सरकारी आंकड़ों के मुतबिक़ अन्य वर्षों की तुलना में वर्ष 2012 में नक्सली वारदातों में काफी कमी आई, चाहे वो छत्तीसगढ़ हो, झारखण्ड, ओडिशा, बिहार, महाराष्ट्र या फिर आंध्र प्रदेश। साल 2011 में जहां नक्सली वारदातों में 611 लोग मारे गए थे, वहीं 2012 में 409 लोग मारे गए थे जिनमे 113 सुरक्षा बल के जवान और 296 आम नागरिक शामिल हैं। अगर साल 2010 पर नज़र डालें तो हताहत होने वालों की संख्या 1005 थी। लेकिन ग़ौर करने वाली बात ये है कि पिछले दो तीन सालों में हमलों की संख्या में तेजी से बढ़ोतरी हुई है।
सुरक्षा बलों और नक्सलियों के बीच चल रहे संघर्ष में ज्यादा नुकसान आम लोगों का ही हुआ है। आम लोग दोनों पक्ष यानी सुरक्षाबल और नक्सलियों के निशाने पर बने रहते हैं। जहां सुरक्षा बलों पर आरोप लगे हैं कि उन्होंने नक्सली कहकर आम लोगों को निशाना बनाया है, वहीं नक्सलियों पर भी आरोप है कि उन्होंने भी पुलिस का मुखबिर कहकर कई लोगों को मौत के घाट उतारा है।
25 मई, 2013 को छत्तीसगढ़ के सुकमा जिले में कांग्रेस की परिवर्तन यात्रा में हमला कर 27 लोगों की हत्या के बाद केंद्र सरकार यह कह रही थी कि नक्सलवाद देश की सबसे बड़ी समस्या है। कुछ विशेषज्ञ यह कह रहे हैं कि लाल गलियारा में थलसेना और वायुसेना उतार कर नक्सलियों को खत्म कर दिया जाए, वहीं कुछ का मत है कि नक्सलियों के साथ वार्ता करनी चाहिए। यह तर्क है कि आदिवासियों पर अन्याय, अत्याचार और उनके संसाधनों को लूटकर कॉरपोरेट घरानों को सौंपने की वजह से ही यह समस्या दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही है।
भाजपा शासित छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह हर बार कहते हैं कि नक्सल समस्या का अंत कर लिया गया है लेकिन उन्हीं के प्रदेश में 300 से 400 नक्सली समूह में आकर सुरक्षा बलों की हत्या कर देते हैं। ऐसे हमले राज्य सरकार की सुरक्षा और खुफिया खामियों को ही सामने लाते हैं।