70 वर्ष बाद 2015 में न्यायमूर्ति मुखर्जी आयोग के कागजात राष्ट्रीय अभिलेखागार के लिए जब जारी किए गए तो इस संदेह को फिर बल मिला कि इस बारे में सच्चाई पूरी तरह बताई नहीं गई है। मुखर्जी आयोग की स्थापना 1999 में नेताजी की कथित 'गुमशुदगी’ की जांच के लिए बनाई गई थी। आयोग के कागजात जारी होने के बाद इस संदेह को भी बल मिला कि 1969 और 1972 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के कार्यालय में नेताजी की मौत के विवाद से संबंधित 'अहम फाइलें’ बिना स्पष्टीकरण के नष्ट कर दी थीं तथा 1948 से 1968 तक यानि 20 वर्ष खुफिया एजेंसियों ने सुभाष चंद्र बोस के भतीजों पर नजर रखी और उनकी चिट्ठियां गुप्तरूप से पढ़ती रहीं।
वाजपेयी सरकार ने क्यों छुपाई नेताजी की फाइलें
गौरतलब है कि दो-दो एनडीए सरकारों ने भी, वाजपेयी की और नरेंद्र मोदी की वर्तमान सरकार ने, भी नेताजी की फाइलें सार्वजनिक करने से लिखित में मना कर दिया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अब इसकी समीक्षा करने का संकेत दे रहे हैं।
जवाहर लाल नेहरू ने 50 के दशक में और इंदिरा गांधी ने 1970 के दशक के आरंभ में नेताजी की मौत या गुमशुदगी की जांच के लिए क्रमश: शाहनवाज खान कमेटी और खोसला कमेटी आयोग का गठन किया था। दोनों इस नतीजे पर पहुंचे कि ताइवान के ताइहोकु में विमान दुर्घटना ने बोस की जान ली थी। लेकिन 1999 में गठित मुखर्जी आयोग के 2005 की रिपोर्ट के इस निष्कर्ष ने हलचल मचा दी कि नेताजी की मौत विमान दुर्घटना में नहीं हुई थी। एनडीए सरकार के दौरान गठित इस आयोग की रिपोर्ट यूपीए सरकार ने 2007 में संसद के पटल पर रखी लेकिन बिना कोई कारण बताए कहा कि वह इस निष्कर्ष से सहमत नहीं है।
वाजपेयी के प्रधानमंत्री कार्यालय में संयुक्त सचिव जरनैल सिंह ने मुखर्जी आयोग में तीन हलफनामे दाखिल किए। पहला नवंबर 2000 में, फिर क्रमश: जुलाई और दिसंबर 2001 में। जुलाई 2001 के हलफनामे में सिंह ने कहा कि कैबिनेट सचिवालय में सिर्फ मूल कैबिनेट दस्तावेज रखे जाते हैं। नष्ट की गई फाइल, सं. 12 (226)/51-पीएम, के कागजात सिर्फ प्रतिलिपियां थे। उन्होंने यह भी कहा कि फाइल सं. 23 (156)/51-पीएम भी नष्ट कर दी गई थी। यह 'सुदूर पूर्व में आजाद हिंद फौज की संपत्तियों के निपटारे’ से संबंधित थी।
सार्वजनिक हुए दस्तावेज यह भी दिखाते हैं कि मुखर्जी आयोग ने संसद में 1978 में तत्कालीन जनता पार्टी के प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई के एक वक्तव्य के आधार के बारे में भी जानना चाहा था। इस वक्तव्य में नेताजी की हवाई दुर्घटना में मौत की पुष्टि करने वाली खोसला आयोग की रिपोर्ट के बारे में देसाई ने सवाल उठाए थे। संसदीय दस्तावेजों के अनुसार देसाई ने 28 अगस्त 1978 को कहा था, 'कुछ अन्य समकालीन सरकारी दस्तावेज उपलब्ध हुए हैं। उन संदेहों और अंतर्विरोधों के आलोक में... सरकार यह मानने में कठिनाई महसूस कर रही है कि पिछले निष्कर्ष निर्णायक हैं।’ लेकिन दिसंबर 2001 के हलफनामे में वाजपेयी के संयुक्त सचिव जरनैल सिंह ने मुखर्जी आयोग को बताया, 'तत्कालीन प्रधानमंत्री दिवंगत मोरारजी देसाई के उपरोक्त वक्तव्य के बारे में यह कार्यालय कोई भी स्पष्टीकरण अथवा व्याख्या देने की स्थिति में नहीं हैं...।’ आयोग ने यह मानने में असमर्थता जाहिर की कि किसी देश का प्रधानमंत्री लोकसभा के सदन में सिर्फ गैर सरकारी व्यक्तियों और अखबारी रपटों के आधार पर कोई वक्तव्य दे सकता है।
हलफनामे इस बात की पुष्टि करते हैं कि वाजपेयी की एनडीए सरकार ने भी नेताजी विवाद से संबंधित कई फाइलें गोपनीय रखीं और उनमें दर्ज बातें जाहिर नही कीं। 'नेताजी की मौत और उनकी भस्म जापान से भारत लाने के बारे में विवादों’ और 'नेताजी सुभाषचंद्र बोस की बेटी अनीता फाफ की पहचान’ को गोपनीय माना गया (नवंबर 2000 का हलफनामा)।
एक अन्य वरिष्ठ नौकरशाह, वाजपेयी के प्रधानमंत्री कार्यालय में एन के सिंह ने भी 16 जनवरी 2001 में एक हलफनामा दाखिल किया। उन्होंने लिखा, 'मैंने इस प्रश्न पर विचार किया है कि दस्तावेजों को सार्वजनिक करना जनहित को नुकसान तो नहीं पहुंचाएगा। यह भी कि इससे मित्र देशों के साथ संबंध तो कहीं नहीं प्रभावित होंगे। मैं संतुष्ट हूं कि दस्तावेजों को जाहिर करने से जनहित को नुकसान पहुंचेगा...।’
हैरत की बात है जिन आठ फाइलों को वाजपेयी सरकार ने जनहित और अंतरराष्ट्रीय संबंधों को नुकसान पहुंचाने वाला माना वे 1980 और 1995 के बीच की हैं। इनके अलावा कुछ अन्य फाइलें भी जनहित के लिए नुकसानदेह मानी गईं: 1993 में तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिमहा राव को गृहमंत्री एस बी चव्हाण के यहां से भेजी गई फाइल, राव के प्रधानसचिव ए एन वर्मा को गृहसचिव के पद्मनाभैया के यहां से भेजी गई फाइल और 1994 में प्रधानमंत्री कार्यालय को गृहसचिव एन एन वोहरा के यहां से भेजी गई फाइल।
क्या बता सकती हैं गोपनीय फाइलें- सरकार जो फाइलें गोपनीय रखना चाहती है, उनकी सूची मुखर्जी आयोग की रिपोर्ट के दो संलग्नकों में दी गई है। इनमें कुछ दिलचस्प सुराग हैं जिनसे संकेत मिलता है कि इन फाइलों में क्या हो सकता है। एन के सिंह और जरनैल सिंह के हलफनामे बताते हैं कि दो फाइलें निम्न चीजों के बारे में हैं :
- नेताजी सुभाषचंद्र बोस की कथित जर्मन पत्नी और बेटी के बारे में संदेह से संबंधित तथ्य।
- नेताजी की मौत और जापान से उनकी भस्म लाने से संबंधित विवाद।
- नेताजी की बेटी अनीता फाफ की पहचान की पुष्टि से संबंधित सवाल।
सरकार क्यों मानती है कि इन फाइलों की बातें जाहिर करने से जनहित और सार्वजनिक व्यवस्था और विदेशी राष्ट्रों से दोस्ताना संबंध प्रभावित होंगे? सीमा सुरक्षा बल के रिटायर्ड प्रमुख प्रकाश सिंह ने चल रहे अनुमानों में से एक को एक ट्वीट के जरिए जाहिर किया। यह कि शायद नेताजी बाद में मरे और एक 'मित्र’ राष्ट्र में। कहते हैं कि यह न्यायमूर्ति मुखर्जी की कथित निजी राय से अलग है। कहते हैं कि मुखर्जी ने निजी बातचीतों में दावा किया था कि नेताजी भारत लौटकर फैजाबाद में गुमनामी बाबा के तौर पर रहे और 1985 में उनकी प्राकृतिक मृत्यु हुई। बहरहाल, इससे यह जवाब नहीं मिलता कि सरकारें खुफिया रिपोर्टों, पत्र व्यवहार और फाइल टिप्पणियों को सार्वजनिक करने से क्यों कतराती रहीं। जहां तक सार्वजनिक व्यवस्था भंग होने का सवाल है, हम यह उच्छृंखल अनुमान ही कर सकते हैं कि फाइलों में जनभावनाएं, खासकर बंगाल में, भडक़ाने वाले ब्यौरे हों जो नेताजी की स्मृति को असम्मानित करने वाले हों।
हालांकि फाइलें सार्वजनिक करने की मांग के जोर पकडऩे से मोदी सरकार उसके पक्ष में झुकने का संकेत देती दिख रही है। शंकालु राजनीतिक परिवेक्षक मानते हैं कि सरकार सभी बातें नहीं, चुनिंदा बातें ही सार्वजनिक करेगी। वह भी 2016 में पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव के ठीक पहले।
फाइलें सार्वजनिक करने के बारे में सरकार का रवैया चाहे जो हो माना जाता है, कि न्यायमूर्ति मुखर्जी ने फाइलें देखी थीं। इसलिए कि प्रधानमंत्री कार्यालय को इस बात से कोई आपत्ति नहीं थी कि माननीय आयोग खुद फाइलें पढक़र संतुष्ट हो कि उन्हें गोपनीय रखने के सरकारी विशेषाधिकार के दावे के पीछे कोई बदनीयती नहीं है।
हालांकि आयोग के कार्यकाल का दायरा वाजपेयी का शासनकाल था, न्यायमूर्ति मुखर्जी मानते थे कि सरकार ने सच्चाई जानने में उन्हें सहयोग नहीं दिया और अहम दस्तावेज उन्हें देखने के लिए मुहैया नहीं कराए।
इंदिरा शासन में फाइलें नष्ट होने के बारे में 'साक्ष्य’
अबतक जो दस्तावेज जाहिर हुए हैं वे यह नहीं सुझाते कि पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने कोई बड़ी भारी साजिश रची थी, जैसा कि एक हिस्से के उन्मादी मीडिया कवरेज में आरोप लगाया गया है। ऐसा कवरेज यह पहला सवाल नहीं उठाता कि इंदिरा गांधी ने बोस विवाद से संबंधित कुछ फाइलें ही क्यों नष्ट कीं और बाकी क्यों नहीं। मीडिया रिपोर्टों के अनुसार विवाद से संबंधित 39 फाइलें सार्वजनिक की जानी बाकी हैं। दूसरा, कुछ फाइलें नष्ट करने के बाद प्रधानमंत्री कार्यालय ने उन्हें नष्ट करने का रिकार्ड क्यों रखा और उन फाइलों में क्या है, इसकी सूची भी क्यों रखी?
नेताजी की मौत की पुष्टि में विलंब
सार्वजनिक किए गए दस्तावेज बताते हैं कि जापान में ब्रिटिश मिशन को विमान दुर्घटना में नेताजी की मौत की पुष्टि में लगभग एक साल लग गया। विमान दुर्घटना के नौ महीने बाद मई 1946 तक गुप्तचर ब्यूरो यह निश्चय करने में असमर्थ था कि नेताजी के रूस में होने की खबरों के बारे में क्या कहे। हालांकि दस्तावेजों के अनुसार अंग्रेजी सरकार उस वर्ष जुलाई तक लगभग निश्चयपूर्वक मानने लग गई थी कि नेताजी की मृत्यु विमान दुर्घटना में वाकई हुई थी।