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हथियारों के दलालों का वैश्विक जाल

अगस्ता वेस्टलैंड वीवीआईपी हेलीकॉप्टर खरीद में कथित दलाली का मामला दुनिया भर में फैले सैन्य बाजार का एक तुच्छ प्रमाण है। शक्तिशाली देशों की 'हथियार लॉबी’ कितनी शक्तिशाली है, इसका गुमान तक आम आदमी को नहीं हो सकता।
हथियारों के दलालों का वैश्विक जाल

 अमेरिका में यह लॉबी राष्ट्रपति चुनने में विरोधियों को खुलकर फंड देती है। जीतने पर संबंधित राष्ट्रपति न केवल वहां की सैन्य सामग्री बनाने वाली कंपनियों को नए रक्षा ठेके देने में मदद करते हैं, बल्कि विश्व भर में उनके हथियारों को बेचने में विदेशी सरकारों के सामने एक 'सेल्समैन’ की तरह लॉबिंग भी करते हैं। यूरोप तथा अन्य हथियार बनाने वाले देशों के शीर्ष नेता भी आधिकारिक वार्ता के दौरान लॉबिंग करते हैं।

सैन्य सामग्री बनाने वाली कंपनियां नए 'विवादित जोन’ को पैदा करने में तथा उग्रवादी संगठनों को हथियार मुहैया करवाने में अपनी खुफिया एजेंसियों की मदद करते हैं। अमेरिका की सीआईए इस मामले में बेहद बदनाम है। मैं 1972 से पत्रकारिता में हूं और तबसे अब तक वही गिने-चुने रक्षा दलालों के नाम हैं। कुछ बहुत चर्चित हैं, जैसे नंदा परिवार, चौधरी ब्रदर्स, सहानी इत्यादि। कुछ चुपचाप काम करते हैं। इन गिने-चुने रक्षा सौदागरों का एक समूह है जिसमें नया आदमी घुस पाने में असमर्थ है। इन रक्षा एजेंटों की कंपनियों में पूर्व फौजी, वायु तथा नौ सेना के उच्च पदोंं पर रहे अधिकारी नौकरी करते हैं। इनका केवल एक काम है कि अपने जूनियर रहे अफसरों तथा अन्य संपर्कों के जरिये हथियार खरीद की लॉबिंग करें।

नंदा परिवार के मुखिया एक समय भारतीय नौ सेना के चीफ थे। अवकाश प्राप्त करने के बाद उन्होंने तथा उनके नौ सेना में रहे पुत्र ने विदेशी हथियारों, चाहे वह जहाज, पनडुब्बी, लड़ाकू विमान, तोपखाना हो या अन्य किसी प्रकार की सैन्य सामग्री, की खरीद में एजेंट का काम शुरू कर दिया। एक दशक पहले 'कमांडर’ नंदा ने (यह वही हैं जिनका बेटा दिल्ली के बीएमडब्‍ल्यू सडक़ दुर्घटना में गोल्फ लिंक के पास देर रात कुछ मजदूरोंं को कुचल कर मारने पर पकड़ा गया था) उत्तर प्रदेश से राज्यसभा में आने की कोशिश की मगर उन्होंने अंतिम समय में प्रयास छोड़ दिया था। तब सत्ता के गलियारे में ताकतवर नेता रहे अमर सिंह ने उन्हें नामांकन पत्र भरने के लिए आते समय थप्पड़ जड़ दिया था।

रक्षा सौदागरों के अपने 'सेफ गेस्ट हाउस’ तथा फार्म हाउस हैं जहां वह अपने 'संपर्कों’ को ऐशो-आराम की हर चीज उपलब्‍ध करवाते हैं। बताया जाता है कि कुछ की 'सेक्स वीडियो’ भी बनवा ली जाती हैं जो जरूरत पडऩे पर ब्लैकमेल करने के काम आती हैं। अपने सरकारी संपर्कों, जिसमें रक्षा, गृह, विदेश तथा अन्य मंत्रालयों के अधिकारी और फौज के अफसरों को देश-विदेश में घूमने तथा उनके बच्चों की विदेश में पढ़ाई के खर्चों और जरूरत पडऩे पर विदेशों में नागरिकता दिलाने का काम भी यह एजेंट करते हैं।

कुछ देश (जैसे रूस) रक्षा सौदों में सरकार के स्तर पर ही कमीशन लेने-देने की बात लेकर चलते हैं। रक्षा सौदागर अपने विरोधियों द्वारा हथियार बेचने के गोपनीय तकनीकी विवरण लेने की कोशिश करते रहते हैं। यह गोपनीय सामग्री विदेशी सरकारों की खुफिया तथा उच्च सैन्य अधिकारियों तक पहुंचती है। अमेरिका अपने आधुनिक हथियारों की तकनीक को तब तक किसी अन्य देश को नहीं बेचता जब तक उसे यह भरोसा न हो जाए कि यह तकनीक रूस या चीन या कुछ इस्लामिक देशों तक नहीं पहुंच जाएगी। भारत में कुछ रक्षा सौदागर इतने ताकतवर हैं कि वह कभी-कभी फौज, वायु सेना तथा नौ सेना के प्रमुख को हटवाने या बनवाने की ताकत रखते हैं। एक मशहूर किस्सा है पूर्व नौ सेना प्रमुख विष्णु भागवत का। उन्होंने एक किताब लिखी जिसमें खुलासा किया कि कैसे एक बड़े रक्षा दलाल ने उन्हें उनके पद से हटवाने में सफलता हासिल की। यह रक्षा दलाल अपने खास अफसरों को विशेष पदों पर बैठाने का भी प्रयत्न करते हैं।

बोफोर्स तोपों की खरीदी में दलाली कांड के बाद से भारत सरकार कोई भी सैन्य सामग्री खरीदने से पहले विदेशी कंपनी और सरकार से अनुबंध में 'इंटीग्रेटी क्लॉज’ डालती है जिसका मतलब है कि इस डील में कोई 'बिचौलिया’ नहीं होगा और किसी प्रकार का कमीशन ठेका हासिल करने के लिए नहीं दिया गया है और न दिया जाएगा। मगर यह सब कागजी बातें हैं। यह शर्म की बात है कि एक पूर्व वायु सेना प्रमुख एस.पी. त्यागी तथा उनके चचेरे भाइयों के नाम 'बिचौलियों’ के रूप में लिए जा रहे हैं।

रक्षा सौदों में आने वाले समय में भी दलाली नहीं रुकेगी क्योंकि भारत उन शीर्ष 10 देशों में है जो रक्षा के लिए विदेशों से हथियारों की खरीद-फरोख्त में अरबों डॉलर खर्चता है। रक्षा मंत्रालय तथा तीनों फौजों और अर्ध सैनिक बल के कई उच्च अधिकारियों को रिटायरमेंट के बाद दुबारा अच्छा-खासा पैसा कमाने की चाह उन्हें रक्षा सौदागरों की गोद में लाकर बिठा देती है। कोई भी रक्षा सौदा बिलकुल 'साफ-सुथरा’ नहीं होता। कभी भी कोई हथियार, जहाज, तोप सही दामों पर नहीं खरीदी जाती। उसमें मुनाफे का इतना मार्जिन होता है कि दोनों तरफ अच्छे-खासे 'कमीशन’ की गुंजाइश होती है।

कोई भी सौदा अफसरों की सांठगांठ के बिना नहीं हो सकता। आप इन रक्षा सौदागरों की ताकत का अंदाजा इससे लगा सकते हैं कि कुछ वर्ष पहले साउथ ब्लॉक स्थित नौ सेना के 'वार रूम’ से उन्होंने कुछ अफसरों के जरिये पेन-ड्राइव से सीक्रेट फाइलें चुराई। इससे इनकी हिम्मत का पता चलता है। विदेशी हथियार बनाने वाली कंपनियां मीडिया को अपने उत्पाद के बारे में 'अच्छी बातें’ बताकर पद्ब्रिलसिटी तो लेती ही हैं, अपने विरोधी कंपनियों के हथियारों की कमियों और रक्षा मंत्रालय के गोपनीय दस्तावेजों को भी लीक करती हैं। कई किस्से हैं जिसमें मीडिया के कुछ लोग भी इन विदेशी कंपनियों के चक्कर में फंसते हैं और कुछ 'लाभ’ के लिए स्टोरी करते हैं। वीवीआईपी हेलीकॉप्टर सौदे में भी यह आरोप लगा है कि इटली की कंपनी ने मीडिया मैंनेजमेंट के लिए पैसे खर्च किए।

रक्षा सौदे में विदेशी कंपनियां तथा सरकारें विरोधियों के हथियारों के बारे में झूठा प्रोपेगंडा भी करती हैं, ट्रायल के समय उनके हथियारों में कमियां निकलवाने का भरपूर प्रयत्न करती हैं तथा अवसर अनुसार ब्लैकलिस्ट करवाने की भी कोशिश रहती हैं। एक महत्वपूर्ण बात, कोई भी रक्षा सौदा बिना राजनीतिक दखल के नहीं हो सकता। हर सौदा करोड़ों-अरबों डॉलर का होता है और उसको हरी झंडी कैबिनेट की सुरक्षा मामलों की समिति ही देती है। इस समिति की अध्यक्षता प्रधानमंत्री करते हैं। वीवीआईपी हेलीकॉप्टर सौदे में रिश्वत का पैसा कहां-कहां तक पहुंचा इसकी जानकारी पता नहीं मोदी सरकार के दौरान मिल पाएगी या नहीं। मगर यह तय है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा प्रमुख अमित शाह अपने शासन का तीसरा वर्ष राजनीतिक विरोधियों, खासकर कांग्रेस प्रमुख सोनिया गांधी, उनके 'युवराज’ राहुल गांधी तथा अन्य बड़े नेताओं को कोर्ट-कचहरी में उलझाकर, जेल भिजवाने की कोशिश में लगाएंगे ताकि 2019 के चुनावों तक वह ध्वस्त हो जाएं।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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