धारा 377 पर सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक पीठ ने फैसला सुरक्षित रख लिया है। इस पर चल रही बहस मंगलवार को पूरी हो गई है।
सुप्रीम कोर्ट की पांच जजो की संवैधानिक पीठ के सामने समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से बाहर करने के लिए दाखिल की गई विभिन्न याचिकाओं पर सुनवाई चल रही थी। बहस के दौरान पीठ ने इस बात पर जोर दिया कि अगर कोई कानून मूल अधिकारों का हनन करता है तो कानून में संसोधन करने, लागू करने या उसे हटाने का फैसला लेने के लिए कोर्ट सरकार का इंतजार नहीं कर सकता। कोर्ट मूल अधिकारों के उल्लंघन के मामले में बिना किसी इंतजार के फैसला करेगा।
सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस नरीमन ने कहा, 'हमने सेक्स की परिभाषा के दायरे को पहले ही बढ़ा दिया है। आपको कानून की प्राकृतिक प्रक्रियाओं का सम्मान करना चाहिए, अगर कोई सेक्स प्रकृति के नियम के खिलाफ है तो यह वंश-वृद्धि में सहायक नहीं होता है।' उन्होंने कहा कि आप देखते हैं, कैसे लोकप्रिय अंग्रेजी गणितज्ञ और एक कंप्यूटर वैज्ञानिक एलन ट्यूरिंग ने प्रताड़ित किए जाने पर आत्महत्या कर ली।
चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा ने कहा कि ‘सेक्स’ और सेक्स की ओर झुकाव को लिंक मत कीजिए। यह एक निरर्थक प्रयास है तो जस्टिस रोगिंग्टन ने कहा, प्रकृति का नियम क्या है? क्या प्रकृति का नियम यही है कि सेक्स प्रजनन के लिए किया जाए? अगर इससे अलग सेक्स किया जाता है तो वो प्रकृति के नियम के खिलाफ है? हमने नालसा फैसले में सेक्स को ट्रांसजेंडर तक बढ़ा दिया है।
जस्टिस रोहिंटन ने कहा, अगर हम संतुष्ट हुए कि धारा 377 असंवैधानिक है और इससे मौलिक अधिकारों का उल्लंघन हो रहा है तो इसे रद्द करना हमारा फर्ज है। मामले में वकील मनोज जॉर्ज ने कहा कि पारसी विवाह और तलाक कानून में अप्राकृतिक यौनाचार तलाक का आधार है। जस्टिस रोहिंटन इसे अच्छी तरह जानते हैं। इस पर रोहिंटन ने कहा कि अप्राकृतिक यौनाचार को 377 का हिस्सा बनाया जा सकता है।
चीफ जस्टिस ने कहा कि अगर 377 पूरी तरह चली जाती है तो अराजकता फैल जाएगी। आप अपनी यौन प्राथमिकताओं को बिना सहमति के दूसरों पर नहीं थोप सकते।
पीठ ने कहा कि वह धारा 377 को फिर से अपराध की श्रेणी में लाने के 2013 के फैसले को सही होने के संबंध में गौर करगीं। जिसमें दिल्ली हाईकोर्ट ने दो समलैंगिक व्यक्तियों के बीच यौन संबंधो को दंडनीय अपराध बनाने वाली धारा 377 को असंवैधानिक करार देने के फैसले को निरस्त किया था।
इससे पहले पिछले सप्ताह तीन दिनों की लगातार सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि एलजीबीटी (लेस्बियन, गे, बाइसेक्शुअल और ट्रांसजेंडर) समुदाय को समाज में डर के साथ जीना पड़ता है।
पीठ में शामिल जस्टिस इंदु मल्होत्रा ने कहा था कि परिवार और सामाजिक दबावों के कारण एलजीबीटी समुदाय को विपरीत लिंग से शादी करने के लिए मजबूर होना पड़ता है। इसके कारण उन्हें मानसिक आघात पहुंचता है। साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने धारा-377 की संवैधानिकता वैधता पर जनमत संग्रह कराए जाने की याचिका को खारिज करते हुए कहा था कि यह बहुमत के विचार पर नहीं हो सकता है बल्कि संवैधानिक नैतिकता पर नियमित होगा।
वहीं केंद्र सरकार ने सुनवाई के दूसरे दिन अपना पक्ष रखते हए कहा था जिसमें केंद्र ने इस धारा का न तो समर्थन किया और न ही इसका विरोध किया गया था। केंद्र ने साफ स्टैंड नहीं लेते हुए मामले को सुप्रीम कोर्ट के विवेक पर छोड़ दिया।
मामले की सुनवाई चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा, जस्टिस रोहिंटन फली नरीमन, ए एम खानविलकर, डी वाई चंद्रचूड़ और इंदु मल्होत्रा की पांच जजों की संवैधानिक पीठ कर रही है।
इससे पहले संविधान पीठ ने आईपीसी की धारा 377 के विरुद्ध याचिकाओं पर प्रस्तावित सुनवाई स्थगित करने की मांग करने वाली केंद्र सरकार की याचिका खारिज करते हुए 10 जुलाई से सुनवाई शुरू की थी।
सुप्रीम कोर्ट ने 2013 में समलैंगिक संबंधों को दोबारा गैर कानूनी बनाए जाने के पक्ष में फैसला दिया था, जिसके बाद कई प्रसिद्ध नागरिकों और एनजीओ नाज फाउंडेशन ने इस फैसले को चुनौती दी थी। इन याचिकाओं को सुप्रीम कोर्ट ने संविधान पीठ के पास भेज दिया था। सुप्रीम कोर्ट ने आठ जनवरी को कहा था कि वह धारा 377 पर दिए फैसले की दोबारा समीक्षा करेगा और कहा था कि यदि 'समाज के कुछ लोग अपनी इच्छानुसार साथ रहना चाहते हैं, तो उन्हें डर के माहौल में नहीं रहना चाहिए।'
सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में 2013 में दिए अपने फैसले में दिल्ली हाई कोर्ट द्वारा दो जुलाई, 2009 को दिए फैसले को खारिज कर दिया था। दिल्ली हाई कोर्ट ने समलैंगिक सैक्स को अपराध की श्रेणी से बाहर करने के पक्ष में फैसला सुनाया था।
धारा 377 एलजीबीटी समुदाय के दो लोगों के बीच संबंधों पर प्रतिबंध लगाती है जिसे 'अप्राकृतिक' कहा गया है। इस अपराध के तहत 10 साल की सजा और साथ में जुर्माने का प्रावधान है। ये कानून अंग्रेजो के जामने में बना था। धारा-377 एक गैर-जमानती अपराध है।
वहीं इसे रद्द करने वाले इस बात की दलील भी दे रहे हैं कि ब्रिटेन में ये कानून खत्म कर दिया गया है, तो फिर भारत में ये कानून अभी तक क्यों है।