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ओड़ समुदाय पर कोरोना की मार: तालाब, कुंआ, नहर खोदने वाले हुए बदहाल, सरकार से लगाई मदद की गुहार

"ओड़ समुदाय ने पूरे देश को कुंआ और नहर खोद कर पानी पिलाया है, लेकिन आज वही पानी के बिना मर रहे हैं। हमने इस...
ओड़ समुदाय पर कोरोना की मार: तालाब, कुंआ, नहर खोदने वाले हुए बदहाल, सरकार से लगाई मदद की गुहार

"ओड़ समुदाय ने पूरे देश को कुंआ और नहर खोद कर पानी पिलाया है, लेकिन आज वही पानी के बिना मर रहे हैं। हमने इस देश की नींव डाली है, इसकी भूख मिटाई है, लेकिन आज हमें एक समय का खाना भी नसीब नहीं है।" यह बात ओड़ समुदाय से ताल्लुक रखने वाले 60 वर्षीय गंगाराम निराशा भरे लहजे में कहते हैं।

हालांकि, ये कहानी सिर्फ गंगाराम की नहीं है, बल्कि दिल्ली के छतरपुर इलाके के संजय कॉलोनी की भट्टी खदानों में रहने वाले हजारों ओड़ की है।

टूटी-सड़क सड़क पर बहते नाले का पानी, मिट्टी के घर, फटे तिरपाल के पर्दे, मिट्टी के चूल्हे और चूल्हे के धुँए से काले पड़े बर्तनों में उनकी जिंदगी सिमटी हुई है। हर घर के आंगन में खाली रखी उनकी भुकी (हथियार) ये दर्शाती है कि उनके हाथ आज भी खाली रह गए हैं।

एक समय अपनी मेहनत, महीन कार्य और उत्कृष्ठ कारीगरी के लिए पहचाने जाने वाले इस समुदाय के लोगों की स्थिति बदहाली के स्तर को छू रही है। संजय कॉलोनी भाटी माइंस एसोसिएशन के मेम्बर चंद्रपाल ओड़ समुदाय के काम के बारे में बताते हुए कहते हैं, "जो काम मशीनों से नहीं होता है, वो काम हम करते हैं। जहाँ मशीने नहीं जा पाती हैं, वहाँ हम जाते हैं।" वे यहां के कामगारों की खूबियां बताते हुए आगे कहते हैं, "इस समुदाय के औजारों में ही खासियत है। ये लोग अपना औजार खुद बनाते हैं और तराशते हैं। दर्जनों फिट नीचे सुरंग खोदनी हो, किसी मोबाइल का टावर लगाना हो या कहीं इलेक्ट्रिक केबल बिछानी हो, ओड़ इतना भारी काम अपने लोहे के हथियारों से ही कर देते हैं।"

 


प्रसिद्ध पर्यावरणविद् अनुपम मिश्रा अपनी किताब "आज भी खरे हैं तालाब" में लिखते हैं, "ओड़ सचमुच राष्ट्र-निर्माता थे, लेकिन आज उन्हें भुला दिया गया है और अनिश्चित रोजी-रोटी की तलाश में भटकने को मजबूर कर दिया गया है। आज भी कितने ओड़ वही (खुदाई) काम करते हैं, इंदिरा नहर बनाने में हजारों ओड़ लगे थे- लेकिन अब उनका जस चला गया है।"


दिल्ली में रहने वाले अधिकतर ओड़ बंटवारे के बाद भारत आए थे। 1970 के दशक में संजय गांधी ने उन्हें छतरपुर में बसाया। राजस्थान में आज भी एक कहावत प्रचलित है कि 'ओड़ रोजाना कुंआ खोदते हैं और रोजाना नए कुँए का पानी पीते हैं।' अनुपम मिश्र अपनी किताब में लिखते हैं, "बनाने वाले और बनने वाली चीज का एकाकार होने का इससे सुंदर उदाहरण कहीं नहीं मिलेगा क्योंकि कुँए का एक नाम ओड़ भी है।"

शाम का खाना बनाने के लिए लकड़ी तोड़ते हेमराज चंद्र कहते हैं, "हमलोग दिहाड़ी मजदूर हैं। जिस दिन काम मिलता है, उस दिन दो-चार सौ कमा लेते हैं। उसी दो-चार सौ से हमारा घर चलता है। लेकिन अब ये भी नहीं हो रहा है। जब से कोरोना आया है, तब से और हालात बदतर हो गए हैं। वे आगे कहते हैं, "पहले कुछ काम मिल भी जाता था, लेकिन कोरोना के बाद हफ़्तों तक काम नहीं मिलता है। कोरोना में कितनी बार हम बिना खाए सोए हैं।"


ओड़ समुदाय पूर्णतः अनौपचारिक क्षेत्रों में ही कार्यरत हैं। महामारी के बाद से इस समुदाय की स्थिति और दयनीय हो गई है। घर में गैस-चूल्हे का कनेक्शन तो है लेकिन सिलेंडर में गैस नहीं है। जंगलों से लकड़ी बीनकर लाने के बाद उनके घर में चूल्हा जलता है। 65 वर्षीय सरिता देवी बताती हैं, "इस कोरोना ने तो सबकुछ छीन लिया है। राशन लाने को पैसा है नहीं, हम गैस पर क्या खाना बनाएं। पहले पेट तो भरे, उसके बाद गैस भरे।" वे सवालिया लहजे में कहती हैं," गैस भरा ही रहे और खाने को कुछ न रहे, इससे क्या फायदा?"


कोविड-19 महामारी ने दुनिया भर के लोगों का जीवन तबाह कर दिया है। इस अदृश्य वायरस ने न केवल अनौपचारिक क्षेत्र को तबाह किया है बल्कि इसमें कार्यरत श्रमिकों के जीवन-यापन के एकमात्र जरिये को भी निगल लिया है। हाल ही में आई स्टेट बैंक ऑफ इंडिया के अर्थशास्त्रियों द्वारा निकाली गई एक रिपोर्ट के अनुसार, वित्त वर्ष 2018 के बाद से इनफॉर्मल सेक्टर में 20 प्रतिशत की गिरावट आई है।


अपने घर के सामने खड़े पंडित कुमार,आंखों में आंसू लिए और रुंधे गले से कहते हैं, "घर में पत्नी है, दो-तीन बाल-बच्चे हैं, उनका पेट कैसे भरूँ? कोरोना काल से पहले जो काम मिलता था अब वो भी नहीं मिल रहा है।" वे अनुमान लगाते हैं कि कोरोना से काम-धंधे में 70 प्रतिशत की गिरावट आ गयी है।

संजय कॉलोनी में एक चौराहा है, जिसे लेबर चौक के नाम से जाना जाता है। वहाँ सुबह सात बजे सैकडों मजदूर काम की तलाश में जाते हैं, जहाँ से उन्हें कोई ठेकेदार काम देता है।

 

अपने घर के बाहर खाली बैठे विजय चंद्र ने पहले कुछ बोलने से मना कर दिया। फिर वह उदासी भरे लहजे में कहते हैं कि कुछ बोलने से क्या ही होता है! जो भाग्य में लिखा है वो तो भोगना ही होगा। वे कहते हैं, "एक तो काम नहीं मिलता है। काम मिलता भी है तो मजदूरी काट ली जाती है। ठेकेदार हमें 'लेबर चौक' से काम दिलाने के नाम पर बहला-फुसला कर लेकर जाते हैं। लेकिन वहाँ जाने के बाद हमें पूरा पैसा भी नहीं मिलता है।"

हमनें वहाँ इन बातों पर ठेकेदारों से बात करने की कोशिश की। लेकिन उन्होंने कुछ कहने से मना कर दिया।

20 वर्षीय सुमित कुमार बताते हैं कि यहाँ (संजय कॉलोनी) दस हज़ार मजदूर (ओड़) रहते हैं। लेकिन यहाँ कोई भी लेबर यूनियन नहीं है, जहाँ हम शिकायत भी दर्ज करा सकें। अगर हम थाने में शिकायत करते हैं, तब भी कोई सुनवाई नहीं होती है। यहां सिर्फ साठगाँठ चलती है।

पूरा ओड़ समुदाय उद्दीनता, उपेक्षा, दयनीयता से भरपूर मार्मिक जीवन व्यतीत कर रहा है। कई लोगों का कहना है कि सरकार अगर थोड़ी बहुत वित्तिय सहायता प्रदान कर दे तो स्थिति संभल सकती है। चंद्रपाल सभी सरकारों से नाराजगी जताते हुए कहते हैं, "सरकार से अपेक्षाएं बहुत हैं, पर उम्मीदें कम हैं।"

 

अपनी एक छोटी सी दुकान के बाहर टूटी खाट पर बैठी बेबी देवी कहती हैं, "कुछ लोगों का लेबर कार्ड बना है। लेकिन कई सालों से उसमें पैसा नहीं आ रहा था। अब जब चुनाव आ रहा है तो उसमें कुछ पैसे आए हैं। सरकार अगर नियमित मदद करे तो हजारों जिंदगियां भूखे सोने से बच सकती हैं।"

बेबी देवी बताती हैं, "ये परेशानी इतनी बड़ी है कि वर्षों से यहां रह रहे लोग इस जगह को छोड़ कर जा रहे हैं। तीन-चार हजार ओड़ इस जगह को छोड़ कर जा चुके हैं। ठंड में कोरोना और गर्मी में प्रदूषण के कारण पिछले दो सालों से हम बिना काम के बैठे हैं। आखिर गरीब कहाँ जाए?"

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