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घुसपैठ, हिंसा और वोटबैंक: बंगाल में वक़्फ़ का असली खेल क्या है?

वक़्फ़ संपत्तियाँ भारत में मुस्लिम समुदाय की धार्मिक और सामाजिक गतिविधियों का आधार रही हैं। लेकिन...
घुसपैठ, हिंसा और वोटबैंक: बंगाल में वक़्फ़ का असली खेल क्या है?

वक़्फ़ संपत्तियाँ भारत में मुस्लिम समुदाय की धार्मिक और सामाजिक गतिविधियों का आधार रही हैं। लेकिन जैसे ही केंद्र सरकार ने वक़्फ़ (संशोधन) अधिनियम, 2025 को लागू किया, कई राज्यों में हलचल शुरू हो गई। इस कानून में वक़्फ़ बोर्डों की पारदर्शिता, डिजिटल रजिस्टर, किरायेदारियों की समीक्षा और कब्जों की वैधता की नए सिरे से जाँच का प्रावधान है। बंगाल जैसे राज्यों में, जहाँ वक़्फ़ संपत्तियों पर वर्षों से राजनीतिक संरक्षण में अनियमित कब्ज़े रहे हैं, यह कानून खतरे की घंटी जैसा साबित हुआ। इसके विरोध में 8 से 13 अप्रैल 2025 के बीच मुर्शिदाबाद, बीरभूम और दक्षिण 24 परगना जिलों में बड़े पैमाने पर हिंसक प्रदर्शन हुए। निमतिता स्टेशन पर रेल सेवाएँ रोकी गईं, नेशनल हाईवे 12 को जाम किया गया, और पुलिस की गाड़ियों को आग के हवाले कर दिया गया। इस हिंसा में तीन लोग मारे गए, दर्जनों घायल हुए और करीब 200 से अधिक प्रदर्शनकारियों को गिरफ्तार किया गया। लगभग 400 लोग पलायन कर मालदा के राहत शिविरों में जा पहुँचे। इन घटनाओं ने वक़्फ़ कानून से कहीं आगे, बंगाल की सामाजिक और राजनीतिक स्थिरता को चुनौती दी है।

 

जो विरोध कानून की सीमाओं के भीतर रहना चाहिए था, वह हिंसा में कैसे बदला — यह प्रश्न केवल प्रदर्शनकारियों से नहीं, बल्कि शासन व्यवस्था से भी पूछा जाना चाहिए। भारत सरकार की खुफिया एजेंसियों और गृह मंत्रालय को भेजी गई रिपोर्टों में स्पष्ट रूप से उल्लेख किया गया है कि मुर्शिदाबाद और आसपास के इलाकों में हुई हिंसा में बांग्लादेशी घुसपैठियों की संलिप्तता पाई गई है। ये घुसपैठिए वर्षों से सीमावर्ती क्षेत्रों में अवैध रूप से रह रहे हैं और स्थानीय राजनेताओं के संरक्षण में कई वक़्फ़ संपत्तियों पर कब्ज़ा भी कर चुके हैं। जैसे ही डिजिटल सर्वे और पुनः सत्यापन की प्रक्रिया की घोषणा हुई, इन अवैध कब्जेदारों में बेचैनी फैल गई। रिपोर्ट के अनुसार, इन्हीं तत्वों ने विरोध को भड़काया, सोशल मीडिया पर अफवाहें फैलाईं और धार्मिक भावनाओं को भड़काकर हिंसा की ज़मीन तैयार की। यह भी देखा गया कि इन इलाकों में कई ऐसे लोग प्रदर्शन में शामिल हुए, जिनकी नागरिकता प्रमाणित नहीं है। जब सीमा पार से आए लोग कानून को चुनौती देने लगें और शासन मूकदर्शक बना रहे, तो यह केवल आंतरिक सुरक्षा का नहीं, बल्कि राष्ट्र की संप्रभुता का प्रश्न बन जाता है। बंगाल की सरकार की चुप्पी और कभी-कभी सहानुभूति जैसे बयान इस आग में घी का काम कर रहे हैं।

 

मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने इस कानून को मुसलमानों के खिलाफ़ साज़िश करार दिया और हिंसा के लिए सीधे तौर पर केंद्र सरकार और भाजपा को जिम्मेदार ठहराया। उन्होंने यहाँ तक कहा कि यह सब “राजनीतिक रूप से प्रायोजित” था और इसमें BSF और केंद्रीय एजेंसियाँ भी शामिल हैं। जबकि भाजपा का पक्ष बिल्कुल उल्टा है — उनके अनुसार यह कानून मुस्लिम समाज के हित में है, क्योंकि यह वक़्फ़ संपत्तियों पर सालों से चल रहे भ्रष्टाचार और अनधिकृत कब्जों को समाप्त करने की दिशा में उठाया गया जरूरी कदम है। इस पूरे विवाद ने देशभर में मुस्लिम मतदाताओं के बीच भ्रम और आशंका को जन्म दिया है। AIMIM जैसे संगठन भी इस विषय पर मुखर होकर तृणमूल और केंद्र दोनों को घेरने की कोशिश कर रहे हैं। इस मुद्दे पर राजनीति अपने चरम पर है — एक पक्ष इसे “धर्मनिरपेक्षता पर हमला” कह रहा है तो दूसरा “राष्ट्र की संपत्ति की रक्षा”। इस दोधारी बयानबाज़ी में आम मुसलमान समुदाय भ्रमित है, और जो हिंसा का सहारा ले रहे हैं, वे मूल रूप से इस धार्मिक असुरक्षा का ही दोहन कर रहे हैं। राजनीतिक दलों की ज़िम्मेदारी बनती है कि वे इस विषय को धार्मिक रंग देने के बजाय तार्किक संवाद का माध्यम बनाएँ, लेकिन दुर्भाग्यवश हर किसी की निगाहें सिर्फ आगामी चुनावों पर टिकी हैं।

 

इस पूरे मुद्दे को यदि किसी एक राजनीतिक संदर्भ से जोड़ा जा रहा है, तो वह है — पश्चिम बंगाल के आगामी 2026 विधानसभा चुनाव। तृणमूल कांग्रेस वर्षों से मुस्लिम वोट बैंक पर निर्भर रही है और वक़्फ़ संपत्तियों से जुड़े हित उसे काफी हद तक नियंत्रित करते हैं। इस कानून से तृणमूल को यह डर है कि मुस्लिम समाज की एक बड़ी आबादी नाराज़ हो सकती है और उसका लाभ भाजपा या अन्य पार्टियों को मिल सकता है। इसलिए सरकार इस अधिनियम के खिलाफ ज़ोरदार विरोध खड़ा कर रही है — लेकिन यह विरोध राजनीतिक रैलियों तक सीमित नहीं रह गया है, वह सड़क, स्टेशन और स्कूलों तक पहुँच गया है। वहीं भाजपा इसे राष्ट्रवाद और पारदर्शिता का मुद्दा बनाकर हिंदू वोटों के ध्रुवीकरण की दिशा में आगे बढ़ रही है। इस समीकरण में वक़्फ़ संपत्तियों की पारदर्शिता, भ्रष्टाचार, अवैध कब्ज़े और सामाजिक सामंजस्य की वास्तविक बहस पीछे छूटती जा रही है। अगर यही राजनीति जारी रही, तो आने वाले चुनावों में यह मुद्दा सामाजिक सौहार्द को बुरी तरह प्रभावित करेगा और राज्य की राजनीतिक दिशा को गहरे ध्रुवीकरण की ओर ले जाएगा।

 

बंगाल में हो रही इस हिंसा को केवल “धार्मिक असंतोष” या “राजनीतिक प्रतिक्रिया” कहकर टालना खतरनाक होगा। यह एक बहुआयामी संकट है — जिसमें घुसपैठ, अवैध कब्ज़े, राजनीतिक स्वार्थ, प्रशासनिक उदासीनता और जन-भावनाओं का शोषण शामिल है। इसे रोकने के लिए ज़रूरी है कि केंद्र और राज्य दोनों पक्ष राजनीतिक बयानबाज़ी से बाहर आकर समाधान केंद्रित संवाद करें। केंद्र सरकार को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि वक़्फ़ कानून के उद्देश्य और फायदे मुस्लिम समाज तक सही ढंग से पहुँचे और किसी भी तरह के भय का प्रचार झूठ और अफवाह के जरिए न फैलाया जा सके। साथ ही राज्य सरकार को चाहिए कि वह वोट बैंक की राजनीति के बजाय कानून व्यवस्था की प्राथमिकता को समझे और देश की सीमाओं के भीतर हो रही हर गतिविधि पर सख़्त नज़र रखे। कानून, आस्था और अधिकार — इन तीनों को संतुलित करने का समय आ चुका है, वरना एक छोटे से संशोधन के पीछे छिपी बड़ी सच्चाइयाँ देश की एकता को चोट पहुँचा सकती हैं। और तब, सवाल केवल बंगाल का नहीं रहेगा — बल्कि पूरे भारत के लोकतांत्रिक भविष्य का होगा।

 

(लेखक स्वतंत्र स्तंभकार हैं।विचार निजी हैं।)

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