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प्रथम दृष्टिः कश्मीर की आवाज

पहलगाम हमले के बाद देश में पाकिस्तान के विरुद्ध ‘निर्णायक’ जंग लड़ने की मांग उठी है, ताकि आतंकवाद को...
प्रथम दृष्टिः कश्मीर की आवाज

पहलगाम हमले के बाद देश में पाकिस्तान के विरुद्ध ‘निर्णायक’ जंग लड़ने की मांग उठी है, ताकि आतंकवाद को जड़ से खत्म किया जा सके, लेकिन युद्ध कभी भी किसी मसले के समाधान का बेहतर विकल्प नहीं रहा है। आज के दौर में जंग सरहदों से इतर अन्य मोर्चों पर भी लड़ी जा सकती है

पहलगाम में बीते 22 अप्रैल को 26 लोगों की नृशंस हत्या से दो बातें फिर साफ हो जाती हैं। पहला, कश्मीर में आतंकवाद के जरिए भारत के सब्र का इम्तिहान अभी भी लिया जा रहा है। दूसरा, पाकिस्तान से दहशतगर्दों का समर्थन बदस्तूर जारी है। यह घटना जम्मू-कश्मीर में प्रजातांत्रिक तरीके से संपन्न हुए विधानसभा चुनावों के चंद महीनों बाद हुई है। पिछले साल चुनावों में कश्मीर के लोगों ने बढ़चढ़ कर हिस्सा लेकर दुनिया को यह संदेश दिया कि वे भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था के तहत अमन-चैन के साथ अपनी और प्रदेश की प्रगति चाहते हैं। अनुच्छेद 370 के निरस्त होने और राष्ट्रपति शासन के लंबे अंतराल के बाद विधानसभा चुनाव कश्मीर के सियासी इतिहास की अहम घटना थी, जिस पर पूरे विश्व की नजर थी। उस चुनाव में राज्य में खासकर वादी में स्थित मतदान केंद्रों के सामने लंबी कतारों से यह स्पष्ट हो गया था कि आम कश्मीरी मतदाता हिंसा के दौर के अंत की उम्मीद लिए एक नई शुरुआत करना चाहता है। शायद यही सीमा पार बैठे दहशतगर्दों के आकाओं को नागवार गुजरा हो, जो वर्षों से कश्मीर में एक के बाद एक आतंकवादी घटनाओं को अंजाम देकर वहां आम लोगों के जीवन को बेपटरी करने की कोशिश करते रहे हैं।

यह भी गौरतलब है कि पिछले चुनाव के पूर्व तीन-चार दशकों में कश्मीर में जितने भी चुनाव हुए, उस दौरान अलगाववादियों ने लोगों के लिए न सिर्फ चुनाव बहिष्कार करने का फरमान जारी किया, बल्कि भय का वातावरण बनाने के लिए हिंसा का भी सहारा लिया और अपने मंसूबों में कुछ हद तक सफल भी दिखे। पहले के चुनावों में सुरक्षा के व्यापक प्रबंध होने के बावजूद मतदान प्रतिशत बहुत कम दर्ज किया गया। उन चुनावों के आंकड़ों को अक्सर भारत विरोधी शक्तियों अंतरराष्ट्रीय मंचों पर यह कहकर पेश करती थीं कि कश्मीर की जनता की भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था में आस्था नहीं है। इस लिहाज से पिछले चुनावों में वहां की अवाम में केंद्र सरकार के अनुच्छेद 370 निरस्त करने या पूर्ण राज्य का दर्जा हटाए जाने को लेकर जो भी राय थी, उसका इजहार उन्होंने चुनावी व्यवस्था के तहत किया। जाहिर है, अलगाववादियों और दहशतगर्दों को शह देने वालों को यह कतई स्वीकार नहीं हो सकता।

पाकिस्तानी नेताओं की मजबूरी रही है कि वे कश्मीर मुद्दे के बगैर अपनी सियासी रोटियां नहीं सेंक सकते। वहां के किसी प्रधानमंत्री के लिए मुमकिन नहीं है कि कश्मीर मसले का समाधान शांतिपूर्ण ढंग से करने की सोच भी सकें। जिसने इस दिशा में छोटी पहल भी की, उसकी हत्या हो गई या निर्वासित होकर विदेश में शेष जीवन बिताना पड़ा। इसका कारण यह है कि वहां संसद के बजाय फौज का वर्चस्व है।

भारत और पाकिस्तान की सियासत में यही मूलभूत फर्क है। भारत में संसद सर्वोच्च है, पाकिस्तान में फौज की ताकत सबसे बड़ी। यही वजह है कि आज की परिस्थिति में दोनों देशों के बीच किसी भी मसले पर सार्थक संवाद होना नामुमकिन नहीं, तो मुश्किल जरूर लगता है। पाकिस्तान में सत्ता की बागडोर किसी के भी हाथ में हो, कश्मीर उसके एजेंडे में ऊपर होता है, भले ही अब अमेरिका या किसी अन्य सुपर पावर के लिए नई वैश्विक अर्थव्यवस्था में भारत की अहमियत पाकिस्तान से कई गुना ज्यादा हो।

पहलगाम हमले के बाद देश के कई कोने में पाकिस्तान के विरुद्ध ‘निर्णायक’ जंग लड़ने की मांग उठी है, ताकि वहां से पोषित आतंकवाद को जड़ से खत्म किया जा सके, लेकिन युद्ध कभी भी किसी मसले के समाधान का बेहतर विकल्प नहीं रहा है। आज के दौर में जंग सरहदों से इतर अन्य मोर्चों पर भी लड़ी जा सकती है। नई शताब्दी में भारत ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आर्थिक क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति की है, जिसके कारण देश का शुमार विश्व के चंद शक्तिशाली मुल्कों में किया जाता है। भारत की तुलना में पाकिस्तान हर क्षेत्र में बहुत पीछे छूट चुका है। भारी कर्ज में डूबे रहने के कारण उसकी आर्थिक स्थिति पिछले कुछ वर्षों में बद से बदतर होती गई है। विडंबना यह है कि इसके बावजूद वहां के हुक्मरान या फौजी हुकूमत कश्मीर के मुददे पर वास्तविकता स्वीकार करने को तैयार नहीं। मजहब के नाम पर वे इस मुगालते में हैं कि कश्मीर की अवाम उनके समर्थन में है। उन्हें गौर करना चाहिए कि पहलगाम हमले के बाद पूरे कश्मीर में आतंकवाद के खिलाफ जैसी आवाज बुलंद हुई, वह पहले कभी नहीं सुनी गई थी।  

आज पाकिस्तान के हुक्मरानों के लिए यह लाजिमी है कि वे गौर करें कि वे सारे संसाधन और ऊर्जा कश्मीर मसले को येन-केन-प्रकारेण अंतरराष्ट्रीय पटल पर जिंदा रखने में खर्च करें या देश की आर्थिक उन्नति के लिए। उन्हें यह भी समझना होगा कि आज के दौर में भारत से जंग करने की उन्हें ऐसी कीमत चुकानी पड़ सकती है, जिससे उबरना लंबे समय तक शायद उनके लिए मुमकिन न हो।

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