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दनकौर में घटा है अनीमिया का ग्राफ

लाला लाजपत राय कन्या इंटर कॉलेज, दनकौर की इमारत यूं तो खासी कमजोर दिखाई दे रही थी, लेकिन इसमें पढ़ने वाली लड़कियों और इस स्कूल को चलाने वाली प्रिसिंपल के इरादे काफी मजबूत दिखे। बेहद कम सुविधाओं वाले इस सरकारी सहायता प्राप्त स्कूल में पहली से बारहवीं कक्षा तक लड़कियां अच्छी तादाद में पढ़ रही हैं। ये लड़कियां मध्यम और पिछड़े तबके की हैं और अच्छी बात ये है कि हिंदु और मुसलमान दोनों हैं।
दनकौर में घटा है अनीमिया का ग्राफ

करीब 67 गांवों को मिलाकर बने गौतम बुद्ध नगर के जिले का एक खंड है दनकौर। यहां सबसे ज्यादा आबादी है अनुसूचित जाति की और फिर उसके बाद मुसलमानों की। लेकिन, शिक्षा और स्वास्थ्य के लिहाज से ये खंड जिले के अन्य खंडों से बेहतर है। यहां के स्कूलों में दोनों ही जाति के बच्चे पढ़ने में दिलचस्पी रखते हैं। लाला लाजपत राय कन्या इंटर कॉलेज, दनकौर की प्रिसिंपल डॉक्टर मिथिलेश गौतम बताती है “अक्सर लड़कियों को घर में काम-काज और अन्य जिम्मेदारियों के लिए आए दिन घर बैठा दिया जाता था, लेकिन अब खुद लड़कियां हमारे पास आकर हमें ये परेशानी बताती हैं और हम उनके अभिभावकों से बात करते हैं।“ उन्होंने बताया कि जब 2010 में उन्हें यहां काम करने को मिला तो स्कूल की हालत बेहद खराब थी। इमारत जो खुद के सदियों पुरानी होने का सुबूत दे रही थी उसमें सिर्फ एक शौचालय था। डॉक्टर गौतम की खासी कोशिशों के बाद इस स्कूल में कुछ सुधार मुमकिन हो सका। खंड के स्कूलों की ये हालत कि दिन में भी इंवर्टर के बिना कक्षा में पढ़ा पाना मुश्किल काम है। पूरे इलाके में बिजली की सप्लाई बेहद खराब है। गर्मियों में बिना पंखे के यहां के बच्चों को पढ़ना पड़ता है। हालांकि, तकरीबन सभी स्कूल प्रशासन ने बच्चों की बेहतर तरीके से पढ़ाई हो इसके लिए कुछ न कुछ विकल्प ढूंढ लिया है, लेकिन सरकार को अब भी इस दिशा में काफी काम करना बाकी है।  

2013 में इस स्कूल में पहली बार ऑयरन और फोलिक एसिड आना शुरू हुआ और बस इसका शुरू क्या होना था कि किशोरियों में बढ़ता अनीमिया कुछ थमने लगा। डॉक्टर गौतम ने बताया, “अभी हाल ही में (जनवरी, 2016) जो स्कूल में स्वास्थ्य चेक अप हुआ उसमें स्कूल की 60 फीसदी लड़कियां अनीमिक पाई गई। ये आकंड़ा हालांकि पहले से बहुत ज्यादा घटा है।“ इन्होंने स्कूल में एक टीचर को इस काम के लिए नियुक्त किया है जो लड़कियों को गोलियों के अलावा उन्हें कब, कैसे खाया जाए ये सब भी बताती हैं और जरूरत पड़ने पर उनके अभिभावकों को भी समझाती हैं। ये बात भी अच्छी लगी कि यहां अभिभावकों को ऑयरन की गोलियों से कोई परेशानी नहीं है और न ही वे इसके खिलाफ हैं।

जिस दिन से ये प्रोग्राम स्कूल में शुरू हुआ है तब से फिलहाल प्रिंसिपल के मुताबिक लड़कियों या अभिभावको की तरफ से कोई शिकायत नहीं आई है। और अगर थोड़ी-बहुत आती भी है तो ये उसे सुलझा देती है। शुरू-शुरू में तो इन्हें ये डर था कि मुस्लिम समुदाय की लड़कियां शायद उनको सहयोग न करे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ और सबने इसे हाथोंहाथ लिया। उन्होंने बताया कि ये ऑयरन और फोलिक एसिड की गोलियां लगातार लेने का ही नतीजा है कि साल-दर-साल स्कूल में अनेमिक लड़कियों का ग्राफ घटा है। लेकिन ये आंकड़ा सिर्फ इस स्कूल में ही नहीं बल्कि पूरे खंड में घटा है। जहां कुछ साल पहले खंड में अनेमिक किशारियों का आंकड़ा अच्छा खासा था जो अब घटकर 46 फीसदी तक आ गई है।

प्रिंसिपल डॉक्टर गौतम ने बताया कि ये गोलियां इनके स्कूल में छठी से बारहवीं कक्षा तक की किशोरियों को दी जा रही हैं। यानी इस तरह 500 लड़कियां स्कूल के जरिए सरकारी सहायता ले रही है। अब यहां दिक्कत ये आती है कि जिस समय इन लड़कियों की शरीर और दिमाग विकसित हो रहा होता है उसी दौरान उनकी शादी की चिंता घर के लोगों को परेशान करने लगती है। ऐसे में खासकर इस आयु वर्ग की लड़कियों के ड्राप आउट केस बढ़ जाते हैं। इस आयु की कुल 500 लड़कियों में तकरीबन 150 लड़कियां मुस्लिम परिवार की हैं, जिनका 11वीं कक्षा तक पहुंचते-पहुंचते स्कूल छूटना शुरू हो जाता है। अब इन हालातों में इन लड़कियों के ऑयरन इनटेक का क्या होता है इस बारे में कहना मुश्किल है। हालांकि, प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र (जहां अच्छी खासी चहलकदमी थी) से खंड के हर स्कूल को ऑयरन और फोलिक एसिड की गोलियों की अच्छी सप्लाई है, जो स्कूलों और ड्रप आउट्स सबके लिए है, लेकिन ये वाकई उन तक पहुंच पाती है ये जानना जरूरी है।

 

  • पत्रकार राष्ट्रीय प्रतिष्ठान के शोधकर्ता हैं।

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