवासी महिला रुबिका पहाड़िन का उसके पति ने सिर काट दिया था। यह मामला काफी चर्चित हुआ था। बताया जाता है कि पति ने इसलिए उसकी हत्या कर दी थी क्योंकि उसे पत्नी के चरित्र पर शक था। ऐसे मामले आम तौर से जनजातियों में हाल तक सुनने में नहीं आते थे। महाराष्ट्र के पालघर में यूएनडीपी के महिला तथा बाल विकास कार्यक्रम से जुड़ीं हिंदप्रभा कर्वे बताती हैं, “इधर बीच आदिवासियों में अपराध के नए तरीके अपनाए जा रहे हैं।”
वे दो घटनाओं का जिक्र करते हुए बताती हैं, “महाराष्ट्र के गढ़चिरौली में इसी साल जनवरी में 15 साल की एक आदिवासी लड़की के साथ एक राजनीतिक दल के दो कार्यकर्ताओं ने सामूहिक बलात्कार किया।” दूसरी घटना झारखंड के बोरियो जिले की है, जहां अपने पति के साथ घर लौट रही 20 वर्षीय आदिवासी लड़की के साथ पांच लोगों ने कथित तौर पर सामूहिक बलात्कार किया। इसी तरह पश्चिम बंगाल के बोलपुर में एक होटल में कार्यरत एक लड़की को रास्ते में घात लगाकर बैठे कुछ लड़के घसीटकर झाड़ी में ले गए और उसके साथ सामूहिक बलात्कार किया।
रांची स्थित आदिवासी अधिकार मंच की आलोका कुजूर अलहदा राय रखती हैं। वे कहती हैं, “लोगों में जागरूकता आई है। इसमें सोशल मीडिया का भी योगदान है। आदिवासी भी अब दुनिया को करीब से देखने लगे हैं। यही वजह है कि अब आदिवासी स्त्रियों के खिलाफ अत्याचार की खबरें गांवों से बाहर निकल रही हैं। इससे मामले भी दर्ज हो रहे है और हर साल आंकड़ों में भी इजाफा हो रहा है।”
मीडिया की वजह से कुछ हद तक आदिवासी समुदाय के बारे में जानकारी आम लोगों को मिल रही है
यह सच है कि मीडिया ने आदिवासियों को बाहरी दुनिया से जोड़ने का काम किया है और जागरूकता भी आ रही है। इसके बावजूद, अपने समाज से बाहर निकल कर भी आदिवासी औरतों को कोई राहत नहीं मिलती, बल्कि कई मामलों में वे और खतरे में पड़ जाती हैं। गरीबी से ग्रस्त झारखंड, पश्चिम बंगाल, असम, ओडिशा के सैकड़ों गांवों की हजारों आदिवासी लड़कियां अपनी किस्मत की तलाश में महानगरों की ओर पलायन करती हैं। महानगरों तक पहुंचने से पहले ज्यादातर लड़कियां यौन हिंसा का शिकार हो जाती हैं। महानगरों की कोठियों में काम करते हुए उन्हें तमाम किस्म के समझौते करने पड़ते हैं। गांव से लाकर प्लेसमेंट एजेंसी में ठहराए जाने के दौरान ज्यादातर युवतियों के साथ उनके एजेंट बलात्कार करते हैं।
मानव तस्करी पर काम कर रहे रांची के सामाजिक कार्यकर्ता बैद्यनाथ कुमार आदिवासी बताते हैं कि दिल्ली की रिहायशी कोठियों में लगभग दस हजार आदिवासी लड़कियां घरेलू नौकरानी के तौर पर काम करती हैं। एक अनुमान के मुताबिक दक्षिणी दिल्ली में आदिवासियों लड़कियों को उनके गांव से लाने और कोठियों में उन्हें नौकरी दिलाने वाली सैकड़ों एजेंसियां तकरीबन 600 करोड़ रुपये का कारोबार कर रही हैं। झारखंड की वरिष्ठ पत्रकार बरखा लाकड़ा के इस बयान से समस्या की व्यापकता का अंदाजा लग सकता हैः “हाल के वर्षों में दस हजार लड़कियों का वर्जिनिटी टेस्ट कर अरब देशों में वेश्यावृत्ति के लिए भेजा गया है। इससे जुड़ा एक केस झारखंड हाइकोर्ट में दर्ज है, लेकिन उनके लिए लड़ेगा कौन?”
जमीन पर कब्जे की लड़ाई
आदिवासी औरतों के खिलाफ अत्याचार का मुद्दा अपने आप में स्वायत्त नहीं है। न ही आदिवासियों पर सामान्य तौर पर होने वाले अत्याचारों को अलग कर के देखा जा सकता है। ये अत्याचार अंग्रेजों के जमाने से ही जमीन कब्जाने की सत्ता की कोशिशों का औजार रहे हैं। 2008 में आई आर्थिक मंदी के बाद अनुसूचित और संरक्षित क्षेत्रों की जमीनों और संसाधनों को कब्जाना बाकायदा एक वैश्विक नीति का रूप ले चुका है। अमेजन के जंगलों से लेकर ओडिशा के कालाहांडी तक आदिवासियों की आवाजें मुखर हो चुकी हैं। हालिया संकटग्रस्त मणिपुर की तह में भी वहां खनिजों का खनन, हाइवे निर्माण और पाम ऑयल की खेती की परियोजनाएं मौजूद हैं जिनके लिए जंगलों को खाली करना सरकार के लिए जरूरी हो चुका है। मणिपुर की हिंसा 3 मई को शुरू हुई थी, तब से लेकर अब तक 70,0000 से ज्यादा आदिवासी जंगल छोड़ कर जा चुके हैं। यह उन उद्योगपतियों के लिए बहुत उपयुक्त स्थिति है, जिन्होंने राज्य सरकार द्वारा पहचानी गई 67,000 हेक्टेयर वन भूमि में निवेश किया हुआ है।
आदिवासियों के बीच लंबे समय तक काम कर चुके लेखक रामशरण जोशी कहते हैं, “अब हालात ऐसे हैं कि आदिवासी स्त्री हर किस्म के अपराध सहने को मजबूर है क्योंकि पूंजीवादी समाज मानता है कि किसी आत्मनिर्भर समाज की धुरी तोड़कर ही उस व्यवस्था की चूलें हिलाई जा सकती हैं। जब तक चूलें नहीं हिलेंगी तब तक सस्ता मजदूर और कौड़ियों के मोल उनकी रत्नगर्भा जमीन उन्हें नहीं मिलेगी। तभी तो आदिवासी समाज की धुरी आज पूंजीवाद के निशाने पर है।”
जल, जंगल और जमीन के लिए लड़ी जा रही लड़ाइयों के दमन के उपनिवेशवादी उपायों में सबसे बड़ा हथियार यौन उत्पीड़न होता है। इस हथियार के इस्तेमाल का मूल तर्क ही यह है कि किसी समाज को मानसिक तौर पर तोड़ने के लिए औरतों के खिलाफ जमकर हिंसा की जाए। छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, झारखंड से लेकर मणिपुर तक दरअसल यही हो रहा है।
आलोका कहती हैं, “जिस निर्ममता से आदिवासियों की जमीन हड़पी जा रही है, आने वाले समय में उनके पास दो ही विकल्प बचेंगे- पहला न्यूनतम मजदूरी पर काम करना और दूसरा अपनी देह बेचना।”
आदिवासियों से जमीन हड़प ली जाती है, जिससे वे मजदूरी को बाध्य होते हैं
रोमा कहती हैं, “जब तक ग्रामीण स्तर के पूंजीवाद और औपनिवेशिक काल के थके-बुझे प्रशासन के बीच केमिस्ट्री बनी रहेगी, तब तक साठगांठ का खामियाजा बिरसा की बेटियों को ही भुगतना पड़ेगा।”
एक ओर जबकि मणिपुर जल रहा था और बिरसा की दो बेटियों के निर्वस्त्र कर के घुमाए जाने का वीडियो वायरल था, केंद्र सरकार ने लोकसभा में बगैर किसी बहस के वन संरक्षण संशोधन विधेयक 2023 पास कर दिया। इस तरह आदिवासी इलाकों में टूटते समाज, बाहरी हस्तक्षेप, निवेश और प्रशासनिक उपेक्षा के साये में जो भी अन्याय चल रहा है, उसे बाकायदा संसदीय मंजूरी मिल गई है। जाहिर है, आने वाले दिनों में राज्य और आदिवासियों के बीच जंग और चढ़ेगी- और उसमें राज्य का सबसे अहम औजार और जंग का सबसे पहला शिकार स्त्री ही बनेगी।
15% (1324 मामले) अनुसूचित जनजाति की औरतों के साथ हुए बलात्कार
26.8% (2364 मामले) अनुसूचित जनजाति की औरतों के साथ हुए बलात्कार के प्रयास, अपहरण और हमले की संख्या
स्रोत: नेशनल कोलिशन फॉर स्ट्रेंथनिंग एससी-एसटी एक्ट (एनसीएसपीए) द्वारा किया गया एनसीआरबी 2021 के डेटा का विश्लेषण
(लेखक आदिवासी मामलों के जानकार हैं)