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नजरिया: विवाहेतर संबंध में नैतिकता

भारतीय ज्ञानपीठ की मासिक पत्रिका ज्ञानोदय के 2010 के जुलाई और अगस्त विशेषांक बेवफाई पर आधारित थे। इस कड़ी...
नजरिया: विवाहेतर संबंध में नैतिकता

भारतीय ज्ञानपीठ की मासिक पत्रिका ज्ञानोदय के 2010 के जुलाई और अगस्त विशेषांक बेवफाई पर आधारित थे। इस कड़ी में तीसरा विशेषांक भी प्रस्तावित था पर वह अंक निकल नहीं पाया क्योंकि इसका विरोध हुआ और सुधि पाठकों ने साहू परिवार तक पहुंच कर अपनी आपत्तियां दर्ज कराईं। इसके बाद अगला सामान्य अंक प्रकाशित हुआ। बेवफाई अंक में कई प्रसिद्ध लेखकों की संबंधों पर बहुत ही अच्छी कहानियां थीं। लगभग इसी तरह धर्मयुग ने भी दूसरी पत्नी पर लंबी शृंखला प्रकाशित की थी। उसके विरोध में भी स्वर मुखर हुए थे। तब भी ऐसी सामग्री के प्रकाशन पर सवाल उठे थे। तब सवाल यह भी उठा था कि बेवफाई के इस विराट उत्सव के माध्यम से संपादक हिंदी साहित्यिक पत्रकारिता को किस ओर ले जाना चाहते हैं। जमाना बदला और अब सिर्फ विवाहेतर संबंध ही नहीं, कई संबंधों पर साहित्य की दुनिया में कहानियों की बाढ़ आ गई है। आज के दौर की कहानियों में विवाहेतर प्रसंग लगता है अनिवार्य अंग हो गए हैं।

पति-पत्नी के रिश्तों के संदर्भ में निर्देशक बासु भट्टाचार्य द्वारा सत्तर के दशक में निर्मित दांपत्य जीवन पर आधारित फिल्म त्रयी का ध्यान आता है। इसी त्रयी की एक फिल्म अनुभव में पति-पत्नी के मध्य पति की व्यस्तता से एकरसता की स्थिति उत्पन्न हो जाती है, लेकिन नायिका मीता उस एकरसता को सूझ-बूझ से तोड़ती है और नायक अमर भी इसमें उसका सहयोग करता है। गृह प्रवेश में इसी एकरसता या ऊब के चलते पति अमर के बहकते कदमों को रोकने में पत्नी मानसी का रियलिटी चेक कारगर साबित होता है। सोच कर देखिए यदि उस वक्त हाथ में मोबाइल होता तो इन जोड़ों का हश्र क्या होता। डेटिंग ऐप का सहारा लेकर शायद इनके संबंध बचने के बजाय बिगड़ ही जाते। संबंधों का निर्वहन यदि उबाऊ हो जाए तो उसका समाधान दोनों मिलकर ही निकाल सकते हैं। एक-दूसरे के प्रति विमुख होकर दांपत्य को सुखद नहीं बनाया जा सकता।

पति-पत्नी के बीच बिगड़ते रिश्ते के लिए अक्सर तकनीक यानी वॉट्सऐप, डेटिंग ऐप्स को दोषी ठहराया जाता है। लेकिन क्या वाकई ऐसा है? मोबाइल के आने से भी बरसों पहले से विवाहेतर संबंध रहे हैं- न केवल शहरों में बल्कि गांव और कस्बों में भी। साहित्य में मौजूद कई कहानियां इसकी गवाही देती हैं। प्रियंवद की कहानियों में विवाहेतर संबंध वासना की तरह नहीं, हमेशा प्रेम की पवित्र अनुभूति की तरह आते हैं। नदी होती लड़की और उस रात की वर्षा में ऐसी कहानियां हैं, जहां प्रेम और विवाह के बाद के प्रेम को अलग कर के नहीं देखा जा सकता। अब गौर किए जाने लायक बात यह है कि इस तरह के संबंधों पर खुल कर चर्चा होने लगी है। या कहें कि इन पर बात करना टैबू नहीं है। लेकिन यह भी सच है कि इस तरह के रिश्तों को समाज में मान्यता नहीं दी जा सकती, न ही निकट भविष्य में ऐसा होने जा रहा है। अगर फिर भी ऐसे रिश्ते छोटे शहरों और कस्बों में पहुंच गए हैं या पहुंच रहे हैं, तो इनके कारणों पर गौर करना पहली जरूरत है। इसका पूरा दोष किसी भी डेटिंग ऐप, तकनीक या मोबाइल के बढ़ते इस्तेमाल पर नहीं मढ़ा जा सकता।  

विवाह में बने रहकर नया साथी खोजने को अनैतिक न मानना ही दरअसल वह बिंदु है, जहां से ऐसे रिश्ते शुरू होते हैं। “पहले भी होता था” की दुहाई देकर यह नहीं कहा जा सकता कि विवाह संस्था और विवाह की सामाजिक संरचना बदल रही है इसलिए ये रिश्ते बदल रहे हैं। यह तय है कि जितनी तेजी से ये रिश्ते बदल रहे हैं और विवाह संस्था के विरुद्ध जैसी स्थिति बन रही है, उसके दूरगामी परिणाम सुखद कतई नहीं हो सकते।

हमारे देश में भी अब तेजी से डेटिंग ऐप्स और साइट्स का चलन बढ़ रहा है। डेटिंग ऐप यानी ऑनलाइन बातें, मुलाकातें करके अपने लिए एक साथी ढूंढने के उद्देश्य से बनाया गया ऑनलाइन एप्लिकेशन। अब यदि इस सामान्य परिभाषा पर जाएं, तो सोशल मीडिया की बाकी जगहों की तरह यह भी तकनीक का एक बड़ा मददगार साधन हो सकता है, विशेषकर उन लोगों के लिए जो अपने एकांत से ऊबकर किसी साथी की तलाश करना चाहते हैं। पर बात महज इतनी सी होती तो क्या बात थी।

आज के दौर में इन ऐप्स पर एक साथ तीन पीढ़ियां सक्रिय हैं। किशोरों, युवाओं के साथ बड़ी संख्या में प्रौढ़ स्‍त्री-पुरुष भी इन ऐप्स पर सक्रिय हैं। लोगों की बढ़ती व्यस्तता ने ऐसे वातावरण का निर्माण किया है जहां लोग भौतिक रूप से एक-दूसरे से दूर हो रहे हैं लेकिन स्मार्टफोन या लैपटॉप उन्हें अपने जैसे समाज से आसानी से जोड़ देता है। यही कारण है कि संवाद संपर्क के लिए सोशल साइट्स पर उनकी निर्भरता बढ़ती जा रही है, जहां मुलाकात के लिए न बाहर जाना जरूरी है, न सजना-संवरना। बगैर किसी की जानकारी में आए सुगमता से वे अपने जैसे साथी को तलाश सकते हैं।  

इसका दूसरा पक्ष नैतिकता है। दो लोग यदि विवाह बंधन में जुड़ते हैं, तो वे नैतिक रूप से एक-दूसरे के प्रति जवाबदेह हो जाते हैं। ऐसे में ऐप्स के जरिये बढ़ रहे विवाहेतर संबंध परिवार और समाज दोनों के लिए चिंता का विषय हैं। आज के दौर में पति और पत्नी दोनों के करियर ओरिएंटेड होने के कारण उनमें जो दूरी बढ़ रही है, डेटिंग ऐप उसे खाई में बदलने का काम कर रहे हैं। एकल परिवारों में ये खतरा और बढ़ रहा है क्योंकि वहां नैतिक जिम्मेदारी के साथ संबंधों के प्रति सामाजिक दायित्व भी कमतर होता जा रहा है।

विवाहित लोगों के डेटिंग ऐप्स पर सक्रिय होने के पीछे संबंधों में एकरसता का आ जाना बड़ा कारण है। प्रेम में जब ऊब जगह बनाती है, तो उसका हल दोनों को ढूंढना होता है। इसके लिए डेटिंग ऐप्स पर निर्भर होना या बेवफाई कहीं से भी समझदारी नहीं है।

अंजू शर्मा

(लेखिका और स्तंभकार)

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