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आजादी विशेष | मत बोल कि जुबां है बंदिश में तेरी

अभिव्यक्ति की आजादी के लिए यह वर्ष नाटकीय रहा है। यह इंडियाज डॉटर पर सेंसरशिप से लेकर श्रेया सिंघल फैसले के उत्साह और फिर गुपचुप तरीके से इंटरनेट पर पोर्नोग्राफी को ब्लॉक करने की सरकारी कोशिश के बीच झूलता रहा। हालांकि हर घटना ने अलग-अलग नाराजगी पैदा की मगर सच यही है कि ये सभी जुड़ी हुई हैं। ये सभी अभिव्यक्ति की आजादी पर खतरे को दूर रखने वाले संवैधानिक सुरक्षा उपायों में मौजूद खामियों को बताने वाले चेतावनी संकेत हैं।
आजादी विशेष | मत बोल कि जुबां है बंदिश में तेरी

इस वर्ष की घटनाओं को किसी एक खास राजनीतिक दल से जोडऩा गलत होगा। सच यह है कि सत्ता में रहने वाले हर राजनीतिक दल ने सूचना को नियंत्रित करने की कोशिश की है। सूचना या कहें जानकारी लोकतंत्र की प्रमुख कारक है जो जनता को उसके प्रतिनिधियों को जिम्मेदार बनाए रखने की ताकत देती है। आश्चर्य की कोई बात नहीं है कि सरकारें जन संवाद को दबाकर कम जिम्मेदारी के साथ ज्यादा ताकत हथियाने की कोशिश करती रही हैं। भारत में यह पिछली सरकार द्वारा राजनीतिक कार्टूनों पर सेंसरशिप और बड़े इंटरनेट प्लेटफॉर्मों पर अनौपचारिक और गुपचुप तरीके से सामग्री प्रतिबंधित करने के लिए दबाव बनाए जाने की खबरों में दिखा। यह पुरानी और बार-बार आने वाली समस्या है। उदाहरण के लिए जब भी मीडिया सेंसरशिप की चर्चा होती है इंदिरा गांधी की कुख्याति की बात जरूर उठती है।

 

यहां मुख्य सबक यह है कि हालांकि अलग-अलग राजनीतिक दलों और शख्सियतों ने अभिव्यक्ति की आजादी को खतरा पहुंचाने के अपने-अपने खास तरीके तलाशे, मगर इसको मुख्य खतरा अपर्याप्त संवैधानिक उपायों से है। अभिव्यक्ति को अलग-अलग तरह के हमलों से बचाने के लिए हमारे मुक्त अभिव्यक्ति कानून को अपना दायरा बढ़ाने की जरूरत है क्योंकि अभी सूचना के मुक्त प्रवाह को प्रभावित करने के लिए राष्ट्र जिस तरह के 'बिचौलिये तत्वों’ का इस्तेमाल करता है उससे निबटने में यह कानून फिलहाल अक्षम है। ये 'बिचौलिये तत्व’ प्रकाशक, पुस्तक विक्रेता, टीवी चैनल और इंटरनेट सेवा प्रदाता आदि हैं जो कि वक्ता एवं श्रोता के बीच खड़े होते हैं। सामूहिक रूप से ये सभी सूचना के पहरेदार हैं। राष्ट्र किसी वक्ता को सीधे रोके तो भारतीय अभिव्यक्ति की आजादी के नियम उससे प्रभावी तरीके से निपट सकते हैं मगर यदि राष्ट्र इन पहरेदारों के जरिये वक्ता की आवाज को बाधित करे तो नियम इनसे सही तरीके से नहीं निपट सकते।

 

नुकसान की शुरुआत हुई थी रंजीत उदेशी बनाम महाराष्ट्र सरकार के पुराने प्रसिद्ध मामले से जिसे डीएच लॉरेंस के प्रसिद्ध उपन्यास लेडी चैटर्लीज लवर पर अश्लीलता का ठप्पा लगाने के लिए जाना जाता है। यूं तो इस फैसले को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए काले क्षण के रूप में मानते हुए लंबी बहस हुई है, मगर इससे भी ज्यादा बारीक पूरी आलोचना इसी बात पर केंद्रित और झुकी रही कि किसी अभिव्यक्ति की अश्लीलता का क्या पैमाना हो जिससे ज्यादा होने पर वह संवैधानिक संरक्षण की हकदार न रहे। हालांकि इस फैसले ने ऐसा बारीक नुकसान पहुंचाया जिस पर वर्षों तक किसी का ध्यान नहीं गया।

 

यह एक सूचना पहरेदार था-पुस्तक विक्रेता हैप्पी बुक स्टॉल- जो डीएच लॉरेंस की किताबें बेचने के कारण मुकदमे का शिकार हुआ। चूंकि डीएच लॉरेंस पर भारत में मुकदमा नहीं चल पाया इसलिए इस मामले में प्राथमिक वक्ता कभी शामिल ही नहीं हो पाया। अदालत ने फैसला दिया कि भले ही किसी पुस्तक विक्रेता को अपने यहां बिक रही किताब में अश्लील अंश होने का पता न हो, फिर भी उसे अश्लील सामग्री के प्रसार के लिए अपराधी करार दिया जा सकता है। सौभाग्य से यह फैसला आमतौर पर लोगों की नजर से बाहर रह गया। यह अब भी लागू है, जिसका अर्थ है कि कोई व्यक्ति किसी दुकान में जाकर फिफ्टी शेड्स ऑफ ग्रे से लेकर बाल्जाक की किसी विश्व विख्यात किताब तक का इस्तेमाल कर किताब विक्रेता के खिलाफ आपराधिक मामला दर्द करा सकता है। चंद मुकदमों के बाद पुस्तक विक्रेता कारोबार से तौबा कर लेंगे क्योंकि विक्रेता के लिए हर किताब में लिखे एक-एक शब्द को पढक़र यह तय करना संभव नहीं है कि किताब की सामग्री अश्लीलता के हमारे अस्पष्ट पैमाने पर खरी उतरती है या नहीं।

 

भले ही पुस्तक विक्रेता को ज्यादा दखलंदाजी से बक्‍श दिया गया हो मगर प्रेस इतना भाग्यशाली नहीं रहा। उन वर्षों में जब प्रेस जन संचार का प्राथमिक साधन था तब जन संवाद को नियंत्रित करने के लिए प्रेस को नियंत्रित करना अच्छा रास्ता था। यह सिद्धांत इंदिरा गांधी के दौर में बेहतर तरीके से सामने आया और शायद इसलिए उन्होंने प्रेस पर दबाव डालकर यह सुनिश्चित करना चाहा था कि कुछ खास किस्म की सूचनाएं भारत में प्रसारित न हों। वैसे, प्रेस अपनी पहरेदार की भूमिका के दुरुपयोग से अपेक्षाकृत बचा रहा क्योंकि न्यायपालिका ने जन संवाद के लिए इसकी खासियत समझ कर सरकार के दबाव से इसे बचाने के लिए  'प्रेस की स्वतंत्रता’ का सिद्धांत विकसित किया। चूंकि 'प्रेस की स्वतंत्रता’ एक खास माध्यम का रक्षाकवच है, यह अन्य मीडिया मसलन इंटरनेट सेवा प्रदाताओं को सुरक्षा नहीं प्रदान करता। इंटरनेट तथा अन्य डिजिटल मीडिया, जन संचार के प्राथमिक माध्यम के रूप में प्रेस का स्थान तेजी से हथियाते जा रहे हैं। ये माध्यम 'पहरेदारों’ पर बुरी तरह आश्रित हैं, यही कारण है कि ऑनलाइन संचार के परिप्रेक्ष्य में मध्यस्थता उत्तरदायित्व एक नाजुक मामले के रूप में देखा जा रहा है। सूचना के पहरेदार लगातार आक्रमण के शिकार हैं। उडविन की डाक्यूमेंट्री इंडियाज डॉटर  हो या याकूब के वकीलों का साक्षात्कार, नोटिस टीवी चैनलों को ही भेजे गए हैं। इंटरनेट सेवा प्रदाता और वेब आधारित मंच भी किसी सामग्री को प्रतिबंधित करने या हटाने के लिए खुद को भारत सरकार के दबाव तले पाते हैं। ये सारे प्रयास यह सुनिश्चित करने के लिए हैं कि कुछ खास सूचनाएं भारत में प्रसारित न हों। सूचना के पहरेदारों की स्थिति सरकार को यह मौका देती है कि वह बेहद कम जवाबदेही के साथ सूचनाओं पर सेंसर लगा सकें।

 

यदि डीएच लॉरेंस का 21वीं सदी का अवतार एक मेधावी, उदारवादी सोच वाली ब्लॉगर हो तो उसका काम कई तरह के आक्रमणों का शिकार हो सकता है जो इसपर निर्भर करेगा कि वह भारत में रहती है या भारत से बाहर। यदि वह भारत में हो तो उसके खिलाफ राजद्रोह, मानहानि, अश्लीलता, हिंसा को बढ़ावा देने या फिर अदालत की अवमानना के लिए आपराधिक अभियोजन चल सकता है। चूंकि ये सभी अभिव्यक्ति पर गंभीर अंकुश  हैं, अत: ब्लॉगर के संसाधन और समुदाय से मिलने वाला समर्थन शायद उसे अपने केस में बचाव का मौका दे दें। न सिर्फ उसका भी दिन आएगा बल्कि एक ऐसी न्यायिक व्यवस्था से वह रूबरू होगी जिसका वक्ताओं को ऐसे कानून से बचाने का लंबा और समृद्ध इतिहास रहा है जो उसे खामोश करना चाहते हैं। हालांकि अगर ब्लॉगर भारत से बाहर रहती हो या सरकार उसे खामोश करने के लिए पहरेदार का इस्तेमाल करने का फैसला करती है तो वह खुद को ऐसी जगह पाएगी जहां अपील की कोई गुंजाइश नहीं होगी। सरकार इस समय एक ऐसी व्यवस्था का अनुसरण कर रही है जिसके जरिये वह इंटरनेट सेवा प्रदाताओं मसलन एयरटेल और रिलायंस को या फिर वर्डप्रेस जैसे ऑनलाइन प्लेटफॉर्म को कोई सामग्री भारत में प्रतिबंधित करने या हटाने के लिए नोटिस और आदेश भेज सकती है। सरकार के प्रतिबंध आदेश कानूनन गोपनीय होते हैं। इसलिए हमारी मेधावी ब्लॉगर और उसके उत्साही पाठक शायद कभी यह पता नहीं लगा पाएंगे कि उसकी सामग्री एक सरकारी आदेश पर प्रतिबंधित कर दी गई है। इस तरह, ब्लॉगर भारतीय अदालतों में यह तर्क नहीं दे पाएगी कि सरकार ने अभिव्यक्ति की आजादी का हनन किया है।

 

श्रेया सिंघल बनाम भारत सरकार मामले में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले ने स्थिति को थोड़ा शांत किया। अदालत ने जोर दिया कि सरकार को सामग्री ब्लॉक करने और हटाने की वजह बतानी चाहिए। इसमें सरकार के लिए यह भी जरूरी माना गया कि वह न सिर्फ पहरेदार, जिसे यह आदेश मिलता है, से संपर्क करे बल्कि विषय वस्तु या सामग्री के मूल लेखक से भी संपर्क का उचित प्रयास करे जो अपने वक्तव्य का बचाव करने के लिए अधिक इच्छुक हो सकता है। हालांकि इस फैसले को छह महीने से भी कम समय हुआ है, मगर भारत सरकार ने न्यायपालिका की इच्छा का पालन करने का कोई इरादा नहीं दिखाया हालांकि बाद में न्यायपालिका के दबाव में उसे पीछे हटना पड़ा। उसने अपने आदेश में बिना कोई वजह बताए ऑनलाइन पोर्नोग्राफी को ब्लॉक कर दिया है। ऐसी घटनाओं की भी कोई सार्वजनिक रिपोर्ट नहीं है जिनमें सामग्री के लेखक से संपर्क किया गया हो और उसकी बात सुनी गई हो।

 

श्रेया सिंघल मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कुछ सुरक्षा उपाय लाने की कोशिश की है मगर इनकी भी अपनी सीमाएं हैं। वे सूचना प्राप्त करने के लोगों के अधिकार को अनदेखा करते हैं जो भारत के संविधान की धारा 19(1)(ए) के तहत अभिव्यक्ति की आजादी के अधिकार का एक अहम हिस्सा है। यह मायने रखता है क्योंकि अगर सरकार ने न्यूयॉर्क टाइम्स, आर्स टेक्निका या दूसरे देश की किसी और सामग्री को ब्लॉक करने की कोशिश की, तो सामग्री के मूल लेखक में भारत आकर अपनी विषय वस्तु का बचाव करने में दिलचस्पी या संसाधन का अभाव हो सकता है। सूचना की यह क्षति हमारे अधिकारों को बहुत ज्यादा प्रभावित करेगी और हमारे लिए अपने लोकतंत्र में उपयोगी तरीके से हिस्सा लेना मुश्किल हो जाएगा। बहरहाल, हमारे संवैधानिक ढांचे में सूचना के मुक्त प्रवाह के लिए इस बहुत ही गंभीर खतरे से निपटने का कोई तरीका नहीं है।

 

वर्तमान में, हमारे पहरेदारों (टेलीविजन चैनलों और इंटरनेट सर्विस प्रदाताओं) को भारी भरकम लाइसेंस प्राप्त करने होते हैं जिसकी वजह से वे सरकारी दबाव का विरोध करने में हिचकिचाते हैं। हमें मान लेना चाहिए कि इसका महत्वपूर्ण वक्तव्यों और सूचनाओं पर असर पड़ता है। ऐसे कानूनी नियम बनाने की जरूरत है जो सूचना पहरेदारों को सरकारी दबावों से सुरक्षित करें और उन्हें सूचना के मुक्त प्रवाह पर अनुचित नियंत्रण रखने से बचाएं। हमें सूचना के मुक्त प्रवाह पर सरकारी हमलों के खिलाफ डटना है, वहीं न्यायपालिका को सूचना पहरेदारों की अहम भूमिका को पहचानना होगा। अंतर्राष्ट्रीय विद्वानों ने पहरेदारों को 'सबसे कमजोर कड़ी’ कहा है जो राष्ट्र-राज्यों को हमारी अभिव्यक्ति सेंसर करने के साधन प्रदान करते हैं। हमें इस देश में सूचना के प्रवाह को सुरक्षित करने के लिए इस सबसे कमजोर कड़ी को मजबूत बनाना चाहिए।

(लेखिका नेशनल लॉ यूनीवर्सिटी के सेंटर फॉर कम्युनिकेशन गवर्नेंस में शोध निदेशक हैं ) 

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