अविनाश चंचल
काना केवट अब स्कूल नहीं जाने का सोच रहा है। 14 साल का काना बड़वानी, मध्यप्रदेश के छोटा बड़दा गांव का है और सातवीं क्लास में पढ़ता है। उसका गांव भी सरदार सरोवर प्रोजेक्ट में डूब प्रभावित होने वाला है। पिछले दिनों डूब प्रभावित क्षेत्रों के गांव से सरकार ने स्कूल और अन्य सरकारी सुविधाएं हटानी शुरू कर दी। इसी क्रम में काना का स्कूल भी गांव से आठ किलोमीटर दूर अंजड़ शिफ्ट कर दिया गया।
काना कहता है, “पहले गांव में स्कूल था, वहां पानी-बिजली की सुविधा थी। अब स्कूल आना-जाना 16 किलोमीटर हो जाता है। रोज इतना पैदल चलकर हम बच्चे थक जाते हैं। हमसे कहा गया था कि हमें साईकिल दी जायेगी लेकिन वो भी नहीं मिला, न ही आने-जाने के लिये बस का इंतजाम किया गया।”
काना पूछता है, “हमें स्कूल से कुछ पैसे स्कॉलरशिप दिये जाते हैं। लेकिन अगर हम उन पैसों को बस किराये में खर्च कर देंगे तो फिर स्कूल ड्रेस, किताब, कॉपी, कलम कहां से लायेंगे?” अजंड़ में जहां स्कूल शिफ्ट किया गया है वह अस्थायी है। वहां न तो पानी पीने की व्यवस्था है और न ही बिजली की। काना बताता है, “हम बच्चे या तो एक-एक रुपये चंदा करके बीस रुपये का पानी वाला ड्रम लाते हैं या फिर ढ़ाबे पर पानी पीने जाते हैं, जहां अक्सर लोग शराब-सिगरेट पीते रहते हैं।”
यह कहानी सिर्फ काना या उसके गांव की नहीं है। सरकार ने बड़वानी जिले के 65 गांव के लगभग 145 स्कूलों को इसी तरह दूर शिफ्ट कर दिया है। इन गांव से अचानक ही जनवितरण की दुकान, आंगनबाड़ी, स्कूल जैसी सारी सरकारी सुविधाएं हटा ली गयी हैं। यही वजह है कि नर्मदा बचाओ आंदोलन की तरफ से भोपाल में 14 सिंतबर को आयोजित प्रदर्शन में इन गांव के लोगों ने केन्द्र और राज्य सरकार का शव जूलूस निकाला और कई लोगों ने मुंडन भी कराया। इनका कहना था कि अब जब सरकार हमसें सरकारी सुविधाएं छीन रही है तो हमारे लिये यह सरकार भी मर चुकी।
डूबती उम्मीदें
कौथी गांव के ओमप्रकाश पाटिदार 36 बीघे में खेती करते हैं। अभी उनके खेतों में पानी भरने लगा है। वे हर रोज जाकर अपने खेत को देखते हैं, जिसमें मक्के की फसल लगी है और पानी भर रहा है। वे कहते हैं, ‘हमारा हर दिन दुख और चिंता में बीत रहा है’।
जब से प्रधानमंत्री ने सरदार सरोवर प्रोजेक्ट के लोकर्पण की घोषणा की, इलाके में दहशत का माहौल पैदा हो गया। 10 सितंबर से ओंकारेश्वर जलाशय से नर्मदा का पानी, टरबाइन चला कर छोड़कर सरदार सरोवर में भरा जा रहा है। हर रोज नर्मदा का पानी बढ़ने लगा है और लोगों के गांव-खेत डूबने लगे हैं। पानी का स्तर 129.5 तक पहुंच गया है।
सरदार सरोवर प्रोजेक्ट से मध्यप्रदेश के 194 गांव, 40 हजार परिवार और करीब दो लाख लोगों के ऊपर विस्थापन का खतरा मंडरा रहा है। व्यापार, दुकान, मंदिर एक पूरी सभ्यता-संस्कृति और वह जीवन जो हजारों साल में विकसित हुई है, के खत्म होने का खतरा बढ़ गया है। आज भी 214 किमी में फैले डूब क्षेत्र में ही 40 हजार परिवार रह रहे हैं। अदालत के चार-चार फैसलों के बावजूद आजतक इन परिवारों के लिये स्थायी पुनर्वास की उचित व्यवस्था नहीं की जा सकी है। सरकार अस्थायी टीन शेड और अन्य सुविधाएं बनाकर लोगों को विस्थापित करने की कोशिश कर रही है।
राजघाट-चिखल्दा-निरपुर जैसे क्षेत्र टापू बन चुके हैं। इस रिपोर्ट के लिखे जाने तक नर्मदा घाटी में 172 घर पानी में डूब चुके हैं, लेकिन गांव के लोगों ने घर खाली करने से इन्कार कर दिया है। 700 घरों के पास पानी पहुंच चुका है। 120 मंदिर बड़वानी जिले में डूब चुके हैं। 790 मंदिर डूबने की कगार पर हैं।
राष्ट्र और समर्पण
जब 17 सितंबर को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी गुजरात में सरदार सरोवर बांध को राष्ट्र को समर्पित कर रहे थे तो उसी दिन काना केवट के गांव छोटा बड़दा में अलग ही दृश्य था। सुबह के तीन बजे थे। नर्मदा का किनारा। नर्मदा बचाओ आंदोलन के 36 लोग पानी में बैठे थे। सैकड़ों लोग पानी के बाहर घाट पर इधर-उधर लेटे थे। कुछ लोग गीत गा रहे थे। कुछ बीच-बीच में नारे लगा रहे थे। यहां दो दिन से नर्मदा बचाओ आंदोलन के लोग जल सत्याग्रह पर बैठे थे। 17 सिंतबर देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का जन्मदिन भी था। इसी दिन को उन्होंने कथित ‘सबसे बड़ा बांध’ को समर्पित करने के लिए चुना। छोटा बड़दा गांव में जल सत्याग्रह पर बैठे 36 ग्रामीण और उनका साथ दे रहे हजारों ग्रामीण पूछ रहे थे, ‘आपका जन्मदिन, तो हमारा मरणदिन क्यों?’
प्रदर्शन में हिस्सा लेने दूर-दूर से महिलाएं भी आयी हैं। सीताबाई, सुदामाबाई, नन्दू बाई, सुशीला बाई सभी बड़ा बरदा, जिला धार से आयी हैं। सभी खेत मजदूर हैं। अपना काम-धंधा छोड़कर तीन दिन से आंदोलन में हैं। सीताबाई कहती हैं, “पिछले कई साल से भोपाल-दिल्ली हर जगह जा रहे हैं। हम दस-बीस चंदा करके लड़ रहे हैं। अब तो हर रोज पानी बढ़ता ही जा रहा है। चिन्ता में रात-दिन काट रहे हैं। हमें टापू में रहने को मजबूर किया जा रहा है।”
सीताबाई एक नई बात बताती हैं। जो बसाहट सरकार द्वारा उन्हें मिली है, वे आबादी से काफी दूर है और एकदम नए गांव के बीच। वे कहती हैं, “अब नए गांव के लोगों के बीच पहचान बनने में ही सालों लग जायेंगे फिर जाकर लोग मजदूरी देंगे। तब तक क्या खा कर जीवित रह सकेंगे।”
आंकड़ों की उलटबांसी
अकेले बड़वानी जिले के 65 गांव डूब से प्रभावित हैं और कभी भी इन्हें डूबाया जा सकता है। सरकार की 2006 की एक रिपोर्ट कहती है कि इस क्षेत्र में 17346 परिवार रहते हैं। लेकिन वही सरकार फिर 25 मई 2017 को कहती है कि कुल परिवारों की संख्या 5,139 है। आखिर इन दस सालों में बाकी के 12207 परिवार कहां गए? जबकि सामान्यतः परिवारों की संख्या बढ़नी चाहिए थी। नर्मदा बचाओ आंदोलन की माने तो अकेले बड़वानी के इन 65 गांव में कुल 17 हजार परिवार रह रहे है। इनमें से करीब 4 हजार परिवार नये जगह पर रहने के लिये गए हैं, लेकिन बाकी 70 प्रतिशत परिवार अभी भी अपने-अपने गांव में ही रह रहे हैं।
नर्मदा जल विवाद प्राधिकरण के आदेश के अनुसार सभी विस्थापितों को जमीन के बदले जमीन और 60 बाय 90 का प्लॉट दिया जाना था। सुप्रीम कोर्ट ने साल 2000 में आदेश दिया था कि बिना पुनर्वास किये, बांध की ऊंचाई नहीं बढ़नी चाहिए। भूमिहीनों को जीविका के दूसरे साधन देने की भी बात की गयी थी। यह ग़ौरतलब है कि लगभग 60 प्रतिशत लोग भूमिहीन हैं। भूमिहीनों के लिये मछली पालन, बकरी पालन, कुम्हारों की जीविका, किराना दुकान के लिये कर्ज जैसी व्यवस्था सरकार को करनी थी। लेकिन नर्मदा बचाओ आंदोलन के कार्यकर्ता राहूल यादव बताते हैं कि सारा पैसा सरकारी दलाल खा गए। आंदोलन ने 25 गांव में सर्वे किया, जिसके आधार पर 10 करोड़ का घोटाला सामने आया।
निरुत्तर प्रश्न
राहुल आरोप लगाते हैं कि अपात्र लोगों को मुआवजा, प्लॉट, जमीन और अन्य भुगतान कर दिया गया। कई ऐसे लोगों के नाम भी लिस्ट में शामिल हैं जो गांव में हैं ही नहीं,वहीं कुछ मृतकों के नाम भी लाभुकों में शामिल है। नर्मदा बचाओ आंदोलन ने झा कमिशन के सामने इन घोटालों को रखा। कमिशन ने अपनी रिपोर्ट में इस बात का जिक्र किया है।
2005 में कोर्ट ने फिर आदेश दिया कि व्यस्क लड़के को भी जमीन का मुआवजा मिलेगा। लेकिन इसपर भी अमल नहीं किया गया है। नर्मदा बचाओ आंदोलन का आरोप है कि पुनर्वास में घोटाला हुआ है। गुजरात सरकार ने मध्यप्रदेश सरकार को 2300 करोड़ रुपये दिये हैं जिसमें से 1500 करोड़ रुपये का घोटाला हुआ है। नर्मदा विकास प्राधिकरण ने 2008 से 2016 के बीच कहता रहा कि उसके पास जीरो बैलेंस है और सबका पुनर्वास हो गया है। फिर आंदोलन कोर्ट गया। फरवरी 2017 में सुप्रीम कोर्ट ने 681 परिवारों को 60-60 लाख मुआवजा देने को कहा, वहीं 1358 परिवरों को 15-15 लाख देने के लिये बोला गया। इन 681 में से सिर्फ 481 परिवारों को 60 लाख रुपये दिये गए। 1358 में सिर्फ 943 परिवारों को 15 लाख रुपये मिले।
वहीं दूसरी तरफ नर्मदा बचाओ आंदोलन का कहना है कि सिर्फ 681 नहीं बल्की 60 लाख की पात्रता रखने वाले हजारों परिवार हैं, जिसमें अविवाहित महिला पट्टेदार, विधवा का बेटा, नाबालिग पट्टेदार भी शामिल है। जीआरए के आदेश के अनुसार 3 हजार से ज्यादा परिवार हो सकते हैं। वहीं दूसरी तरफ सरकार 1358 परिवारों को 15 लाख देने की बजाय सिर्फ 943 परिवार को मान रही है और कह रही है कि हमारे वकील से गलती हो गयी कोर्ट में बोलने में, असल पात्रता रखने वाले सिर्फ 900 परिवार ही हैं।
सुप्रीम कोर्ट का बहाना लेकर सरकार ने इस साल 31 जुलाई से पहले गांव खाली करने की कोशिश की। इस क्रम में गांव के लोगों को डराया-धमकाया गया। फिर 27 जूलाई से मेधा पाटकर समेत 13 कार्यकर्ता अनशन पर बैठे। यह अनशन 17 दिन तक चला। इसके बाद सरकार को अपने कदम पीछे खींचने पड़े। अनशन के बीच में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने 29 जूलाई को नर्मदा के विस्थापितों के लिये 900 करोड़ के पैकेज की घोषणा की। हालांकि आदेश 2 अगस्त को निकाला गया। घोषणा और आदेश में भारी अंतर होने के आरोप भी लग रहे हैं। 5 जून से 2 अगस्त के बीच राज्य सरकार ने 15 आदेश दिये, सभी आदेशों में अलग-अलग दावे और वादे किये गए। नर्मदा बचाओ आंदोलन का आरोप है कि 900 करोड़ की घोषणा करके 300 करोड़ रुपये उसके विज्ञापन में खर्च कर दिये गए। भोपाल से लेकर इंदौर तक इन घोषणाओं के बैनर-हॉर्डिंग्स लगाये गए।