रक्षा मंत्री ने संवाददाताओं से बातचीत में चीफ के चयन पर उठे विवाद को शांत करने की कोशिश की। उनसे पूछा गया कि क्या सरकार ने वरिष्ठता के सिद्धांत पर अमल छोड़ दिया है? पर्रिकर ने कहा कि वरिष्ठता का सिद्धांत कहां से आया। आर्मी चीफ चुनने के लिए के लिए प्रक्रिया बनी हुई है, जहां सारे कमांडरों को परखा जाता है। हालात के आधार पर फैसला किया जाता है। प्रक्रिया कहीं नहीं कहती है कि वरिष्ठता नियम है।
अगर इस तरह से फैसला होता तो किसी प्रक्रिया की जरूरत नहीं होती,किसी रक्षा मंत्री की जरूरत नहीं होती, कैबिनेट की किसी समिति से मंजूरी की जरूरत नहीं होती। यह कंप्यूटर का काम होता। जन्म की तारीख पर फैसला हो जाता। आखिर क्यों फैसला लेने में 4-5 महीने लगते हैं?
रक्षा मंत्री ने आगे कहा कि मैं यह आश्वस्त कर सकता हूं कि प्रक्रिया के दायरे में आए सारे अधिकारी अच्छे थे और प्रक्रियाओं का पूरी तरह पालन किया गया है। वहीं, तीनों सेनाओं के मामले में सिंगल पॉइंट सलाहकार के तौर पर चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ का पद बनाने के प्रस्ताव पर भी पर्रिकर ने चुप्पी साध ली। हालांकि, सरकार से जुड़े शीर्ष सूत्रों का कहना था कि यह बेहद संवेदनशील विषय है, इसे अमेरिका से कॉपी कर नहीं अपनाया जा सकता है। इन हालात में पश्चिमी सिस्टम में बदलाव कर इन्हें अपनाना होगा।
चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ का तीनों सेना प्रमुखों पर किस तरह का कंट्रोल हो, इस पर विचार विमर्श जारी है। बता दें कि इस बारे में पर्रिकर की ओर से मई 2016 में गठित शेकातकर कमिटी अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंप चुकी है। सूत्रों का कहना है कि इस कमिटी ने भी चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ की वकालत की है, लेकिन पश्चिम की तर्ज पर नहीं बल्कि भारत की जरूरतों के हिसाब से बनाने पर जोर दिया है।
इधर, कमिटी की रिपोर्ट पर रक्षा मंत्री ने कहा कि उन्होंने यह रिपोर्ट नहीं पढ़ी है, लेकिन ऐसे संकेत मिलते हैं कि इससे 10 से 20 हजार करोड़ बचेंगे और सेना की रणनीतिक क्षमता बढ़ाने में इसका इस्तेमाल होगा। मसलन, एनसीसी में सेवारत अधिकारियों की संख्या 25 प्रतिशत की जा सकती है। पूर्व सैनिकों को एनसीसी के लिए तैयार किया जा सकता है। इस तरह एनसीसी में संख्या भी बढ़ाई जा सकती है।