Advertisement

नजरियाः जान बड़ी या 45 मिनट बचत?

सिलक्यारा सुरंग हादसे ने हिमालयी क्षेत्र में चल रहे सड़क चौड़ीकरण पर ही प्रश्नचिह्न खड़े कर...
नजरियाः जान बड़ी या 45 मिनट बचत?

सिलक्यारा सुरंग हादसे ने हिमालयी क्षेत्र में चल रहे सड़क चौड़ीकरण पर ही प्रश्नचिह्न खड़े कर दिए
 

दिवाली की सुबह 12 नवंबर को उत्तरकाशी के पास जब निर्माणाधीन सिलक्यारा मोड़-बड़कोट सुरंग का कुछ भाग अचानक ढहा, उस वक्त ‘रिप्रोफाइलिंग’ का काम चल रहा था। उसमें फंस गए 41 मजदूर इसी काम में लगे हुए थे, जिन्हें रैटहोल माइनिंग के तरीके से 28 नवंबर को बाहर निकाला गया।

सिलक्यारा मोड़-बड़कोट सुरंग चारधाम बारामासी सड़क परियोजना की सबसे लंबी सुरंग है जिसकी कुल लागत 1,383 करोड़ रुपये है। यह गंगोत्री-यमुनोत्री के बीच 20 किलोमीटर की दूरी को घटाकर 45 मिनट का समय बचाएगी। निर्माण कार्य बिना किसी ‘आपातकालीन निकास’ के सिलक्यारा की तरफ से 2,340 मीटर और बड़कोट की ओर से 1,600 मीटर पूरा हो चुका है। हादसा सिलक्यारा प्रवेश से 270 मीटर की दूरी पर हुआ जहां 60 मीटर तक मलबा इकट्ठा हो गया था।

इस घटना ने हिमालयी क्षेत्र में चल रहे सड़क चौड़ीकरण पर प्रश्नचिह्न खड़े कर दिए हैं। हिमालय इस धरती की सबसे युवा पर्वत शृंखला है। हिमालय आज भी बढ़-उठ रहा है। हलचल से भरा इसका मिजाज भूगर्भीय उथल-पुथल पैदा करता रहता है। इसके उच्च, मध्य और शिवालिक कटिबंध को बांटने वाली बड़ी दरारें (भ्रंश-क्षेप/फॉल्ट-थ्रस्ट) मेन बाउंड्री थ्रस्ट (एम.बी.टी.) और मेन सेंट्रल थ्रस्ट (एम.सी.टी.) हैं। इन्हीं के बीच उत्तरकाशी बसा है। उत्तरकाशी के पास से टोंस थ्रस्ट तो गुजरता ही है, साथ में पूरा क्षेत्र एम.सी.टी., उत्तरकाशी भ्रंश, भटवारी क्षेप, मुनस्यारी थ्रस्ट के प्रभाव में आता है। इस इलाके में ‘माइक्रोसीस्मिसिटी’ (रिएक्टर पैमाने पर 3 से कम तीव्रता के भूकंप) बनी रहती है।

हिमालय के बनते समय जो चट्टानें आपस में सटकर बैठ गई थीं, उन्हीं से भूखण्डों-शिलाखण्डों का आपस में जुड़ना हुआ, संधियां बनीं, कहीं वलन बने, चट्टानें मुड़ीं, झुकी, टूटी-फूटी, कतरा-कतरा हुईं। दरारें (भ्रंश) बनीं। ऐसे संयोजन को जब बिना जांचे-परखे झकझोर दिया जाएगा तो वही होगा जैसे आलमारी में बेतरतीब ढंग से ठूंसे कपड़ों में से किसी भी कपड़े को खींच देने से सारे कपड़े भरभराकर गिर जाते हैं।

मध्य हिमालय के पूरे क्षेत्र में जगह-जगह शिअर जोन- 5 से 20 किलोमीटर चौड़ा ऐसा क्षेत्र है जिसमें चट्टानों की शक्ल बिगड़ना, उनका रूप बिगड़ना,  टूट-फूट होना, कतरा-कतरा होकर छितर जाना, यह सब चलता रहता है। सिलक्यारा भी शिअर जोन पर ही है। वहां की चट्टानें भंगुर प्रकृति की हैं, भुरभुरी हैं। इसलिए वहां होने वाले निर्माण भूस्खलन जैसी आपदाओं को निमंत्रण दे रहे हैं, जिनके पर्यावरण के ऊपर तात्कालिक और दूरगामी दोनों कुप्रभाव पड़ रहे हैं।

इस सुरंग में पहली बार ढहान नहीं हुई है। एनएचआइडी कॉरपोरेशन लिमिटेड के एक अधिकारी ने अपने बयान में बताया कि पिछले पांच साल में निर्माण के दौरान सुरंग में 19-20 बार मलबा गिरा है। सुरंग में ऐसी घटनाएं बड़कोट की तरफ ज्यादा हुई हैं। निर्माण एजेंसियों से जुड़े एक अन्य अधिकारी सुरंग के भीतर बार-बार मलबा गिरने का मुख्य कारण क्षेत्र के चुनौती भरे भूविज्ञान और यहां बड़े पैमाने पर हो रहे शैल विरूपण को मानते हैं। ऐसे शिअर जोन में प्राकृतिक तौर पर ही मलबा तैयार होता है, फिर सड़क-सुरंग कटान से जो और अधिक मलबा निकलेगा वह बहुत बड़ी समस्या बनेगा और बन रहा है।

सुरंग के दूसरे छोर बड़कोट के पोला गांव से बहने वाली जलधारा बड़ीगाड़, जो बड़कोट को पेयजल आपूर्ति करती है आज सुरंग से निकलने वाले टनों मलबे के बोझ से दबकर अपने अस्तित्व के लिए लड़ रही है।  

उत्तराखंड के 53,483 वर्ग किलोमीटर कुल क्षेत्रफल में से लगभग 86 फीसद पर्वतीय इलाका है। यहां राष्ट्रीय राजमार्गों की कुल लंबाई 2,949 किलोमीटर है। राज्य में प्रादेशिक राजमार्ग की 4,517, जिला सड़कों की 4,828, ग्राम्य सड़कों की 44,805, शहरी सड़कों की 6,360 किलोमीटर लंबाई है। नई सड़कें भी बन रही हैं और बने हुए राष्ट्रीय और प्रादेशिक राजमार्गों को चौड़ा किया जा रहा है। यही परेशानी का सबब है।

यह चारधाम बारामासी सड़क परियोजना किस तरह पर्यावरण को क्षति पहुंचा रही है यह आए दिन प्रत्यक्ष देखने को मिलता है। 2019 तक इस परियोजना में 700 हेक्टेयर जंगल, 47,043 पेड़ कट चुके थे। आइआइटी, रुड़की और पाट्सडैम विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों द्वारा किए गए शोध अध्ययन में यह बात सामने आई है कि इस राष्ट्रीय राजमार्ग में ऋषिकेश से जोशीमठ तक के बीच 247 किलोमीटर में पिछले साल (2022) सितंबर और अक्टूबर के दौरान 309 भूस्खलन हुए। इन भूस्खलनों और सिलक्यारा जैसी तमाम घटनाओं के तार जुड़े हुए हैं।

बीसवीं सदी के बाद के दशकों में आए भूस्खलनों से यह कहानी शुरू होती है जिसमें जल-जंगल-जमीन के साथ हुई क्रूरता भरी पड़ी है। सुरंग, सड़क जैसे निर्माण कार्यों में जमीन की हरकतों, उसकी तबीयत को बताने वाले भूवैज्ञानिक शोधों-तथ्यों को अनदेखा किए जाने, वैज्ञानिक तथ्यों/रिपोर्टों को अनदेखा किए जाने, निर्माण कार्यों में अवैज्ञानिक पद्धतियों के लगातार लागू होने, जंगलों के कटने, खनन किए जाने, विस्फोटकों के बेतरतीब इस्तेमाल से इस नाजुक पारिस्थितिकी तंत्र का संतुलन बुरी तरह बिगड़ गया है। इन आंकड़ों के परिप्रेक्ष्य में पूछें, तो 889 किलोमीटर लंबी और 12 मीटर चौड़ी सड़कों को तैयार करने में जो कटान होगा उसके बाद ये अस्थिर ढलानें इतनी भूस्खलनीय संवेदनशीलता, भूकंपीयता के बीच कितना स्थाई रहेंगी? इस कटान से जो मलबा निकलेगा वह कहां जाएगा? क्या कटान में और मलबा निस्तारण में निर्धारित मानकों का पालन किया जा रहा है?

पूर्व सेनाध्यक्ष भी 5-8 मीटर चौड़ी सड़कों को सामरिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए पर्याप्त बता चुके हैं। इसलिए यह सोचना जरूरी है कि हजार साल से ज्यादा वक्त से चली आ रही तीर्थयात्राएं केवल 45 मिनट की बचत से क्या ज्यादा पुण्यदायी हो जाएंगी?

(रणधीर संजीवनी स्वतंत्र शोधकर्ता हैं। लद्दाख की पुराजलवायु, भूआकृतिविज्ञान, विवर्तनिक शोध में 20 वर्षों का अनुभव)


 

अब आप हिंदी आउटलुक अपने मोबाइल पर भी पढ़ सकते हैं। डाउनलोड करें आउटलुक हिंदी एप गूगल प्ले स्टोर या एपल स्टोर से
Advertisement
Advertisement
Advertisement
  Close Ad