भारतीय स्वाधीनता संग्राम का इतिहास क्रांतिकारियों के हजारों साहसिक कारनामों से भरा पड़ा है। क्रांतिकारियों की फेहरिस्त में ऐसा ही एक नाम है खुदीराम बोस का, जो केवल 19 साल की उम्र में ही देश के लिए फांसी पर चढ़ गए। इतिहासकार उन्हें देश के लिए फांसी पर चढ़ने वाला सबसे कम उम्र का क्रांतिकारी देशभक्त मानते हैं। खुदीराम बोस शहादत के बाद इतने लोकप्रिय हो गए कि नौजवान एक विशेष किस्म की धोती पहनने लगे जिनकी किनारी पर खुदीराम लिखा होता था।
खुदीराम का जन्म 3 दिसंबर 1889 को पश्चिम बंगाल के मिदनापुर में त्रैलोक्यनाथ बोस के यहां हुआ था। बोस जब बहुत छोटे थे तभी उनके माता-पिता का निधन हो गया था। उनकी बड़ी बहन ने ही उनको पाला था। सत्येन बोस के नेतृत्व में खुदीराम बोस ने अपना क्रांतिकारी जीवन शुरू किया था। हालांकि, वह अपने स्कूली दिनों से ही राजनीतिक गतिविधियों में शामिल होने लगे थे। वे जलसे-जलूसों में शामिल होकर ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ नारे लगाते थे। नौवीं कक्षा के बाद ही उन्होंने पढ़ाई छोड़ दी और सिर पर कफन बांधकर जंग-ए-आजादी में कूद पड़े। बाद में वह रेवलूशनरी पार्टी के सदस्य बने।
खुदीराम बोस की क्रांतिकारी गतिविधियों की वजह से 28 फरवरी 1906 को उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया लेकिन वह कैद से भाग निकले। लगभग दो महीने बाद अप्रैल में वह फिर से पकड़े गए। 16 मई 1906 को उन्हें रिहा कर दिया गया।
छह दिसंबर 1907 को खुदीराम ने नारायणगढ़ रेलवे स्टेशन पर बंगाल के गवर्नर की विशेष ट्रेन पर हमला किया परंतु गवर्नर बच गया।
सन 1908 में खुदीराम ने दो अंग्रेज अधिकारियों वाट्सन और पैम्फायल्ट फुलर पर बम से हमला किया लेकिन वे भी बच निकले। खुदीराम बोस मुजफ्फरपुर के सेशन जज किंग्सफोर्ड से बेहद खफा थे, जिसने बंगाल के कई देशभक्तों को कड़ी सजा दी थी।
उन्होंने अपने साथी प्रफुल चंद चाकी के साथ मिलकर किंग्सफोर्ड को सबक सिखाने की ठानी। दोनों मुजफ्फरपुर आए और 30 अप्रैल 1908 को सेशन जज की गाड़ी पर बम फेंक दिया लेकिन उस गाड़ी में उस समय सेशन जज की जगह उसकी परिचित दो यूरोपीय महिलाएं कैनेडी और उसकी बेटी सवार थीं।
किंग्सफोर्ड के धोखे में दोनों महिलाएं मारी गईं जिसका खुदीराम और प्रफुल चंद चाकी को काफी अफसोस हुआ। अंग्रेज पुलिस उनके पीछे लगी और वैनी रेलवे स्टेशन पर उन्हें घेर लिया। अपने को पुलिस से घिरा देख प्रफुल चंद चाकी ने खुद को गोली मार ली जबकि खुदीराम पकड़े गए।
खुदीराम बोस पर हत्या का मुकदमा चला। उन्होंने अपने बयान में स्वीकार किया कि उन्होंने तो किंग्सफर्ड को मारने का प्रयास किया था। लेकिन, इस बात पर बेहद अफसोस है कि निर्दोष कैनेडी और उनकी बेटी गलती से मारे गए। यह मुकदमा केवल पांच दिन चला। 8 जून, 1908 को उन्हें अदालत में पेश किया गया और 13 जून को उन्हें मौत की सजा सुनाई गई। 11 अगस्त, 1908 को उन्हें फांसी पर चढ़ा दिया गया।
फैसला सुनकर मुस्कुराए खुदीराम...
जब जज ने फैसला पढ़कर सुनाया तो खुदीराम बोस मुस्कुरा उठे। जज को लगा कि खुदीराम सजा को समझ नहीं पाए हैं, इसलिए वे मुस्कुरा रहे हैं। जज ने पूछा कि क्या तुम्हें सजा के बारे में पूरी बात समझ आ गई है। इस पर बोस ने दृढ़ता से जज को ऐसा जवाब दिया जिसे सुनकर जज भी स्तब्ध रह गया। उन्होंने कहा कि न सिर्फ उनको फैसला पूरी तरह समझ में आ गया है, बल्कि समय मिला तो वह जज को बम बनाना भी सिखा देंगे।
‘खुदीराम धोती’
शहादत के बाद खुदीराम इतने लोकप्रिय हो गए कि बंगाल के जुलाहे एक खास किस्म की धोती बुनने लगे, जिसकी किनारी पर ‘खुदीराम’ लिखा रहता था।
दरअसल, खुदीराम को जब फांसी की सजा दी जानी थी वह हंसते हुए फांसी के फंदे की तरफ चले। नई धोती पहनकर वह ऐसे मुस्कुरा रहे थे मानो फांसी की सजा नहीं कोई महोत्सव मनाने जा रहे हों। खुदीराम को फांसी दिये जाने के बाद बंगाल में चारों ओर बगावत के सुर उठने लगे। स्कूल कालेजों में पढ़ने वाले युवा इन धोतियों को पहनकर सीना तानकर स्वाधीनता की राह पर चल निकले।