सन 1921 की बात है। एक भारतीय वैज्ञानिक को ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय, इंग्लैंड से विश्वविद्यालयीन कांग्रेस में भाग लेने के लिए निमंत्रण प्राप्त हुआ। इसी सिलसिले में वह इंग्लैंड गया।
जब वह वापस पानी के जहाज से भारत लौट रहा था, तब रास्ते-भर वह भूमध्यसागर के जल के रंग को ध्यानपूर्वक देखता रहा तथा सागर के नीलेपन को निहारता रहा। उसके वैज्ञानिक मन में कई प्रश्न कोलाहल मचाने लगे। वह सोचने लगा- सागर का रंग नीला क्यों है? कोई और रंग क्यों नहीं? कहीं सागर आकाश के प्रतिबिंब के कारण तो नहीं नीला प्रतीत हो रहा है? समुद्री यात्रा के दौरान ही उसने सोचा कि शायद सूर्य का प्रकाश जब जल में प्रवेश करता है तो वह नीला हो जाता है।
प्रसिद्ध वैज्ञानिक लार्ड रैले की मान्यता थी कि सूर्य की किरणें जब वायुमंडल में उपस्थित नाइट्रोजन और ऑक्सीजन के अणुओं से टकराती है तो प्रकाश सभी दिशाओं में प्रसारित हो जाता है और आकाश का रंग नीला दिखाई देता है, इसे रैले के सम्मान में ‘रैले प्रकीर्णन’ के नाम से जाना जाता है। उस समय तक लार्ड रैले ने यह भी सिद्ध कर दिया था कि सागर का नीलापन आकाश के प्रतिबिंब के कारण है। परंतु उस भारतीय वैज्ञानिक ने रैले की इस मान्यता को पूर्ण रूप से संतोषजनक नहीं माना। सागर के नीलेपन के वास्तविक कारण को जानने के लिए वह जहाज के डैक पर अपना उपकरण ‘स्पेक्ट्रोमीटर’ ले आया। और प्रयोगों में मग्न हो गया। अंत में वह इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि सागर का नीलापन उसके भीतर ही है, मतलब यह नीलापन आकाश के प्रतिबिंब के कारण नहीं, बल्कि जल के रंग के कारण है! इसका अभिप्राय यह था कि स्वयं सागर का रंग नीला है एवं यह नीलापन पानी के अंदर से ही उत्पन्न होता है।
वह विलक्षण भारतीय वैज्ञानिक थे – सर चंद्रशेखर वेंकटरमन।
वेंकटरमन इस नतीजे पर पहुंचे कि पानी के अणुओं (मॉलिक्यूल्स) द्वारा प्रकाश के प्रकीर्णन के फलस्वरूप सागर एवं हिमनदियों का रंग नीला दिखाई देता है। उसने गहन अध्ययन एवं शोध से यह भी बताया कि सामान्यत: आकाश का रंग नीला इसलिए दिखाई देता है क्योंकि सूर्य के प्रकाश में उपस्थित नीले रंग के प्रकाश की तरंग-लंबाई यानी ‘वेवलेंथ’ का प्रकाश अधिक प्रकीर्ण होता है। भारत (कलकत्ता) लौटकर उन्होंने इस विषय पर गहन शोध किया और अपने शोधपत्र को प्रतिष्ठित पत्रिका ‘नेचर’ में प्रकाशनार्थ भेज दिया, जो ‘प्रकाश का आणविक विकिरण’ शीर्षक से सन् 1922 में प्रकाशित हुआ।
वेंकटरमन का जन्म 7 नवम्बर, 1888 में तमिलनाडु के तिरुचिरापल्ली जिले के एक छोटे से गांव थिरुवनैक्कवल में हुआ था। मात्र ग्यारह वर्ष की आयु में ही उन्होंने दसवीं की परीक्षा प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण कर ली थी। वर्ष 1901 में इंटरमीडिएट की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद उन्होंने चेन्नै के प्रेसीडेंसी कॉलेज में दाखिला लिया तब उनकी उम्र महज 13 साल थी। स्नातक कक्षा में अध्यापक समझते कि गलती से यह बालक कक्षा में आ गया है। आगे की पढ़ाई के लिए वह विदेश जाना चाहते थे लेकिन स्वास्थ्य संबंधी दिक्कतों की वजह से ऐसा नहीं कर पाए और सन 1907 में भौतिकी में एमए करने के बाद भारतीय लेखा सेवा में आ गए। उसमें भी उन्होंने टॉप किया। इसमें भी उन्होंने प्रथम स्थान प्राप्त किया। कलकत्ता में नौकरी करते हुए भी उनकी रुचि भौतिकी में बनी रही।
एक दिन वेंकटरमन कार्यालय से घर लौट रहे थे तभी उन्होनें एक संस्था का साइन बोर्ड देखा, जिस पर लिखा था- ‘द इंडियन एसोसिएशन फॉर कल्टीवेशन आफ़ साइंस।’ वे ट्राम से उतरकर सीधे उस संस्था में जा पहुंचे। पहली ही मुलाकात में संस्था के सचिव अमृत लाल ने वेंकटरमन की वैज्ञानिक प्रतिभा को समझ लिया और प्रयोगशाला में कार्य करने की अनुमति भी दे दी। उसके बाद वेंकटरमन ने इसी प्रयोगशाला में भौतिकी के क्षेत्र में कई महत्वपूर्ण शोध-कार्य किये। इनमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण है- रमन प्रभाव!
आखिर ये रमन प्रभाव क्या है और भौतिकी को इसने कैसे प्रभावित किया?
रमन प्रभाव के अनुसार जब एक-तरंगीय प्रकाश (एक ही आवृत्ति का प्रकाश) को विभिन्न रासायनिक द्रवों से गुजारा जाता है, तब प्रकाश के एक सूक्ष्म भाग की तरंग-लंबाई मूल प्रकाश के तरंग-लंबाई से भिन्न होती है। तरंग-लंबाई में यह भिन्नता ऊर्जा के आदान-प्रदान के कारण होता है। जब ऊर्जा में कमी होती है तब तरंग-लंबाई अधिक हो जाती है और जब ऊर्जा में बढोत्तरी होती है तब तरंग-लंबाई कम हो जाती है। यह ऊर्जा सदैव एक निश्चित मात्रा में कम-अधिक होती रहती है और इसी कारण तरंग-लंबाई में भी परिवर्तन सदैव निश्चित मात्रा में होता है। दरअसल, प्रकाश की किरणें असंख्य सूक्ष्म कणों से मिलकर बनी होती हैं, इन कणों को वैज्ञानिक ‘फोटोन’ कहते हैं। वैसे हम जानतें हैं कि प्रकाश की दोहरी प्रकृति है यह तरंगों की तरह भी व्यवहार करता है और कणों (फोटोनों) की भी तरह।
रमन प्रभाव ने फोटोनों के ऊर्जा की आन्तरिक परमाण्विक संरचना को समझने में विशेष सहायता की है। किसी भी पारदर्शी द्रव में एक ही आवृत्ति वाले प्रकाश को गुजारकर ‘रमन स्पेक्ट्रम’ प्राप्त किया जा सकता है। उन दिनों भौतिकी में यह एक विस्मयकारी खोज थी। वेंकटरमन की यह खोज क्वांटम भौतिकी के क्षेत्र में भी बड़ा क्रांतिकारी परिवर्तन ले आई ।
वेंकटरमन ने 28 फरवरी, 1928 को रमन प्रभाव नाम की अपनी खोज को दुनिया के सामने रखा। प्रत्येक वर्ष यह दिन अब ‘राष्ट्रीय विज्ञान दिवस’ के रूप में मनाया जाता है। देश-विदेश में वेंकटरमन की इस खोज को खूब सराहा गया। इसी खोज के लिए वेंकटरमन को सन 1930 में भौतिकी का नोबेल पुरस्कार प्रदान किया गया। वे पहले ऐसे एशियाई और अश्वेत वैज्ञानिक थे जिन्हें नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। सन 1952 में उनके पास भारत के प्रथम उपराष्ट्रपति बनने का निमंत्रण आया। इस पद के लिए सभी राजनीतिक पार्टियों ने उनके नाम का ही समर्थन किया था। लेकिन उनकी राजनीति में जरा भी दिलचस्पी नहीं थी, इसलिए उन्होंने उपराष्ट्रपति बनने के निमंत्रण को अस्वीकार कर दिया। सन 1954 में भारत सरकार ने उन्हें अपने सर्वोच्च सम्मान ‘भारत रत्न’ से भी विभूषित किया। वे पहले ऐसे भारतीय वैज्ञानिक थे जिन्हें भारत रत्न से सम्मानित किया गया था।