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एक ही सिक्का संस्कृति का

धर्म, आस्था, बाजार, स्त्री यौनिकता और संस्कृति- इन तमाम पहलुओं पर प्रतिगामी और प्रगतिशील सोच में टकराहट तेज हुई है। आक्रामकता, धर्मांधता, अंधविश्वास, बहुसंख्यकवाद और स्त्री विरोधी चेतना का क्रमश: बोलबाला हो रहा है।
एक ही सिक्का संस्कृति का

भारत के नक्शे पर अगर कोई परिवर्तन सबसे तेजी से घटित होता दीखता है, तो वह है स्थानीय या नए-नए धार्मिक आयोजनों और पर्वों का राष्ट्रीयकरण। अब त्योहार एक राज्य या इलाके की सीमा तक बंधे हुए नहीं हैं। उनका बाजार देश भर में पसर गया है। आस्था और उसका बाजारीकरण या राजनीतिकरण करने वाले गुरुओं की सत्ता के भी जबर्दस्त सुदृढ़ीकरण का दौर रहा है। तरह-तरह के बाबाओं का मकडज़ाल हर तरफ फैला है और साथ ही उनकी संपत्ति अरबों रुपयों के ग्राफ को छू रही है। उनके भक्तगण बहुत आक्रामक अंदाज में (कई बार लाठी-गोली के साथ भी) अदालती फरमान को ठेंगा दिखाते हुए अपने बाबा की रक्षा को मुस्तैद दिखाई देते हैं। बहुत सुनियोजित ढंग से मांसाहार को तुच्छ - हेय भोजन और शाकाहार को उत्कृष्ट भोजन के रूप में परोसा जा रहा है। हिंदु खाद्य संस्कृति में गो-मांस की सामान्य वर्जना को  देशव्यापी उग्र हिंदू चेतना के निर्माण का आधार बनाया जा रहा है। कई राज्यों में इसके निषेध के कानूनों का बनाया जाना भी उसी विशेष किस्म की संस्कृति को आगे बढ़ाए जाने की कोशिश है।

 औरतों को पितृसत्ता की चारदीवारी में कैद रखने के लिए कहीं करवा चौथ जैसे त्योहारों का राष्ट्रीयकरण दिखाई देता है तो कहीं प्रेम विवाह करने वालों की हत्या करके उसे आबरू के नाम हत्या या लव-जेहाद जैसी छलना शब्दावली का प्रचार-प्रसार और उस नाम पर सामाजिक-सांप्रदायिक ध्रुवीकरण भी इस दौर को रेखांकित करते हैं। पिछला एक दशक बच्चियों के नरसंहार के दशक के रूप में भी देखा जाना चाहिए, हमें अब तक 7 करोड़ के करीब कन्या भ्रूण हत्याएं करने का गर्व हासिल है। बेटियों से नफरत एक राष्ट्रीय महामारी के तौर पर देश भर में फैल चुकी है और इससे कोई वर्ग, कोई जाति, कोई धर्म और कोई इलाका अछूता नहीं है। प्रति दिन 0-6 वर्ष की 7,000 बच्चियां हमारे बीच से गायब हो रही है। हरियाणा में लिंग अनुपात सबसे कम है। सरकार के नवीतम आंकड़ों (20011-13) के मुताबिक यहां 1000 लडक़ों पर महज 864 लड़कियां बची हैं। यानी 9 फीसदी लड़कियों की हत्याएं इस राज्य में हो रही हैं। राष्टï्रीय स्तर पर 909 लड़कियां बचती हैं, यानी 5 फीसदी बच्चियों की हत्याएं हो रही हैं। यह बहुत खौफनाक है। कन्या भ्रूण हत्या पर लंबे समय से सक्रिय पोषण विशेषज्ञ डॉ. साबु जॉर्ज ने आउटलुक को बताया कि राजनीतिक वरदहस्त के बना स्त्री जाति के खिलाफ इतनी बड़ी साजिश सफल नहीं हो सकती। वैसे भारत में परंपरा से बेटों को ज्यादा तरजीह दी जाती रही है, लेकिन अब तो पूरी संस्कृति ही स्त्री विरोधी भावना से भरी हुई है।

स्त्री यौनिकता  की स्वस्थ अभिव्यक्ति से भी भारतीय समाज आक्रांत दिख रहा है और उसे दबाने के लिए चहुं ओर हमले हो रहे हैं। अखिल भारतीय प्रगतिशील महिला एसोसिएशन (एपवा) की सचिव कविता कृष्णन का कहना है कि उग्र हिंदुत्व की ताकतें और पुरातनपंथी सोच महिलाओं को फिर से गुलाम बनाने के फिराक में हैं। अकेली स्त्री, प्रेम करती स्त्री, अपने दम पर आगे बढ़ती स्त्री इन तमाम ताकतों को नागवार गुजर रही है। कहीं उसकी हत्या हो रही है तो कहीं बलात्कार पीडि़त को जिंदा लाश कहा जा रहा है। माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की नेता सुभासिनी अली ने कहा कि स्त्री यौनिकता जितनी मुखर हो रही है, उस पर हमले उतने ही बर्बर हो रहे हैं। यह सांस्कृतिक उथल-पुथल का दौर है।

दिलचस्प बात यह है कि ये तमाम चीजें एक साथ घटित हो रही हैं और सबकी कड़ी एक दूसरे से जुड़ी हुई है। हर क्षेत्र में आक्रामकता का ज्वार बढ़ता नजर आता है, चाहे वह त्योहारों के इर्द-गिर्द विराजमान उत्सवधर्मिता हो या धार्मिक यात्राएं। शिव की भक्ति का डमरू पीटने वाले कावंडियों की तादाद देश भर में फैल गई है। दो दशक पहले तक यह एक इलाके विशेष में होने वाली परिघटना थी ज्यादातर बिहार और झारखंड में। अब पूरे उत्तर भारत, उड़ीसा, बंगाल, महाराष्ट्र और दक्षिण भारत के कुछ हिस्सों में शिव के कावंड़ दिखाई देते हैं। इनकी संख्या भी बेतहाशा बढ़ी है। कावंडिय़ों द्वारा रास्ते में उत्पात मचाने की घटनाएं साल-दर-साल बढ़ती जा रही हैं। इसी तरह, पिछले एक दशक में गणेश चतुर्थी पर अब सिर्फ महाराष्ट्र में ही जनसैलाब नहीं उमड़ता, दक्षिण भारत में तेलंगाना की राजधानी हैदराबाद से लेकर उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ तक में गणेश की स्थापना का क्रेज परवान चढ़ा देख सकते हैं। छठ पूजा पर सिर्फ बिहार में रेलम-पेल नहीं होती, दिल्ली तक के घाटों पर पांव धरने की जगह नहीं होती। नवरात्र पर माता की चौकी से माता की ज्योति लिए युवकों का हुजूम देश के कई राज्यों में उमड़ा पड़ा है। इस दौरान माता की चौकी तमाम छोटे-बड़े मोहल्लों में लगाई जाने लगी है। इन आयोजनों के लिए जमा होने वाली राशि का हिसाब करें तो चुंधिया देने वाले आंकड़े हासिल होंगे। अमरनाथ यात्रा हो या चारधाम यात्रा, शबरीमलई अयप्पा स्वामी यात्रा हो या मरुदमलई यात्रा या जगन्नाथ यात्रा- इनमें जाने वालों की संख्या लाखों में पहुंच गई है। इसके साथ ही हज जाने वालों की तादाद भी बढ़ी है, दरगाह में उर्स पर लोगों का रैला बढ़ा है, सिखों के प्रकाश पर्व को भी शक्ति पर्व के रूप में मनाने का चलन बढ़ा है, ईसाइयों में बेथलेहम तक की धार्मिक यात्रा में जाने वालों और उसके लिए मदद मुहैया कराने वालों की संख्या बढ़ रही है। कुल मिलाकर तमाम धर्मों में दिखावे, हैसियत और शक्ति प्रदर्शन की दावेदारी की प्रवृत्ति बढ़ी है।

पति को पूजने के तमाम त्योहारों खासतौर से करवा चौथ, कुछ हद तक तीज तथा भाई के सरंक्षण की गुहार लगाने वाले पर्वों का विस्तार देश के एक छोर से लेकर दूसरे छोर तक हुआ है। पुण्य अर्जित कराने का बाजार तैयार है। इस राष्टï्रीय विस्तार के पीछे बाजार की निर्णायक भूमिका है। टेलीविजन सीरियल और बॉलीवुड एक तरफ जहां करवा चौथ और तीज को लेकर मानसिकता तय कर रहे हैं, वहीं उन्होंने राखी को एक राष्टï्रीय पर्व सा बना दिया है।

बाजार की चाशनी में लिपटी इस आक्रामकता के साथ घुली हुई है वर्चस्वादी सोच और बहुसंख्यकवाद का शोर। अपने मत से भिन्न मत के प्रति असहिष्णुता बहुसंख्यक समुदाय के ऊपर क्रमश: हावी होती जा रही है। इसकी एक नजीर पेंग्विन इंडिया द्वारा प्रकाशित वेंडी डॉनिगर की किताब द हिंदूस -एन ऑल्टरवेटिव हिस्ट्री विंडी डोनेगर, को राष्टï्रीय स्वयंसेवक संघ के शिक्षा एजेंडे को लागू करने वाले दीना नाथ बत्रा के दबाव में रद्दी में तब्दील करने में देखी जा सकती है। किताबों के बारे में ही यह असहिष्णुता नहीं बढ़ी है, खान-पान, पहनावे, रहन-सहन सब पर बहुसंख्यकवाद, ब्राह्मणवाद की पकड़ मजबूत हो रही है। गुजरात ने सबसे पहले शाकाहारी प्रदेश के तौर पर अपनी मार्केटिंग शुरू की थी। गो-हत्या को गुजरात, मध्यप्रदेश, पंजाब, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, कर्नाटक और हाल में हरियाणा में अपराध घोषित कर दिया गया है। जबकि असम, तमिलनाडु, बंगाल में इसकी कुछ नियमों के अनुपालन के साथ अनुमति हैं और केरल तथा उत्तर पूर्व के राज्यों में तो गो-मांस खाने का प्रचलन भी है। इसे एक धर्म विशेष के खिलाफ अभियान के तौर पर चलाया जा रहा है। अक्सर इस मुद्दे पर सांप्रदायिक तनाव भी फैलता है। इसके अलावा भी देश भर में मांसाहार के खिलाफ धार्मिक अभियान चलाया जा रहा है। खान-पान चूंकि संस्कृति का मुख्य अंग है, इसलिए उस पर नियंत्रण करने की सतत् कोशिश हो रही है। उत्तर भारत के बड़े हिस्से में ढाबों से मांसाहार का गायब होना और अंडे तक न मिलना वैष्णव संस्कृति के वर्चस्व से जुड़ा मामला है।

धर्म, आस्था, बाजार, स्त्री यौनिकता और संस्कृति- इन तमाम पहलुओं पर प्रतिगामी और प्रगतिशील सोच में टकराहट तेज हुई है। आक्रामकता, धर्मांधता, अंधविश्वास, बहुसंख्यकवाद और स्त्री विरोधी चेतना का क्रमश: बोलबाला हो रहा है।

खो रही आजादी

उमा चक्रवर्ती

आज के दौर में भी देश भर में अंतरजातीय विवाह करने पर युगलों की हत्याएं हो रही हैं। बस्तियां की बस्तियों जला दी जाती है। अंतर धार्मिक विवाह पर तो और भी बवाल मच जाता है। शादी करने वाले युगल जान बचाए इधर-उधर मारे-मारे फिरते हैं। कभी भी उनके खिलाफ प्रशासन और समाज का विद्वेष फूट पड़ता है। रात में घर से बाहर निकली लडक़ी को अपने ऊपर होने वाली यौन हिंसा का खुद ही जिम्मेदार माना जाता है। अगर वह अपने परिजनों के अलावा किसी और के साथ बाहर निकली है तो उस पर लांछन की बरसात हो जाती है। जाति और स्त्री के खिलाफ नफरत परवान चढ़ रही है।

खाप पंचायतें, जाति पंचायतें, धर्म के ठेकेदार सब मिलकर स्त्री की स्वतंत्रता पर हमला बोल रहे हंै। आलम यह है कि अभी तक हमने जितनी मुश्किल से इतनी आजादी पाई है, उसे भी छीनने की तैयारी हो रही है। लडक़ी के बारे में बताया जा रहा है कि उसे अपनी पसंद का लडक़ा चुनने का विवेक ही नहीं है। उसे तो बहला दिया जाता है। वह तो तथाकथित लव जेहाद का शिकार हो जाती है। फिर उसकी घर वापसी का प्रपंच रचा जाता है। इसके लिए तैयार न होने पर पति-पत्नी दोनों की हत्या कर दी जाती है। इसे जाति या समुदाय के गौरव से जोड़ कर देखा और प्रसारित किया जाता है। वैसे भारतीय संस्कृति में, खासकर हिंदू धर्म में, औरतों को ही जाति या समुदाय की शुद्धता का चौकीदार माना जाता रहा है, लेकिन पिछले कुछ सालों में इस शुद्धता पर जितनी बलियां दी जा रही हैं, वे खौफनाक हैं।

बहुलतावादी संस्कृति पर संकट है। खाने-पीने की आदतों में बदलाव की कोशिशें हो रही हैं। गढ़े हुए हिंदू और शाकाहारी मूल्यबोध को पूरे समाज पर थोपा जा रहा है। यह बताया जा रहा है कि अगर तुम सच्चे हिंदू हो तो यह नहीं खाओगे। मांसाहार मुसलमान करते हैं। सांस्कृतिक परिदृश्य में दड़बे (गेटोज)की संस्कृति हावी की जा रही है। बताया जाता है कि पूर्वी दिल्ली में कुछ बस्तियों में बाकायदा मंदिर बैठाकर मांसाहार तजने की बात करवाई गई। यह अलग किस्म की बैचेनी पैदा कर रही है। लोगों पर अप्रत्यक्ष दबाव बनाया जा रहा है कि वे कुछ तरह की चीजें खाना छोडऩे के लिए तैयार हो जाएं। इसी क्रम में हैदराबाद और देश के कुछ हिस्सों में बीफ पार्टियों का आयोजन देखा जा सकता है। हिंदुत्व की ताकतें अपनी संस्कृति को सब समुदायों पर थोपने की कवायद में है।

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