सबसे पहले कोर्ट के दोनों फैसले। अभी 18 मार्च को उच्चतम न्यायालय ने जाट आरक्षण को रद्द कर दिया। मनमोहन सिंह सरकार ने जाते-जाते जाटों को आरक्षण दिया था। कांग्रेस को इसका फायदा चुनावों में मिलने की उम्मीद थी। जाट कई दशकों से केंद्र सरकार की नौकरियों में आरक्षण की मांग करते रहे हैं। इंदर कुमार गुजराल की सरकार के वक्त राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग (एनसीबीसी) ने इस मामले पर विस्तार से विचार किया और पाया कि सिर्फ राजस्थान (और उसमें भी भरतपुर और धौलपुर जिलों को छोडक़र) के जाटों ने अपने दावे के समर्थन में पर्याप्त साक्ष्य प्रस्तुत किए हैं। वर्ष 1999 में चुनावों के दौरान अटल बिहारी वाजपेयी ने एनसीबीसी की सिफारिशों को लागू करने का वादा किया। थोड़े दिनों बाद जब वे प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने केंद्र सरकार की नौकरियों में जाटों को आरक्षण का लाभ दिया। इससे दबाव तो बना था ही, कुछ ही हफ्ते बाद जब राजस्थान में कांग्रेस सरकार बनी तो उसने भी राज्य में जाटों को ओबीसी में शामिल कर दिया। फिर भी, अगले लोकसभा चुनाव में भाजपा और अगले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस हार गई।
इस बार जब यूपीए-2 के दौरान नरेंद्र मोदी की उभार का भय सता रहा था तो कांग्रेस ने हरियाणा, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, दिल्ली के साथ-साथ भरतपुर और धौलपुर के जाटों को भी ओबीसी में शामिल करते हुए अधिसूचना जारी कर दी। ऐसा उसने राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग (एनसीबीसी) की सिफारिशों को दरकिनार और संसद की अनदेखी करते हुए किया। इसका कांग्रेस को कितना फायदा चुनावों में मिला, यह सबके सामने है। इसको रद्द करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने सही कहा है कि अधिसूचना में इसका कोई औचित्य नहीं बताया जा सका है। वैसे भी, धौलपुर और भरतपुर के जाटों के दावों का आधार उचित ठहराना मुश्किल है। कई शताब्दियों तक भरतपुर-धौलपुर के जाट शासकों ने राजस्थान के साथ-साथ उत्तर प्रदेश के बड़े क्षेत्र में शासन किया है। भरतपुर के राजा का रुतबा इतना था कि ब्रिटिश शासन काल में भी उन्हें 17 तोपों की सलामी दी जाती थी। ऐसा सलूक कम ही राजाओं के साथ होता था। अब महाराजा-महारानी का समय तो नहीं है लेकिन जानना चाहिए कि धौलपुर की ‘महारानी’ अभी कौन हैं? वे हैं राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे सिंधिया।
इसी क्रम में मराठा आरक्षण को लेकर बंबई उच्च न्यायालय की जनवरी में की गई टिप्पणियों पर भी ध्यान देने की जरूरत है। महाराष्ट्र में पिछली कांग्रेस-एनसीपी सरकार ने मराठों के लिए 16 प्रतिशत आरक्षण किया था। इसे हाईकोर्ट ने रद्द कर दिया क्योंकि वे 'सामाजिक और शैक्षिक तौर पर पिछड़े वर्ग में नहीं हैं।’ लेकिन कोर्ट ने शैक्षिक संस्थाओं में मुसलमानों के लिए पांच फीसदी आरक्षण जारी रहने की अनुमति दे दी। वैसे, महाराष्ट्र की देवेंद्र फड़णवीस सरकार मराठों को कोटा दिए जाने के तो पक्ष में है लेकिन उसने कोर्ट के अंतरिम आदेश के उलट मुस्लिम आरक्षण को समाप्त कर दिया है। आखिर, भाजपा-शिवसेना का एजेंडा भी तो लागू होना जरूरी है।
लेकिन दोनों ही जगह कोर्ट ने कुछ बातें कही हैं जिससे आरक्षण नीति पर फिर से विचार किया जाना जरूरी है। वैसे, कोर्ट ने कई अवसरों पर इस तरह के सुझाव दिए हैं लेकिन राजनीतिक नेतृत्व ने हर बार इन पर आधा-अधूरा काम किया है। कोर्ट का मानना है कि आरक्षण की सुविधा उठा रही जातियों की वास्तविक स्थिति का लगातार मूल्यांकन करना और उसके आधार पर सूची में तब्दीली करते रहना जरूरी है। सुप्रीम कोर्ट के 16 नवंबर, 1992 के दिए आदेश पर ही एनसीबीसी का गठन किया गया। इसे अन्य पिछड़ा वर्गों की सूची में शामिल किए जाने के लिए सुझावों, अधिक शामिल किए जाने या कम शामिल किए जाने की शिकायतों को देखने, उनकी जांच करने और इनको लेकर सिफारिशें करने का काम सौंपा गया है। साथ ही इसका काम ओबीसी से सामाजिक रूप से उन्नत लोगों या समूहों (क्रीमी लेयर) को हटाने के औचित्य और अपेक्षित सामाजिक-आर्थिक मानदंड अपनाने के लिए आधार बनाना है। इसने जाटों को आरक्षण की सिफारिश नहीं की थी, फिर भी सरकार ने आरक्षण का प्रावधान किया। वैसे, सिफारिशें स्वीकार करना सरकार के लिए ‘अनिवार्य नहीं है।’ लेकिन जाट आरक्षण वाले मुकदमे में सुप्रीम कोर्ट ने एक अन्य बात यह भी कही है कि ओबीसी का प्रतिशत ‘निश्चित रूप से अत्यधिक तौर पर बढ़ गया है क्योंकि पिछले दो दशकों के दौरान केंद्रीय के साथ-साथ राज्य ओबीसी सूचियों में सिर्फ समावेश किया गया है, वहां से बाहर हटाने का काम शायद ही हुआ है। यह बात निश्चित रूप से हमारी संवैधानिक योजना में परिकल्पित नहीं की गई है।’ उदाहरण के लिए, 1999-2000 के एनएसएस सर्वे में 36 प्रतिशत आबादी ओबीसी के रूप में दर्ज थी जो 2004-05 में बढक़र 41 फीसदी हो गई। इससे आरक्षण का मकसद इसलिए पूरा नहीं हो रहा क्योंकि सूची में जब-तब नई जातियों को शामिल तो कर लिया जाता है जबकि उदारवादी आर्थिक नीतियों के कारण सरकारी नौकरियों की संख्या कम होती जा रही है। ऐसे में शिक्षित होना सबसे महत्वपूर्ण बात हो गई है। और जब देश में साक्षरता का प्रतिशत बढ़ने की रफ्तार ही ज्यादा नहीं हो, तो हर हाथ को रोजगार में मुश्किल तो आएगी ही। (देखें बॉक्स: साक्षरता की बढ़ती दर) इसे एक छोटे उदाहरण से समझा जा सकता है। 1999-2000 एनएसएस राउंड में 32.1 फीसदी हिंदू ओबीसी आबादी थी जिनमें ‘प्रोफेशनल जॉब’ में 24.2 फीसदी लोग थे। इसका एक बड़ा कारण यह था कि इस वर्ग में सिर्फ 25.9 प्रतिशत लोग हाई स्कूल पास थे। शिक्षा की वजह से पिछड़ेपन को इस तरह भी समझा जा सकता है कि एनसीएईआर के 2004-05 अखिल भारतीय सर्वेक्षण के अनुसार, उच्च जाति वाले हिंदू घर का मुखिया अगर निरक्षर था तो उसकी औसत आमदनी 27,650 रुपये सालाना थी जबकि अगर वह स्नातक था तो उसकी आय 1,35,535 रुपये सालाना थी।
इसलिए पिछड़ेपन की पहचान के साथ उसके कारणों की तलाश और उसे दूर करने के प्रभावी उपायों पर समय-समय पर कोर्ट भी जोर देती रही है। बंबई हाईकोर्ट ने डॉ. महमूदुर रहमान समिति की रिपोर्ट के आधार पर मुसलमानों के लिए शैक्षणिक संस्थानों में पांच फीसदी आरक्षण को सही ठहराया। इसका गठन 2008 में महाराष्ट्र के तब के मुख्यमंत्री विलासराव देखमुख ने राज्य में मुसलमानों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति की जांच करने के लिए किया था। इसने उसी साल अपनी अंतरिम रिपोर्ट दी लेकिन सत्ता बदलने के कारण इसकी गति थोड़ी शिथिल हो गई थी। पृथ्वीराज चव्हाण जब मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने उत्साह दिखाया और तब समिति ने अपनी फाइनल रिपोर्ट दी। इसके आधार पर ही हाईकोर्ट ने कहा ‘जहां तक ब्योरेवार मुस्लिम समुदायों के लिए आरक्षण की बात है, उनका वर्गीकरण ‘विशेष पिछड़े वर्ग’ में बनाए रखने के लिए पर्याप्त सामग्री या मात्रात्मक आंकड़े मौजूद हैं।’ वैसे, मुसलमानों को लेकर प्रो. अमिताभ कुंडू के नेतृत्व वाली ‘पोस्ट सच्चर इवैल्यूशन कमेटी’ की रिपोर्ट भी आंखें खोलने वाली हैं। इसने भी मुसलमानों के लिए आरक्षण में कुछ नए उपायों पर बल दिया है। (देखें बॉक्स: सामाजिक समूहों की नई पहचान जरूरी) दोनों ही रिपोर्टस् में सिर्फ सरकारी आंकड़ों पर भरोसा नहीं किया गया है। सामाजिक-शैक्षिक-आर्थिक-लिंगगत आंकड़ों के लिए विभिन्न अध्ययनों का सहारा लिया गया है और तब किसी निष्कर्ष पर पहुंचने की कोशिश की गई है।
सुप्रीम कोर्ट ने जाट आरक्षण पर फैसले के क्रम में भी उन नए पिछड़े वर्गों की पहचान पर बल दिया है जो जरूरी नहीं कि जातिगत समूह हों। न्यायमूर्ति रंजन गोगोई और न्यायमूर्ति रोहिंटन नरीमन ने कहा भी, ‘पिछड़ापन कई स्वतंत्र कारणों की उपस्थिति के कारण प्रकट हो सकता है जो सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, शैक्षिक या यहां तक कि राजनीतिक भी हो सकते हैं। पिछड़ेपन की जाति-केंद्रित परिभाषा से आगे बढ़ते हुए नए प्रयोग, तरीके और पैमाने निरंतर अपनाने होंगे। सिर्फ इससे ही समाज में नए उभर रहे समूहों की पहचान संभव होगी जिन्हें शमन करने वाली कार्यवाही की जरूरत है।’
लेकिन इसका एक खतरा यह भी है कि आरक्षण का शुरू से विरोध करती आ रही कथित उच्च जातियां इस आधार पर जातिगत आरक्षण का विरोध और आर्थिक आधार पर आरक्षण की मांग फिर कर सकती हैं। वैसे, आरक्षण देने का मुख्य आधार ‘ऐतिहासिक रूप से कुछ जातियों के साथ निरंतर भेदभाव’ रहा है। तमाम किस्म की कथित आर्थिक प्रगति के बावजूद यह शायद ही किसी के गले उतर सकता है कि भारतीय समाज से जाति प्रथा दूर हो गई है या हो रही है। जातिगत असमानता दूर करने में आरक्षण के प्रावधानों के समीकरण पर सवाल उठाते वक्त यह बात ध्यान में रखनी होगी कि ऐसा नहीं है कि आरक्षण की अब जरूरत नहीं है बल्कि यह कि यह व्यवस्था अब भी पर्याप्त नहीं दिख रही। हमें जातिगत पूर्वाग्रहों के लचीले परिवर्तनों से जूझना होगा। वैसे, यह काम कानूनी से अधिक सामाजिक आंदोलन का है और इस दिशा में कितना काम हो पा रहा है, यह आराम से देखा जा सकता है। जातिगत मानसिकता पर चोट करने वाले सामाजिक-राजनीतिक आंदोलन का स्पेस तो है लेकिन इस ओर ध्यान सबसे कम है।
दरअसल, राजनीतिक नेतृत्व को आरक्षण को लेकर दो स्तरों पर कठिन फैसले लेने हैं। पहला, उसे क्रीमी लेयर की पहचान और उन्हें आरक्षण के दायरे से बाहर करने पर जोर देना होगा। यह मुश्किल भरा काम है। जिस भी वर्ग को हटाए जाने की सुगबुगाहट होगी, वह वोट के रूप में गुस्सा दिखा सकता है। आरक्षण की सूची में शामिल होने पर भले ही यह भाव हो कि 'सरकारी नौकरी कहां है, इसलिए क्या फायदा होगा’ और इसलिए सत्ताधारी पार्टी को वोटों का लाभ न मिलता रहा हो लेकिन वंचित किए जाने पर वोट खोने का भय किसी भी पार्टी को रहेगा। इसलिए क्रीमी लेयर को छूना भी फिलहाल आसान नहीं दिखता। वैसे भी, इसे लेकर आधार तैयार करना आसान नहीं है। यह आसान दिखता तो है कि किसी के शैक्षणिक स्तर या उसे सरकारी नौकरी मिलने के बाद उसकी अगली पीढ़ी को आरक्षण से बाहर कर दिया जाए। लेकिन सामाजिक-आर्थिक स्थितियों और ‘ऐतिहासिक तौर पर जातिगत भेदभाव झेलते रहने’ के तर्कों के कारण सिर्फ इस आधार पर कोई किसी सुविधा से वंचित होना स्वीकार करेगा, यह कहना मुश्किल है।
जाति के अलावा नए समूहों को आरक्षण के दायरे में शामिल करने में भी कम मुश्किल नहीं है। पिछले साल 16 अप्रैल को सुप्रीम कोर्ट में न्यायमूर्ति के.एस. राधाकृष्णन और न्यायमूर्ति ए. के. सीकरी की खंडपीठ ने केंद्र और राज्य सरकारों को ट्रांसजेंडरों (आम भाषा में जिन्हें ‘हिजड़ा’ या ‘किन्नर’ कहते हैं) के साथ सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्ग के नागरिकों के तौर पर व्यवहार करने और उन्हें शैक्षणिक संस्थाओं में प्रवेश और सरकारी सेवाओं में ‘ओबीसी की तरह’ आरक्षण उपलब्ध कराने को कहा। एक मोटे अनुमान के अनुसार, देश में ट्रांसजेंडरों की संख्या लगभग बीस लाख है। एक ही महीने के अंदर एनसीबीसी ने इसके लिए सिफारिश भी कर दी। शिक्षा के अधिकार कानून के अंतर्गत यह सुविधा ऐसे बच्चों को दिल्ली के स्कूलों में अक्टूबर में दे दी गई। मध्य प्रदेश सरकार ने अगस्त में केंद्रीय सामाजिक न्याय मंत्रालय को सुझाव दिया कि ‘श्रीमती’, ‘कुमारी’ या ‘श्री’ की तरह ऐसे लोगों को अंग्रेजी में ‘टीजीआर’ और हिंदी में ‘कि’ लिखा-कहा जाना चाहिए। ये प्रयास तो हो रहे हैं लेकिन इस बारे में कोर्ट ने भी कोई सुझाव या निर्देश नहीं दिया है कि सरकार उन्हें धर्म या जाति से बाहर किस श्रेणी में रखकर आरक्षण दे। चूंकि यह मसला सामान्य जातिगत आरक्षण से अलग है और आने वाले दिनों में इस तरह के और मामले आ सकते हैं, इसलिए एक वृहत्तर गाइडलाइन बनाने की जरूरत होगी। लेकिन यह आसान नहीं लगता।