प्यार कभी धीरे-धीरे किसी की आँखों में उतरता था, अब वो प्रोफाइल पिक्चर और बायो की दो लाइन में तय हो जाता है। जो रिश्ता पहले चिट्ठियों, मुलाकातों और प्रतीक्षा के सहारे परवान चढ़ता था, आज वो एक ‘स्वाइप’ में शुरू और अगले ‘अनमैच’ में समाप्त हो जाता है। ऑनलाइन डेटिंग ने जहाँ जुड़ने के नए रास्ते खोले हैं, वहीं रिश्तों की गहराई और स्थायित्व को चुनौती भी दी है। अब आकर्षण तत्काल है, पर जुड़ाव सतही। Tinder, Bumble, OkCupid जैसे प्लेटफॉर्म्स ने संबंधों को आसान तो बना दिया है, लेकिन वे इतनी गति से बदलने लगे हैं कि भावनाएँ पीछे छूटती जा रही हैं। प्रेम अब धीरे-धीरे परिपक्व होने की प्रक्रिया नहीं, बल्कि ‘तेज़ उपभोग’ का डिजिटल अनुभव बनता जा रहा है।
YouGov India की 2023 की रिपोर्ट बताती है कि लगभग 68% भारतीय युवा मानते हैं कि डेटिंग ऐप्स पर बने रिश्ते तीन महीने से अधिक नहीं टिकते। वहीं Pew Research Center (2022) के अनुसार, 59% यूज़र्स ऑनलाइन डेटिंग को “अस्थायी अनुभव” मानते हैं। इसका अर्थ है कि भावनात्मक जुड़ाव का स्थान अब प्रयोगात्मक संबंधों ने ले लिया है। जहाँ पहले एक व्यक्ति से गहराई से जुड़ना जीवन की प्राथमिकता होती थी, अब विकल्पों की अधिकता ने एक तरह की ‘भावनात्मक उपेक्षा’ की आदत डाल दी है। यह अस्थायीपन न केवल संबंधों को कमजोर करता है, बल्कि व्यक्ति की मानसिक संरचना को भी अस्थिर बना देता है। लोग ‘कनेक्ट’ तो करते हैं, पर ‘कनेक्टेड’ नहीं होते।
ब्रेकअप अब गहरी पीड़ा नहीं, बल्कि एक सामान्य चरण बन गया है -जैसे कपड़े बदलते हैं, वैसे ही साथी बदल जाते हैं। यह बदलाव जितना आसान लगता है, उतना ही वह अंदरूनी रूप से व्यक्ति को तोड़ देता है। आज का युवा अनगिनत विकल्पों के बीच उलझा हुआ है, पर किसी एक के साथ स्थायित्व की भावना खो चुका है। यही कारण है कि रिश्तों में अब ‘निवेश’ नहीं, ‘सम्भावना’ देखी जाती है-क्या ये रिश्ता टिकेगा या नहीं, इस पर विश्वास कम और शंका ज़्यादा होती है। इस अस्थायित्व ने न केवल प्रेम की परिभाषा बदली है, बल्कि उसमें असुरक्षा, प्रतिस्पर्धा और संदेह का स्थायी भाव भी घुसा दिया है। जो प्रेम पहले आत्मा को सुकून देता था, वह अब मानसिक थकावट में बदल रहा है।
इसके साथ ही कैज़ुअल रिलेशनशिप की संस्कृति तेजी से सामान्य हो रही है। ‘डेटिंग’ अब प्रेम या जीवनसाथी की तलाश नहीं, बल्कि अनुभव, एक्सप्लोरेशन और अस्थायी संगति का मंच बन गया है। शारीरिक संबंधों की सहजता और भावनात्मक जुड़ाव की अनुपस्थिति एक खतरनाक संतुलन तोड़ चुकी है। Journal of Adolescent Health (2022) की एक स्टडी बताती है कि ऑनलाइन शुरू हुए रिश्तों में ‘भावनात्मक प्रतिबद्धता’ मात्र 28% तक ही सीमित होती है। इसका अर्थ है कि ज्यादातर लोग एक ही समय में कई विकल्पों के लिए खुले रहते हैं। यह प्रवृत्ति सिर्फ रिश्तों की पवित्रता नहीं, बल्कि व्यक्ति की आत्म-गंभीरता को भी नष्ट कर रही है। संबंध अब ‘कंटेंट’ हैं-जैसे वीडियो देखा, पसंद आया तो आगे बढ़े, नहीं तो स्किप कर दिया।
समाधान न तो तकनीक से भागने में है और न ही ऑनलाइन डेटिंग को खलनायक बनाने में। यह युग का एक यथार्थ है, लेकिन इसे सँभालने की दृष्टि भी उतनी ही ज़रूरी है। यदि हम प्रेम को उपभोग की वस्तु न मानकर एक यात्रा समझें, तो रिश्ते फिर से गहराई पा सकते हैं। स्क्रीन पर बातचीत शुरू हो सकती है, पर जुड़ाव के लिए समय, संवाद और संवेदना की आवश्यकता होगी। रिश्तों में प्रतीक्षा, धैर्य और समझ की वापसी करनी होगी। हमें यह भी समझना होगा कि विकल्पों की भीड़ में स्थायित्व की तलाश और मुश्किल हो जाती है-और उस तलाश की थकान, धीरे-धीरे अकेलेपन में बदल जाती है। इसलिए जुड़ने से पहले ठहरना और निभाने के लिए समर्पित होना आज पहले से कहीं ज़्यादा आवश्यक है।
अंततः, डिजिटल युग ने रिश्तों की शक्ल तो बदल दी है, लेकिन उनकी ज़रूरत नहीं। दिल अब भी वही चाहता है-कोई ऐसा जो सुने, समझे, और छोड़कर न जाए। ऑनलाइन या ऑफलाइन-रिश्ते तभी टिकते हैं जब उनमें सच्चाई, गहराई और स्थिरता हो। ‘स्वाइप’ की दुनिया में अगर कोई ‘रुकना’ जानता है, तो वहीं से एक सच्चे संबंध की शुरुआत होती है। आज का सवाल यही है-क्या हम प्रेम को तेज़ उपभोग से निकालकर, फिर से एक धीमी, स्थायी और सजीव यात्रा बना सकते हैं?