Advertisement

जम्मू-कश्मीर को लेकर शिक्षाविदों, विश्लेषकों का गृहमंत्री को खुला खत, जताई बदलाव की जरूरत

जम्मू और कश्मीर के मौजूदा हालात पर शिक्षाविदों, विश्लेषकों और सिविल सोसायटी के एक समूह ने गृहमंत्री...
जम्मू-कश्मीर को लेकर शिक्षाविदों, विश्लेषकों का गृहमंत्री को खुला खत, जताई बदलाव की जरूरत

जम्मू और कश्मीर के मौजूदा हालात पर शिक्षाविदों, विश्लेषकों और सिविल सोसायटी के एक समूह ने गृहमंत्री राजनाथ सिंह को खुला खत लिखा है। उन्होंने जम्मू-कश्मीर के हालात सुधारने और लोगों में मतदान के प्रति रूझान पैदा करने के लिए सरकार से कुछ कदम उठाने की गुजारिश की है। उन्होंने भाजपा के घोषणा पत्र में अनुच्छेद 370 और धारा 35ए को खत्म करने के संकल्प को भी राज्य में लोकतत्र स्थापित करने की दिशा में निराशाजनक बताया है। उनका कहना है कि आज कश्मीर को एक ऐसी सरकार की जरूरत है, जो नफरत की जगह उम्मीद जगा सके, जो जमीन पर शांति स्थापित करने का काम करेगी और यह केवल चुनी हुई सरकार ही कर सकती है। साथ ही चेताया है कि बदलाव नहीं हुआ तो राज्य में हालात और खराब हो सकते हैं।

गृहमंत्री को लिख पत्र में उन्होंने वहां के हालात का जिक्र करते हुए कहा कि राज्य में सप्ताह में दो बार राजमार्ग बंद कर देना और इसका केवल सुरक्षा बलों द्वारा इस्तेमाल करना एक तरह से सैन्य शासन के बदलाव की तरफ इशारा करता है। साथ ही इससे लोकतंत्र की साख भी घटी है। इसके साथ ही जेकेएलएफ और जमाते इस्लामी जैसे नेताओं की गिरफ्तारी और राजनीतिक दलों को सुरक्षा न देने जैसे मुद्दों से भी घाटी में असंतोष को बढ़ावा मिला है।

'धारा 35 ए, अनुच्छेद 370 हटाने जैसे मुद्दे निराशाजनक'

उन्होंने कहा कि मौजूदा हालात में जम्मू कश्मीर में स्वतंत्र और निष्पक्ष मतदान की उम्मीद कैसे की जा सकती है। राज्य में राष्ट्रपति शासन, गिरफ्तारी, धारा 35 ए, अनुच्छेद 370 को हटाने की धमकी जैसे मुद्दे लोगों को मतदान के प्रति निरुत्साहित करते हैं। समूह के लोगों का कहना है कि बावजूद इसके टकराव से बचने के लिए जम्मू कश्मीर में मतदान कराने की जरूरत है। राष्ट्रपति शासन में कुछ कठोर कदम उठाए गए हैं लेकिन आज कश्मीर को एक ऐसी सरकार की जरूरत है, जो नफरत की जगह उम्मीद जगा सके, जो जमीन पर शांति स्थापित करने का काम करेगी। इस तरह के कदम केवल चुनी हुई सरकार ले सकती है।

'2005 से 2012 में घटी थी हिंसा की घटनाएं'

उन्होंने कहा कि जम्मू कश्मीर को पटरी पर लाने के लिए 1990 के दशक में 15 साल लगे। 2005 से 2012 के बीच हिंसा की घटनाओं में खासी कमी आई। सबसे ज्यादा शांति की प्रक्रिया की बहाली सन 2000 में शुरु हुई थी। हालाकि हुर्रियत के सदस्यों और आतंकियों ने इसमें बाधा डालने की कोशिश की लेकिन वाजपेई और सिंह की सरकारों ने सैन्य और कूटनीतिक रूप से इसका जवाब दिया। पिछले चार सालों की इस तरह की कोई पहल नहीं हुई।

'चुनावों में सीजफायर क्यों नहीं'

उन्होंने गृहमंत्री से पत्र में कहा है कि आपका मंत्रालय कश्मीरियों को वोट देने के लिए उत्साहित कर सकता है लेकिन उसके लिए सबसे पहले राजमार्ग बंद करने के आदेशों को रद्द करना होगा। फिर गिरफ्तार किए गए लोगों की रिहाई, राजनीतिक नेताओं को सुरक्षा बहाल करना और एहतियाती कार्रवाई के बजाय हमले के खिलाफ रक्षा की नीति बनानी होगी। अगर आपकी सरकार रमजान के दौरान सीजफायर कर सकती है तो फिर चुनावों के लिए क्यों नहीं?  भाजपा के घोषणा पत्र से साफ है कि वह कश्मीर में समझौते के विरोध में है। पता नहीं आपकी पार्टी मौके का फायदा उठाना चाहेगी या नहीं। यकीनन आप मानेंगे कि पार्टी से बड़ा शासन होता है और इसमें बदलाव की जरूरत है। ऐसा न हो कि राज्य में हालात और खराब हो जाए। 

 

 

अब आप हिंदी आउटलुक अपने मोबाइल पर भी पढ़ सकते हैं। डाउनलोड करें आउटलुक हिंदी एप गूगल प्ले स्टोर या एपल स्टोर से
Advertisement
Advertisement
Advertisement
  Close Ad