Advertisement

छत्तीसगढ़: राज्य बनने के बाद 3200 से ज्यादा मुठभेड़, 1234 जवान शहीद, फिर भी नक्सलियों का सफाया नहीं; कहां हो रही है चूक?

छत्तीसगढ़ के नक्सल प्रभावित बीजापुर में माओवादियों के साथ मुठभेड़ में सुरक्षाबलों के 22 जवानों की मौत...
छत्तीसगढ़: राज्य बनने के बाद 3200 से ज्यादा मुठभेड़, 1234 जवान शहीद, फिर भी नक्सलियों का सफाया नहीं; कहां हो रही है चूक?

छत्तीसगढ़ के नक्सल प्रभावित बीजापुर में माओवादियों के साथ मुठभेड़ में सुरक्षाबलों के 22 जवानों की मौत के बाद एक बार फिर कई तरह के सवाल उठ रहे हैं। अब तक केंद्र अथवा राज्य में कई सरकारें आईं और गईं मगर सुरक्षाबलों और माओवादियों के बीच पिछले करीब 40 सालों से बस्तर के इलाके में संघर्ष जारी है।

राज्य बनने के बाद से छत्तीसगढ़ में 3200 से ज्यादा मुठभेड़ की घटनाएँ हुई हैं। गृह विभाग की एक रिपोर्ट के मुताबिक जनवरी 2001 से मई 2019 तक नक्सली हिंसा में 1002 नक्सली और 1234 सुरक्षाबलों के जवान मारे गये हैं। जबकि 1782 आम नागरिक नक्सली हिंसा के शिकार हुए हैं। हालांकि इस दौरान 3896 माओवादियों ने समर्पण भी किया है।


इतने सालों में नक्सलियों के खिलाफ ऑपरेशन 'ग्रीन हंट' से लेकर ऑपरेशन 'प्रहार' तक आजमाकर देखे जा चुके हैं। मगर मुठभेड़ में सुरक्षाबल के 22 जवानों की मौत ने सरकार के तमाम दावों को बेबुनियाद सिद्ध कर दिया है, जिसमें कहा जा रहा था कि पिछले दो वर्ष में नक्सली कमजोर हुए हैं। हालांकि, अब प्रदेश के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने फिर दोहराया है कि माओवादी सीमित क्षेत्र में सिमटकर रह गये हैं और वे अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं।

अब सवाल उठ रहे हैं कि आखिर सरकार या सरकारी तंत्र कहाँ नाकाम हो रहे हैं?


स्पष्ट नीति का अभाव

विशेषज्ञों का मानना है कि माओवादियों के खिलाफ लड़ाई में सरकारों के पास स्पष्ट प्लान का अभाव है। सिर्फ घटना के बाद उनकी थोड़ी सक्रियता और फिर बयानबाजी दिखाई पड़ती है। उसके बाद चीजें फिर पुराने ढर्रे पर चलने लगती हैं।

उदाहरण के लिए 2018 में जब राज्य में विधानसभा चुनाव होने थे, उस वक्त कांग्रेस पार्टी ने जो 'जन घोषणा पत्र' जारी किया था, उसे 2013 में झीरम घाटी में माओवादी हमले में मारे गये कांग्रेस नेताओं को समर्पित किया गया था। इसके क्रमांक 22 पर लिखा है, "नक्सल समस्या के समाधान के लिए नीति तैयार की जाएगी और वार्ता शुरू करने के लिए गंभीरतापूर्वक प्रयास किए जाएंगे। प्रत्येक नक्सल प्रभावित पंचायत को सामुदायिक विकास कार्यों के लिए एक करोड़ रुपये दिए जायेंगे, जिससे कि विकास के माध्यम से उन्हें मुख्यधारा से जोड़ा जा सके।" चुनाव में कांग्रेस ने बड़ी जीत भी हासिल की। अब इस घोषणा पत्र को लगभग ढाई साल हो गए हैं लेकिन नक्सल समस्या की किसी घोषित नीति का क्रियान्वयन नहीं हो सका। वैसे ही वार्ता शुरू करने की किसी कोशिश का कोई ब्लूप्रिंट अब तक सामने नहीं आया है।


वार्ता के प्रति उदासीनता

एनकाउंटर और आत्मसमर्पण की ख़बरों के बीच-बीच में शांति वार्ता की पेशकश होती रहती है मगर यह भी अंजाम तक नहीं पहुंचती। पिछले माह भी माओवादियों ने सुरक्षाबलों को बस्तर से हटाने, कैंपों को बंद करने और माओवादी नेताओं को रिहा करने की मांग के साथ शांति वार्ता के लिए कहा था। मगर सरकार ने इस प्रस्ताव को यह कहते हुए सिरे से ख़ारिज कर दिया था कि शर्तों के साथ बात नहीं होगी और माओवादी पहले हथियार छोड़ें, फिर बातचीत की बात करें। मुख्यमंत्री भूपेश बघेल भी के मौकों पर बोल चुके हैं कि हमने इन दो साल में उनसे बातचीत नहीं की क्योंकि हमारी पहली शर्त यह कि नक्सली, देश के संविधान पर विश्वास करें और दूसरी वे हथियार छोड़ें, तभी चर्चा होगी। 


भौगोलिक क्षेत्र नक्सलियों के लिए मुफीद

छत्तीसगढ़ के नक्सल प्रभावित दंतेवाड़ा के एसपी अभिषेक पल्लव ने नक्सल समस्या पर बातचीत करते हुए मई 2019 में आउटलुक को विभिन्न चुनौतियों के बारे में विस्तार से बताया था।

देश में वर्तमान में जहां जहां नक्सली समस्या है वहां समान बात यह है कि वह घने जंगलों से घिरा हुआ है। इसी तरह हाल की घटना भी जहां हुई है वह भी घने जंगलों में से एक है। छत्तीसगढ़ के बीजापुर और सुकमा, राज्य के अंतिम छोर पर बसे क्षेत्र हैं और इन्हीं दो जिलों की सीमा पर बसा हुआ है टेकलागुड़ा गांव, जहां शनिवार की दोपहर कई घंटों तक पुलिस और नक्सलियों के बीच मुठभेड़ चलती रही। छत्तीसगढ़ के बस्तर का पूर्वी भाग उड़ीसा से मिलता है दक्षिण पश्चिमी और दक्षिणी भाग क्रमश तेलंगाना और आंध्र प्रदेश से मिलते है। ऐसे में सरकार और पुलिस को इनके खिलाफ अभियान छेड़ने में दिक्कत होती है। एसपी अभिषेक पल्लव के मुताबिक, पुलिस अभियान छेड़ने में सिर्फ राज्य की बाधा नहीं आती बल्कि अलग जिला भी आड़े आते रहता है। वहीं नक्सलियों के लिए यहां का घना जंगल मददगार होता है और वे तीनों राज्यो में मनमाफिक अपना डेरा बदलते रहते हैं। तीन राज्यों की सीमाओं से मिलता है इसलिए नक्सलियों को वारदात को अंजाम देने के बाद भागने में आसानी होती है।


आईईडी ब्लास्ट बड़ी चुनौती

अभिषेक पल्लव का कहना था कि इन क्षेत्रों में नक्सली लगातार आईईडी ब्लास्ट का सहारा ले रहे हैं। ऐसे में पांच किलोमीटर के इलाके में छानबीन के लिए 50 जवान और दो से तीन घंटे का समय चाहिए। दूसरी बात अब आईईडी ब्लास्ट सड़क के इतर मैदानों में भी किए जा रहे हैं। उन्होंने बताया था कि इस स्थिति में यदि कोई व्यक्ति तार लेकर घूम रहा है तो हम उनको नक्सली तो नहीं कह सकते। वह व्यक्ति इसे अपने घरेलू इस्तेमाल में ले जाने की बात कह सकता है। अगर उनको पकड़ते हैं तो हम पर इल्जाम लगाया जाता है कि पुलिस ग्रामीणों को परेशान करती है। इस चीज का नक्सली फायदा उठाते हैं। हालांकि एसपी पल्लव यह भी कहते हैं कि आईईडी ब्लास्ट जैसे हमलों को नाकाम करने की दिशा में कोशिश की जा रही है।

नक्सली उठाते हैं इस चीज का फायदा

अभिषेक पल्लव ने बताया था,  “नक्सली गलती करते हैं तो हम उन्हें गिरफ्तार कर लाते हैं। लेकिन वे तो हमारे निहत्थे पुलिस वालों को भी नहीं छोड़ते।” वे आगे कहते हैं कि इस युद्ध के मैदान में नक्सलियों के लिए कोई कायदा नहीं है। वे किसी को भी मार सकते हैं। लेकिन पुलिस या सुरक्षाबलों को मानवाधिकार का भी ख्याल रखना होता है कि उनकी गोली से कोई बेगुनाह न मारा जाए। ग्रामीण और नक्सलियों में पहचान करना भी यहां हर तरह से चुनौती है। नक्सली इसका भी फायदा उठाते हैं।

नक्सलियों का बड़ा हथियार- गुरिल्ला वार

नक्सल समस्या पर छत्तीसगढ़ सरकार से जुड़े एक बड़े अधिकारी का कहना है कि खासकर बस्तर जैसे इलाकों में नक्सली गुरिल्ला वार कर रहे हैं। महीनों तक वे खामोश रहते हैं और अचानक वक्त मिलते ही घात लगाकर हमला बोल देते हैं। अधिकारी ने आउटलुक को बताया कि यहां पुलिस के सामने हर रोज चुनौती रहती है। लेकिन नक्सली ताक में रहते हैं। जैसे उन्हें कोई मानवीय चूक दिखाई देती वे हमला बोल देते हैं। उनके मुताबिक, सरकार का खुफिया तंत्र पहले के मुकाबले ज्यादा मजबूत जरूर हुआ है लेकिन अभी भी अंदर के इलाकों में दखल बढ़ाने की जरूरत है।

 

 

अब आप हिंदी आउटलुक अपने मोबाइल पर भी पढ़ सकते हैं। डाउनलोड करें आउटलुक हिंदी एप गूगल प्ले स्टोर या एपल स्टोर से
Advertisement
Advertisement
Advertisement
  Close Ad