विश्व स्वास्थ्य संगठन की ताज़ा रिपोर्ट में करुणा को प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल का अनिवार्य घटक माना गया है, जिससे स्वास्थ्य सेवाओं में क्रांतिकारी बदलाव की उम्मीद की जा रही है। नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित कैलाश सत्यार्थी ने डब्ल्यूएचओ के इस बदलाव के लिए संगठन के प्रमुख डॉ. टेड्रोस एडहानॉम गेब्रेयसस का आभार जताया है। सत्यार्थी का मानना है कि बेहतरीन स्वास्थ्य सेवा के लिए सिर्फ अच्छी दवाएं, उन्नत मशीनें और कुशल डॉक्टर काफी नहीं हैं। तकनीक और विज्ञान जितने जरूरी हैं, उतनी ही जरूरी है करुणा। वर्षों की उनकी इस मांग को अब वैश्विक मान्यता मिल गई है।
पिछले कई वर्षों से सत्यार्थी संयुक्त राष्ट्र के मंचों से करुणा को केवल एक नैतिक आदर्श न मानकर, उसकी परिवर्तनकारी क्षमता को पहचानने और अपनाने की मांग कर रहे हैं। उन्होंने डब्ल्यूएचओ के 74वें विश्व स्वास्थ्य सम्मेलन में, जहां दुनिया भर के स्वास्थ्य मंत्री मौजूद थे, इसे स्वास्थ्य नीतियों का अभिन्न हिस्सा बनाने की जोरदार वकालत की थी।
उन्होंने उस मंच से कहा था, "अगर करुणा चिकित्सा प्रणाली का मूलमंत्र नहीं होगी, तो यह सिर्फ एक यांत्रिक प्रक्रिया भर बनकर रह जाएगी। हमें करुणा की परिवर्तनकारी शक्तियों को पहचानते हुए उसे स्वास्थ्य सेवाओं की रीढ़ बनाना होगा।" अब डब्ल्यूएचओ ने उनके विचारों को आधिकारिक रूप से स्वीकार किया है। उनका मानना है कि स्वास्थ्य सेवाओं में करुणा का प्रभाव दो स्तरों पर देखा जाएगा। इससे न सिर्फ मरीजों का अधिक लाभ होगा, बल्कि स्वास्थ्यकर्मियों के मानसिक स्वास्थ्य पर भी इसके गहरे सकारात्मक प्रभाव होंगे। दुनिया के कई अध्ययन भी यह बताते हैं कि करुणा आधारित स्वास्थ्य सेवाओं से मरीजों की रिकवरी तेज़ होती है और डॉक्टरों में भी तनाव कम होता है।
उन्होंने डब्ल्यूएचओ की ताजा रिपोर्ट पर प्रतिक्रिया देते हुए कहा, "एक संवेदनशील और प्रभावी स्वास्थ्य प्रणाली की ओर बढ़ाए गए इस ऐतिहासिक कदम का मैं स्वागत करता हूं। जब संवेदनशीलता को नीति में जगह मिलती है, तो इसका असर मरीजों से लेकर डॉक्टरों तक हर किसी पर पड़ता है।" सत्यार्थी स्वास्थ्य नीतियों में बच्चों की विशेष ज़रूरतों को प्राथमिकता देने की मांग भी करते रहे हैं।