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ये हैं देश के सबसे बड़े नक्सली हमले, दिल्ली तक हिल गई थी सरकार

छत्‍तीसगढ़ के बीजापुर व सुकमा जिले की सीमा पर मुठभेड़ में नक्‍सलियों ने सुरक्षा बलों के जवानों को...
ये हैं देश के सबसे बड़े नक्सली हमले, दिल्ली तक हिल गई थी सरकार

छत्‍तीसगढ़ के बीजापुर व सुकमा जिले की सीमा पर मुठभेड़ में नक्‍सलियों ने सुरक्षा बलों के जवानों को घेरकर भून डाला। राकेट लांचर और आधुनिक हथियारों से गोलियों की बारिश में 22 जवान शहीद हो गये। घटना ने सरकार को हिला डाला। असम का चुनावी दौरा रद कर गृह मंत्री अमित शाह को दिल्‍ली लौटना पड़ा तो प्रधानमंत्री को दुख जाहिर करना पड़ा। बीच-बीच में इस तरह की घटनाएं सरकारी तंत्र को झकझोरती रहती हैं। हालांकि सरकार नक्‍सली घटनाओं की कमी का का दावा करती रही है। इसी फरवरी में संसद में गृह राज्‍य मंत्री किशन रेड्डी ने कहा कि देश के नक्‍सली हिंसा की घटनाओं में कमी आ रही है। 2018 में नक्‍सली हिंसा की 833 घटनाएं दर्ज हुई थीं जो क्रमश 2019 और 2020 में घटकर 670 और 665 रह गईं। हालांकि छत्‍तीसगढ़ में नक्‍सली हिंसा की घटनाओं में तेजी आई है। यहां 2019 में 22 और 20 में 36 जवानों की जान गई थी।


ऐसा नहीं है कि छत्‍तीसगढ़ में यह सब अचानक हो गया। बीते मार्च महीने में ही आधा दर्जन घटनाओं में सुरक्षा बल के आठ जवान मारे गये और सड़क निर्माण में लगी एक दर्जन गाड़ि‍यों में आग लगा दी गई। झारखण्‍ड के चाईबासा में मार्च महीने में आइईडी ब्‍लास्‍ट में झारखण्‍ड जगुआर के तीन जवान मारे गये। अप्रैल 2019 में छत्‍तीसगढ़ के बस्‍तर में माओवादियों ने बीएसएफ के चार जवानों की हत्‍या कर दी थी। उसी माह दंतेवाड़ा में भाजपा विधायक भीमा मंडावी और चार पुलिसकर्मियों को मार गिराया था तो दो माह बाद गढ़चिरौली में 15 जवानों की हत्‍या कर दी। मार्च 2018 में छत्‍तीसगढ़ के ही सुकमा में सीआरपीएफ के 9 जवान और मई माह में छत्‍तीसगढ़ आर्म्‍ड फोर्स के सात जवान शहीद हो गये थे। 2018 में ही जुलाई महीने में झारखण्‍ड के गढ़वा के छिंजो में बारूदी सुरंग के विस्‍फोट में जगुआर फोर्स के छह जवान शहीद हो गये थे। 2018 में ही आंध्रप्रदेश में विशाखापट्नम टीडीपी विधायक के सर्वेश्‍वर राव और पूर्व विधायक सिवेरी की गोली मारकर माओवादियों ने जान ले ली थी। इसी तरह उग्रवाद प्रभावित राज्‍यों में इनके एक से एक उपद्रव होते रहे हैं। प्रशासन को चुनौती देते रहे हैं।

सरकार एनडीए की हो या यूपीए की खास फर्क नहीं पड़ता। करीब एक दशक पहले 2010 में सुकमा में ही सीआरपीएफ के 76 जवानों को नक्‍सलियों मार गिराया था। उसी समय छत्‍तीसगढ़ के झीरम में 2013 में परिवर्तन यात्रा पर निकली कांग्रेस के वरिष्‍ठ नेता विद्याचरण शुक्‍ल व एक दर्जन नेताओं सहित 25 लोगों को मार गिराया था। उस दौरान भी नक्‍सलियों की धमक छत्‍तीसगढ़ ही नहीं पूरे देश में गूंजी थी। एक दौर में बिहार भी नक्‍सली व जातीय हिंसा की आग में धधकता रहा, राष्‍ट्रीय मीडिया में लहराया रहता था। 1977 में पटना के एक गांव बेलछी में 14 कमजोर वर्ग के लोगों की हत्‍या कर दी गई थी तो बाढ़ से घिरे इस गांव के पी‍ड़‍ितों का हाल जानने इंदिरा गांधी हाथी पर बैठ कर पहुंची थीं।

बिहार का दौर
बिहार में नक्‍सली हिंसा और जातीय हिंसा का घालमेल रहा। काउंटर के लिए अनेक जातीय सेनाएं खड़ी हो गई थीं। दो दशक तक यह आग ज्‍यादा ही धधकती रही। 1987 में औरंगाबाद के दलेलचक बघौरा में पिछड़ी जाति के 52 लोगों की हत्‍या ने देश को हिला दिया था। औरंगाबाद के ही मियांपुर में 35, जहानाबाद के लक्ष्‍मणपुर बाथे 60, जहानाबाद के ही सेनारी में 34, जहानाबाद के नोनही नगवां में 18 जहानाबाद के ही शंकरबिगहा में 22 जहाना के ही नारायणपुर में 11, भोजपुर के दनवार बिहटा 22, भोजपुर के ही बथानीटोला में 22, भोजपुर के ही देव सहियार में 15, खगड़ि‍या के अलौली में 12, पटना के पिपरा में 14 पटना के ही तिस्‍खोरा में 15 लोगों की हत्‍या जैसी बड़ी घटनाएं अखबारों को रंगती रहीं। 2005 में 15 नवंबर की रात एक हजार नक्‍सलियों ने जहानाबाद जेल ब्रेक को अंजाम दे माओवादी अजय कानू समेत साढ़े तीन सौ दियों को भगाया तो पूरी दुनिया में इस नक्‍सली हमले की खबर तैरती रही। बिहार में नीतीश सरकार के आने के बाद जातीय हिंसा के दौर पर विराम सा लग गया।


राष्‍ट्रपति की माफी
गया के बारा में नक्‍सली संगठन एसीसी ने ऊंची जाति के 35 की गला रेतकर हत्‍या कर दी थी 1992 में। प्रणव मुखर्जी ने आरोपियों को मिली फांसी की सजा बदल दी थी। अपनी आत्‍मकथा '' द प्रेसिडेंसियल इयर्स में '' इसकी चर्चा की है कि ऊंची जाति के करीब तीन दर्जन ग्रामीणों की एक नहर किनारे क्रूरता से हत्‍या कर दी गई थी। उनके हाथ बंधे हुए थे। 36 आरोपितों में 13 के खिलाफ चार्जशीट दाखिल की गई थी। दया याचिका स्‍वीकार करते हुए चार दोषियों की फांसी की सजा बदल दी थी क्‍योंकि मैने पाया कि ये हत्‍यारे एक अलग अपवाद स्‍वरूप मनोस्थिति में थे।

जहां जन्‍म वहां दफ्न
सवाल जिंदा है, सिलीगुड़ी से 25 किलोमीटर दूर नेपाल सीमा पर बसे दार्जिलिंग जिला के नक्‍सलबाड़ी गांव में 1967 में जहां से नक्‍सली हिंसा की शुरुआत हुई थी आज वहां इसका कोई नामलेवा नहीं है। वर्ग संघर्ष से जुड़ी चरमपंथी हिंसा की पहली घटना घटी थी। जमींदारों द्वारा मजदूरों, छोटे किसानों के शोषण के खिलाफ सशस्‍त्र आंदोलन के पैरोकार चीनी कम्‍युनिस्‍ट नेता माओत्‍से तुंग की नीतियों से प्रभावित होकर चारू मजूमदार, कानू सन्‍याल और कन्‍हाई चटर्जी ने इस आंदोलन की शुरुआत की थी। उसके बाद से इस तरह के हमलावर नक्‍सली हो गये, उसी नक्‍सलबाड़ी की वजह से। तब के हमलावर चीन के माओत्‍सेतुंग की विचारधारा से प्रभावित थे। वे माओवादी हो गये। मगर नेतृत्‍व के चंद लोगों को छोड़ दें तो आज के दौर में नक्‍सली हिंसा में शामिल लोग माओवाद के म को भी नहीं जानते। सिद्धांत किराने कर आपराधिक गिरोह की तरह सक्रिय हो गये हैं। नक्‍सलवाद ने जहां जन्‍म लिया उस नक्‍सलबाड़ी में नक्‍सली हिंसा की आवाज कब की गायब हो चुकी मगर दो दशक पूर्व अस्तित्‍व में आये छत्‍तीसगढ़, झारखण्‍ड जैसे छोटे-छोटे राज्‍य में सिर उठाने लगे। आज छत्‍तीसगढ़ में नक्‍सल हिंसा की सर्वाधिक घटनाएं हो रही हैं। दूसरे नंबर पर झारखण्‍ड है। 2019 में देश में नक्‍सली हिंसा की 69 प्रतिशत घटनाएं इन्‍हीं दो राज्‍यों में हुई। देश में 670 घटनाओं में 463 छत्‍तीसगढ़ और झारखण्‍ड में हुईं। 2004 में जब आंध्र के पीपुल्‍स वार ग्रुप और बिहार में सक्रिय एमसीसी का विलय हुआ तो भाकपा माओवादी के रूप में नई ताकत का उदय हुआ था। भाकपा माओवादी नया फ्रंट बनाने की योजना पर काम कर रहे हैं। ऐसे में सरकार को अपनी रणनीति पर पुनर्विचार की जरूरत है।

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