हाल ही में राजस्थान हाईकोर्ट ने 119 किलोमीटर के सीकर-झुंझुनूं-लुहारू स्टेट हाइवे पर टोल वसूली पर अग्रिम आदेश तक रोक लगा दी है। यह आदेश मुख्य न्यायाधीश सुनील अंबवानी और न्यायाधीश वी.एस. सिराधना की खण्डपीठ ने याचिकाकर्ता यशवर्धन सिंह शेखावत की ओर से दायर याचिका पर सुनवाई करते हुए दिया। हाईकोर्ट ने इस मामले पर टिप्पणी करते हुए कहा कि पीडब्ल्यूडी मंत्री की भूमिका पर भी सवाल खड़े किए हैं। गौरतलब है कि उस समय राजेंद्र राठौड़ राजस्थान के पीडब्ल्यूडी मंत्री थे। राजस्थान के शेखावाटी इलाके का यह मामला टोल के नाम पर चल रहे गोरखधंधे को तो उजागर करता ही है, देश में पब्लिक-प्राईवेट पार्टनरशिप यानी पीपीपी व्यवस्था की खामियों की भी पोल खोलता है।
याचिकाकर्ता यशवर्धन सिंह ने आउटलुक को बताया कि वर्ष 2002 में 119 किलोमीटर लंबे सीकर-झुंझुनूं-लुहारू हाईवे के चौड़ीकरण और सुदृढीकरण के लिए इसे टोल रोड बनाने का फैसला किया गया था। वर्ष 2003 में इस प्रोजेक्ट के लिए सबसे कम 46 करोड़ 17 लाख रुपये की बोली लगाने वाली कंपनी आरसीसीएल इन्फ्रास्ट्रक्चर को ठेका दिया गया। इस कंपनी के निदेशक शुभकरण चौधरी हैं जो फिलहाल भाजपा के विधायक हैं। राज्य सरकार और कंपनी के बीच हुए समझौते के अनुसार, टोल रोड का निर्माण 15 फरवरी 2003 से शुरू होकर दो साल के अंदर पूरा होना था, जबकि टोल वसूली की रियायत अवधि 103 माह 15 दिन यानी 15 फरवरी 2003 से 15 जुलाई 2011 तक तय की गई थी। इस तरह कंपनी को 2003 से 2011 तक हाईवे पर टोल वसूली का ठेका दिया है। याचिकाकर्ता का आरोप है कि जो वसूली 170 करोड़ रुपये पर खत्म हो जानी चाहिए थी, उसे एक करोड़ 70 लाख रुपये की नालियों के अतिरिक्त काम के एवज में 398 करोड़ रुपये तक बढ़ा दिया गया। उनकी शिकायत पर भ्रष्टाचार निरोधक विभाग में भी मामले की जांच आरोपीओ के खिलाफ मुकदमा दर्ज करने की सिफारिश की थी। लेकिन दोबारा जांच करवाने के नाम पर शिकायत को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया।
हैरानी की बात है कि राजस्थान के लोक निर्माण विभाग ने 119 किलोमीटर के हाईवे पर हर 20 किलोमीटर पर एक टोल बूथ लगाने की मंजूरी दी थी, जिसके चलते यह परियोजना शुरू से ही विवादों में आ गई। स्थानीय लोगों के काफी विरोध के बाद छह में से दो टोल बूथ हटाने पर सहमति बनी। लेकिन सड़क निर्माण का ठेका हासिल करने वाली कंपनी ने दो टोल हटाने के निर्णय पर आपत्ति जाहिर करते हुए टोल वसूली की अवधि बढ़ाने की मांग की। इस मांग पर विचार करने के लिए एक हाई पावर कमेटी का गठन किया गया। तीन दिन के ट्रैफिक सर्वे के आधार पर कमेटी ने 29 सितंबर, 2005 को टोल अवधि बढ़ने के संबंध में दो प्रस्ताव रखे। पहला प्रस्ताव था, टोल वसूली की अवधि 3 वर्ष 4 माह यानी 7 नवंबर 2014 तक बढ़ाई जाए। जबकि दूसरे प्रस्ताव के अनुसार टोल वसूली की अवधि एक साल 10 महीना यानी 23 मई, 2013 तक बढ़ानी चाहिए।
1.70 करोड़ की नालियों के नाम पर 200 करोड़ की वसूली?
शेखावत बताते हैं कि 26 दिसंबर 2005 को तत्कालीन सार्वजनिक निर्माण मंत्री राजेंद्र राठौड़ की अध्यक्षता में हुई सशक्त बोर्ड की बैठक में टोल अवधि बढ़ाने के मुद्दे पर निर्णय होना था, लेकिन आश्चर्यजनक रूप से हाई पावर कमेटी की दोनों सिफारिशों पर विचार नहीं किया गया। बल्कि बोर्ड ने झुंझुनूं शहर में टोल रोड के दोनों ओर 1.70 करोड़ रुपये की लागत से नालियों के निर्माण और सड़क के बीचोंबीच थर्मोप्लास्टिक पेंट से लाइन बनवाने जैसे अतिरिक्त कार्यों को जोड़कर टोल वसूली की अवधि 6 वर्ष 7 माह 8 दिन यानी 23 दिसंबर 2017 तक बढ़ा दी। इस तरह शुरू में जो टोल वसूली 2011 तक होने थी, उसे दिसंबर, 2017 तक बढ़ा दिया गया।
याचिका के अनुसार, झुंझुनूं में सड़क किनारे जिन नालियों और सड़क के मध्य पेंट जैसे अतिरिक्त कार्यों के लिए टोल अवधि 2017 तक बढ़ाई गई, उनकी लागत 38 फीसदी चक्रवृद्धि ब्याज के साथ पहले ही टोल अवधि की गणना करते हुए जोड़ी जा चुकी थी। शेखावत का दावा है कि इन नालियों का निर्माण आज तक पूरा नहीं हुआ है। इस बारे में भी कोर्ट में इस बारे में झूठ बोला गया की नाली 2013 के अंत में पूर्ण कर दी गई हैं। बार-बार सूचना के अधिकार के तहत जानकारी मांगे जाने पर भी नालियों के कार्य पूर्णता प्रमाण-पत्र की जानकारी नहीं दी जा गई। यशवर्धन सिंह शेखावत का कहना है कि ठेकेदार कंपनी आरसीसीएल के निदेशक शुभकरण चौधरी और सार्वजनिक निर्माण विभाग के अफसरों की मिलीभगत के चलते महज एक करोड़ 70 लाख रुपये की नालियों के लिए टोल वसूली 6 साल 7 महीने के लिए बढ़ाई गई। यह करीब 250 करोड़ रुपये का घोटाला है, जिसमें तत्कालीन सार्वजनिक निर्माण मंत्री राजेंद्र राठौड़ की भूमिका भी सवालों के घेरे में है।
ठंडे बस्ते में एसीबी की जांच
करीब दो साल पहले यशवर्धन सिंह शेखावत ने इस मामले की शिकायत राज्य के भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो से की थी। मिली जानकारी के अनुसार, भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो की प्रारंभिक जांच में ठेका लेने वाली कंपनी और सार्वजनिक निर्माण विभाग के अधिकारियों के बीच मिलभगत को उजागर करते हुए घपले में लिप्त अधिकारियों के खिलाफ मुकदमा दर्ज कराने मुकदमा दर्ज कराने की सिफारिश की थी।
पीब्डल्यूडी मंत्री की भूमिका पर उठे सवाल
शेखावत ने करीब दो साल पहले उन्होंने सीकर-झुंझुनूं-लुहारू हाईवे पर टोल वसूली के मुद्दे पर राजस्थान हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया। पेचीदा कानूनी लड़ाई के बाद मामले में सुनवाई करते हुए हाई कोर्ट ने सितम्बर 2014 में अंतरिम आदेश दिया कि नाली के एवज में टोल नहीं बढ़ाया जा सकता। और अंतिम फैसला होने तक टोल की समस्त राशि सार्वजनिक निर्माण विभाग द्वारा अलग अकाउंट में जमा करवाई जाए। हाई कोर्ट ने विभाग को यह भी आदेश दिया था कि छह हफ्ते में सशक्त बोर्ड की बैठक कर स्पष्टीकरण दिया जाए कि टोल की अवधि क्यों बढ़ाई गई। मिली जानकारी के अनुसार, बोर्ड की यह बैठक 12 हफ्ते बाद बुलाई गयी तथा उसमे टोल बढ़ाने का कारण बताने के बजाय अचानक टोल की अवधि 15 महीने घटाने की सिफारिशक कर दी गई। जबकि इस सवाल को अनुत्तरित छोड़ दिया कि टोल की अवधि 6 साल 7 महीने बढ़ाने के लिए कौन-सी गणना काम में ली गई?
गौरतलब है कि इसी प्रोजेक्ट के एक भाग में 98 लाख रुपये के अतिरिक्त काम के लिए वर्ष 2004 में टोल वसूली सिर्फ 49 दिवस के लिए बढ़ाई गई (तब मंत्री गुलाबचंद कटारिया थे), जबकि एक करोड़ 70 लाख रुपये के नालियों के निर्माण के लिए टोल अवधि वर्ष 2011 से 2017 तक बढ़ा दी गई? गत 28 जुलाई को राजस्थान हाईकोर्ट ने इस मामले में सुनवाई करते हुए टोल कलेक्शन पर अग्रिम आदेशों तक रोक लगा दी है। हाईकोर्ट ने माना कि दस्तावेजों से ऐसा प्रतीत होता है कि पीडब्ल्यूडी मिनिस्टर के हस्तक्षेप के चलते समझौते को बदला गया और इम्पावर्ड कमेटी की सिफारिशों की अनदेखी मनमाने तरीके से टोल संग्रह छह साल से अधिक समय के लिए बढ़ाया गया।
लागत से 10 गुना ज्यादा टोल वसूली
राजस्थान हाईकोर्ट ने भी इस बात पर हैरानी जाहिर की है कि आम जनता से सड़क निर्माण की लागत से दस गुना ज्यादा टोल वसूला जा रहा है। वर्ष सीकर-लुहारू स्टेट हाईवे के निर्माण का ठेका 46.17 करोड़ रुपये में दिया गया था, उस पर टोल संग्रह 2017 तक बढ़ाकर 398 करोड़ रुपये की कमाई का इंतजाम कर लिया गया। अधिवक्ता अशोक गौड़ ने कहा कि इस हाईवे की लागत वर्ष 2011 में ही पूरी हो चुकी है। फिर भी टोल वसूला जा रहा था।
पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप में बढ़ती धांधलियां
पिछले कई वर्षों से केंद्र और राज्य सरकारें पब्लिक-प्राइेवट पार्टनरशिप के जरिये हाईवे निर्माण पर जोर दे रही हैं। हाईवे से जुड़े मामलों के विशेषज्ञ एसपी सिंह का कहना है कि सरकार प्राइवेट ठेकेदारों को सड़क निर्माण के एवज में टोल वसूली की छूट देती है, लेकिन इन समझौतों की शर्तों और टोल संग्रह में पारदर्शिता की बेहद कमी है। यही वजह है कि देश के कई राज्यों में टोल वसूली को लेकर आंदोलन होते रहते हैं। कई जगह तो सरकार ने ठेकेदारों को सड़क निर्माण पूरा करने से पहले ही टोल वसूली की छूट दे दी है। ऐसी जगहों पर जनता टूटी-फूटी सड़कों पर चलने के बावजूद टोल भरने को मजबूर है। निजी भागदारी में हार्इवे निर्माण के बीओटी जैसे कई आर्थिक मॉडल हैं। जिनके जरिये सरकार सड़क निर्माण की अपनी जिम्मेदारी जनता की कमाई और ठेकेदारों के हवाले छोड़ देती है। इससे न सिर्फ सार्वजनिक निर्माण विभागों में भ्रष्टाचार बढ़ा है बल्कि जगह-जगह टोल वसूली से परिवहन खर्च भी बढ़ गया है।