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स्मार्ट सिटी बनाम मानसून: कंक्रीट के जंगलों में पानी की बगावत

शहरों का विस्तार विकास का प्रतीक माना जाता है, लेकिन जब वही विस्तार मानसून की पहली तेज़ बारिश में...
स्मार्ट सिटी बनाम मानसून: कंक्रीट के जंगलों में पानी की बगावत

शहरों का विस्तार विकास का प्रतीक माना जाता है, लेकिन जब वही विस्तार मानसून की पहली तेज़ बारिश में घुटनों तक पानी में डूबा दिखे, तो यह विकास एक विडंबना बन जाता है। भारत के कई तथाकथित स्मार्ट सिटी :जैसे गुरुग्राम, मुंबई, बेंगलुरु और चेन्नई , हर साल बारिश के मौसम में जलभराव , ट्रैफिक जाम और जनजीवन अस्त-व्यस्त होने की खबरों में छा जाते हैं। कारण स्पष्ट है: तेजी से होता शहरीकरण, कंक्रीट की भरमार और जल निकासी की बदहाल व्यवस्था। आंकड़े बताते हैं कि भारत के 100 स्मार्ट सिटीज़ में से 80 से अधिक शहरों में मानसून के दौरान जलभराव आम समस्या है। उदाहरण के तौर पर, बेंगलुरु में 2022 की भारी बारिश में लगभग 8,000 करोड़ रुपये की संपत्ति को नुकसान हुआ था। यह तब हुआ जब बेंगलुरु को देश का टेक हब और स्मार्ट प्लानिंग का मॉडल माना जाता है। असल में, जब शहरों की योजना बनती है तो अक्सर बारिश के पानी की निकासी को लेकर सतही नजरिया अपनाया जाता है ! जलनिकासी नालों की चौड़ाई कम रखी जाती है, पुराने ड्रेनेज सिस्टम को अपडेट नहीं किया जाता और वर्षाजल को दोबारा इस्तेमाल करने की कोई ठोस व्यवस्था नहीं की जाती। परिणामस्वरूप, थोड़ी सी भारी बारिश भी सड़कों को दरिया बना देती है और बुनियादी ढाँचा भरभराकर गिरने लगता है। यह विडंबना तब और बढ़ जाती है जब स्मार्ट सिटी की परिकल्पना ही बेहतर जीवन, पर्यावरणीय संतुलन और तकनीकी दक्षता के नाम पर की गई हो। ज़ाहिर है, समस्या सिर्फ बारिश की नहीं, हमारी योजना और प्राथमिकताओं की भी है।

शहरों में जलभराव की समस्या केवल जल निकासी प्रणाली की विफलता से नहीं, बल्कि भूमि उपयोग के बदलते स्वरूप और शहरी भूगोल की अनदेखी से भी जुड़ी है। प्राकृतिक जलमार्गों और झीलों को पाटकर बनाए गए मॉल, सोसाइटी और सड़कें वर्षा जल के प्रवाह को रोक देती हैं। उदाहरण के लिए, चेन्नई में 2015 की भीषण बाढ़ की एक प्रमुख वजह यह थी कि पिछले दो दशकों में शहर ने अपनी 650 से अधिक जल संरचनाएँ - झीलें, तालाब और नहरें , कंक्रीट निर्माण की भेंट चढ़ा दीं। सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट (CSE) की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत के कई शहरों में 40–60% वर्षाजल बहकर सीवर में चला जाता है, जबकि इसे संग्रह कर जलसंकट का समाधान बनाया जा सकता था। स्थिति तब और भयावह हो जाती है जब नगर निगमों के पास न तो जल निकासी की नियमित सफाई की योजना होती है, न ही अतिक्रमण हटाने की राजनीतिक इच्छाशक्ति। अक्सर देखा गया है कि नालियाँ प्लास्टिक और मलबे से पूरी तरह जाम होती हैं, और मानसून के ठीक पहले कोई आपातकालीन सफाई अभियान दिखावे के लिए चलाया जाता है। तकनीक और डेटा एनालिटिक्स के इस युग में जब हम ट्रैफिक मूवमेंट से लेकर कचरे के वजन तक को ट्रैक कर सकते हैं, तब बारिश के पानी की दिशा और दबाव को मैप करने की कोई ठोस व्यवस्था न होना हमारी प्राथमिकताओं को उजागर करता है। यह विडंबना भी ध्यान देने योग्य है कि स्मार्ट सिटी प्रोजेक्ट्स में करोड़ों खर्च हुए हैं, लेकिन इन्वेसमेंट का एक छोटा हिस्सा भी ‘वॉटर सेंसिटिव अर्बन प्लानिंग’ की ओर नहीं गया। ऐसे में पानी की बगावत नहीं, उसकी अवहेलना ही असली गुनहगार है।

 

भारत सरकार ने 2015 में ‘स्मार्ट सिटी मिशन’ की शुरुआत बड़े जोर-शोर से की थी, जिसके अंतर्गत 100 शहरों को तकनीकी रूप से उन्नत, पर्यावरण-संवेदनशील और नागरिकों के लिए अधिक सुविधाजनक बनाने का लक्ष्य रखा गया। इस योजना के तहत हर शहर को करोड़ों रुपये का आवंटन किया गया, जिसमें जल प्रबंधन और वर्षाजल निकासी को भी प्रमुखता देने की बात कही गई थी। लेकिन ज़मीनी हकीकत इससे काफी अलग है। स्मार्ट सिटी प्रगति रिपोर्ट (2023) के अनुसार, कुल 7,800 से अधिक परियोजनाओं में से मात्र 8% ही ऐसे प्रोजेक्ट थे जो जल निकासी या जल संरक्षण से जुड़े थे। बाकी धनराशि अधिकतर सड़कों, वाई-फाई ज़ोन, और एलईडी लाइट्स जैसी परियोजनाओं पर खर्च हुई। उदाहरण के लिए, भोपाल स्मार्ट सिटी में करोड़ों रुपये की लागत से साइकिल ट्रैक और ई-गवर्नेंस सिस्टम विकसित किया गया, परंतु मानसून में मुख्य बाज़ार क्षेत्र हर साल पानी में डूब जाता है। दूसरी ओर, ‘अटल मिशन फॉर रेजुवेनेशन एंड अर्बन ट्रांसफॉर्मेशन’ (AMRUT) जैसी योजनाओं ने कुछ हद तक पानी की पाइपलाइन और सीवरेज सुधारने का काम किया, लेकिन व्यापक ड्रेनेज पुनर्निर्माण और जल पुनर्चक्रण को लेकर गंभीरता नहीं दिखी। कई नगर निकायों के पास इंजीनियरिंग और प्लानिंग का तकनीकी स्टाफ ही नहीं है जो वर्षा जल प्रवाह का वैज्ञानिक आंकलन कर सके। इसके अलावा, स्मार्ट सिटी परियोजनाओं का मूल्यांकन अक्सर सतही रूप से किया गया, जिसमें वर्षाजल संकट या जलभराव जैसी समस्याओं को मात्र “इंसीडेंट” मानकर नज़रअंदाज़ किया गया। सरकार ने दिशा तो तय की, लेकिन ज़मीन पर उसका क्रियान्वयन अधूरा, बेमेल और तकनीकी दृष्टि से कमज़ोर रहा।

 

जबकि वहीं दूसरी और विकसित देशों ने शहरी जल प्रबंधन को सिर्फ बुनियादी ढांचे की नहीं, बल्कि पर्यावरणीय संतुलन और सामाजिक सुरक्षा की दृष्टि से भी देखा है। सिंगापुर इसका एक उत्कृष्ट उदाहरण है, जहाँ “Active, Beautiful, Clean Waters” (ABC Waters) कार्यक्रम के तहत वर्षा जल को संग्रह करने, शुद्ध करने और दोबारा उपयोग में लाने की संरचना बनाई गई है। शहर के हर बड़े प्रोजेक्ट में ‘वॉटर सेंसिटिव अर्बन डिज़ाइन’ अनिवार्य है, जिसमें फुटपाथ से लेकर पार्किंग ज़ोन तक में ऐसा डिज़ाइन होता है कि पानी ज़मीन में समा सके या संग्रहित हो जाए। नीदरलैंड्स ने जल प्रबंधन को अपने राष्ट्रीय अस्तित्व का मुद्दा माना है और वहाँ के शहरों में ‘Floating Neighborhoods’ जैसी योजनाएँ तक बनी हैं, जो बाढ़ की स्थिति में जल पर तैरती रहें। टोक्यो ने भूमिगत जल संग्रहण के लिए विशालकाय “G-Cans Project” शुरू किया, जिसमें भारी वर्षा के समय सैकड़ों लाख गैलन पानी भूमिगत सुरंगों में संग्रह कर लिया जाता है। चीन ने हाल के वर्षों में ‘स्पंज सिटी’ योजना लागू की, जिसमें शहरों को इस तरह डिज़ाइन किया जा रहा है कि वे बारिश के पानी को सोख सकें, स्टोर कर सकें और जरूरत के समय वापस छोड़ सकें : जैसे प्राकृतिक स्पंज काम करता है। इन देशों के प्रयास इस विचार पर आधारित हैं कि पानी को दुश्मन मानकर हटाया नहीं जाना चाहिए, बल्कि उसे मित्र मानकर संभाला जाना चाहिए। उनके यहां वर्षा जल निकासी का मतलब केवल पानी निकालना नहीं, बल्कि उसे उपयोगी बनाना भी है। भारत जैसे देश को इन सफल मॉडलों से सीखकर अपने स्थानीय संदर्भ में स्मार्ट, टिकाऊ और व्यवहारिक समाधान अपनाने होंगे, वरना हर बारिश एक नई आपदा में तब्दील होती रहेगी।

 

यदि भारत को वास्तव में स्मार्ट सिटीज़ के साथ स्मार्ट मानसून मैनेजमेंट की ओर बढ़ना है, तो सबसे पहले वर्षा जल को ‘वेस्ट’ नहीं, ‘रिसोर्स’ की तरह देखना होगा। शहरों की प्लानिंग में वर्षाजल को संरक्षित करने, उसे रिचार्ज ज़ोन में भेजने और दोबारा उपयोग की व्यवस्था को अनिवार्य करना होगा। इसके लिए “रेन वॉटर हार्वेस्टिंग” सिस्टम को सिर्फ कानूनों की किताबों में नहीं, ज़मीन पर लागू करना होगा - सख्ती और निगरानी के साथ। स्कूल, मॉल, सरकारी भवन और अपार्टमेंट्स को इसके लिए जवाबदेह बनाया जाए और नगर निगम इसकी समय-समय पर ऑडिटिंग करे। इसके अलावा, पारंपरिक जल निकासी प्रणालियाँ जैसे झील, नाले और जोहड़, जिन्हें शहरीकरण की दौड़ में समाप्त कर दिया गया, उन्हें पुनर्जीवित किया जाना चाहिए। सरकार को अपने बजट आवंटन में जल प्रबंधन और ड्रेनेज सिस्टम को उच्च प्राथमिकता देनी चाहिए, केवल सड़कें और डिजिटल बोर्ड लगाने से शहर स्मार्ट नहीं बनते। GIS और AI आधारित मॉनिटरिंग सिस्टम से यह मुमकिन है कि हर बारिश के पहले यह पता चल सके कि किस इलाक़े में जलजमाव की आशंका है और पहले से ही वहां राहत दल या जल निकासी के साधन तैनात किए जा सकें। स्कूलों और स्थानीय निकायों को जल चेतना अभियान का हिस्सा बनाकर नागरिकों में यह समझ बढ़ाई जा सकती है कि उनकी छोटी-छोटी लापरवाहियाँ :जैसे नालियों में कचरा फेंकना , किसी पूरे शहर के लिए मुसीबत बन सकती हैं। भारत को आवश्यकता है एक समेकित, दीर्घकालिक और विज्ञान आधारित योजना की, जिसमें केवल ‘प्रोजेक्ट्स’ नहीं, एक टिकाऊ जीवनशैली का लक्ष्य हो।

 

हर साल बारिश के साथ आने वाली त्रासदी अब एक स्थायी वास्तविकता बन चुकी है, जो हमारे शहरी मॉडल की असफलता का सीधा प्रमाण है। यह एक दुष्चक्र बन चुका है !शहरों में विकास के नाम पर हरियाली और जल संरचनाएँ समाप्त होती जा रही हैं, जिससे जलभराव और बाढ़ जैसी घटनाएँ बढ़ रही हैं, और फिर इन आपदाओं से निपटने के लिए आपातकालीन प्रबंधन पर करोड़ों खर्च किए जाते हैं। जब तक इस चक्र को नीतिगत, संरचनात्मक और सामाजिक स्तर पर नहीं तोड़ा जाएगा, तब तक हर साल मानसून हमारे ‘स्मार्ट सिटीज़’ के खोखले दावों की पोल खोलता रहेगा। इस संकट से उबरने के लिए केवल सरकार या नगर निगम की जवाबदेही ही काफी नहीं है, बल्कि नागरिकों को भी यह समझना होगा कि वे इस समस्या का हिस्सा भी हैं और समाधान भी। छतों पर वर्षा जल संचयन, प्लास्टिक उपयोग में कटौती, कचरा प्रबंधन में जागरूकता, और स्थानीय जलस्रोतों की देखरेख जैसे छोटे प्रयास भी सामूहिक असर डाल सकते हैं। अगर हम चाहते हैं कि अगली पीढ़ी मानसून को उत्सव की तरह देखे, त्रासदी की तरह नहीं, तो हमें अभी से दीर्घकालिक सोच अपनानी होगी। केवल इंफ्रास्ट्रक्चर नहीं, हमें अपने मानसून के प्रति दृष्टिकोण को भी ‘स्मार्ट’ बनाना होगा। भारत के पास न केवल प्राचीन जल संस्कृति की विरासत है, बल्कि आधुनिक टेक्नोलॉजी की क्षमता भी ,आवश्यकता केवल इस दोनों को एक साथ जोड़कर, नीति, तकनीक और सामाजिक चेतना का समन्वय स्थापित करने की है। यही एकमात्र रास्ता है, जिससे हम अपने शहरों को मानसून के कहर से निकालकर पानी के साथ संतुलन में ला सकते हैं।

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