देश में तालीम और तमाम तरह के सामाजिक मुद्दों पर काम कर रही जमात-ए-इस्लामी की राष्ट्रीय सचिव आतिया सिद्दकी कहती हैं तालीम, स्वास्थ्य और रोजगार मुसलमान महिलाओं से जुड़े अहम मुद्दे हैं। इनमें वे पिछड़ी हुई हैं। आतिया कहती हैं कि मुसलमान महिलाओं के अधिकारों की चिंता करने वाले इन मुद्दों पर बहस करें, सुझाव दें। उनके अनुसार उनका संगठन गांव-देहात में काम करते हुए देख रहा है कि मुसलमान लड़कियों का स्कूल ड्रॉप आउट फीसद बहुत ज्यादा है। जिसकी वजह है कि लड़कियां प्राइमरी शिक्षा तक गांव के स्कूल में दाखिला लेती हैं लेकिन उसके बाद अगर स्कूल गांव से बाहर है तो उन्हें पढऩे नहीं भेजा जाता। इसके अलावा मुसलमान परिवार को-एजूकेशन व्यवस्था में भी लड़कियों को पढ़ाना पसंद नहीं करते हैं। गांव-देहात और पिछड़े इलाकों में मुसलमान आर्थिक तौर पर इतने संपन्न भी नहीं हैं कि वह गांव के प्राइवेट स्कूल में लड़कियों को पढ़ाएं।
शिक्षा के अधिकार पर काम कर रहे और कई सरकारी कमेटियों के सदस्य रहे डॉ. संजीव राय का कहना है कि देश के स्कूलों से बाहर 60 लाख बच्चों में 9.18 फीसदी मुसलमान बच्चे (लड़कियां-8.52) हैं। हालांकि दूसरे समुदायों के हालात भी बहुत अच्छे नहीं हैं। जनजातीय समुदाय के 8.43 फीसद (लड़कियां-8.85), अनूसूचित जाति के 4.38 (लड़कियां-5.04) और पिछड़े वर्ग 3.27 फीसदी हैं (लड़कियां-4.20)। वर्ष 2013-14 में स्कूलों में दाखिला लेने वाले 98 फीसदी बच्चों में से 41 फीसदी बच्चों ने एलीमेंट्री शिक्षा पूरी होने से पहले स्कूल छोड़ दिया। डॉ. संजीव राय इसकी एक बड़ी वजह बताते हैं कि मजहबी तालीम जरूरी होने के मद्देनजर लड़कियों को मदरसे में जरूर भेजा जाता है लेकिन मदरसे में पढ़ाई जाने वाली उर्दू-अरबी से दुनिया की जानकारियां नहीं मिलतीं । राय के अनुसार संपन्न परिवारों के मुसलमान मजहबी तालीम घर पर दिलवाते हैं, सुबह बच्चों को स्कूल भेजते हैं। लेकिन पिछड़े इलाकों में मदरसे और स्कूल का समय भी एक जैसा है इसलिए परिवार मदरसे में भेजना पसंद करते हैं। राय कहते हैं कि सारी दुनिया में पिछड़ेपन और गरीबी से छुटकारा पाने का एक ही मूलमंत्र है वो है शिक्षा।
हालांकि एजूकेशनल डवलपमेंट इंडेक्स की रिपोर्ट देखें तो साल दर साल मुसलमान लड़कियों में शिक्षा के हालात में सुधार रहे हैं। आतिया भी इस बात से सहमत हैं। राज्यवार देखें तो प्राइमरी शिक्षा में असम में 2001 में 30.92 फीसदी मुसलमान बच्चों ने दाखिला लिया तो 2010 में यह आंकड़ा बढक़र 39.89 फीसदी हो गया। इनमें 50.1 फीसदी लड़कियां हैं। इसी प्रकार उत्तर प्रदेश में 2001 में 18.50, वर्ष 2002 में 9.34, 2003 में 9.59 और 2010 में यह आंकड़ा बढक़र 10.31 फीसदी हो गया। यानी वहां स्थिति सुधर रही है। बंगाल में 2001 में 25.25 फीसदी से 2010 में यह आंकड़ा बढक़र 30.3 फीसदी हो गया। बिहार में 2001 से 2010 के बीच कुछ गिरावट आई है। अहम बात यह है कि हर जगह लड़कियां 50 फीसदी तक हैं।
हालांकि महिलाओं के हुकूक के सिलसिले में इस्लाम मॉर्डन मजहब कहा जा सकता है। इस्लामिक स्कॉलर डॉ. जुनैद हारिस का कहना है कि प्रॉफिट मोहम्मद ने कहा है कि घर में बेटी की पैदाइश रहमत है, जिसके घर बेटी पैदा होगी वह जन्नत का हकदार हो जाएगा। लड़कों के बराबर लड़कियों का पालन-पोषण, बराबर तालीम तमाम बातों से आप जन्नत के हकदार हो जाते हैं। प्रो.हारिस के अनुसार कुरान और हदीस ने लड़की को पिता और शौहर के घर जायदाद का हक दिया है। इस्लाम में लड़का मेहर देता है लेकिन समय के साथ-साथ इस्लाम (भारत में) भी दूसरे समुदायों की बुराईयां लेता गया। यहां तक कि इस्लाम में तलाक को हराम माना गया है और अगर तलाक है भी तो बहुत सारी शर्तों के साथ है। यह देखा जाएगा कि उसे तलाक माना भी जाए या नहीं। लेकिन समय के साथ-साथ भारत में इस्लाम में भी बहुत सी बुराइयां आत्मसात होती गईं।
कौमी राबता काउंसिल लखनऊ के सदर अल्लीमुल्ला खान का कहना है कि लड़कियों की तालीम के मसले पर या तो उन्हें बिल्कुल तालीम से महरूम रखा जाता है या उच्च शिक्षा तक पहुंचने से पहले हटा लिया जाता है। मुसलमान लड़कियों के सिलसिले में बात करें तो मदरसा शिक्षा के जरिये बड़ी तबदीली आई है। वहां उन्हें मजहबी शिक्षा के अलावा मॉडर्न शिक्षा भी दी जा रही है। कई मदरसे कई यूनिवर्सिटी से भी जुड़े हुए हैं। अल्लीमुल्ला खान के अनुसार केवल लड़कियों के स्कूल और कॉलेज और तादाद में खोले जाने चाहिए। वह कहते हैं कि बहुत से लोग उलेमाओं को मुसलमान महिलाओं की बदहाली के लिए जिम्मेदार ठहरा रहे हैं लेकिन मुल्क में अभी तक जो कोशिशें हुई हैं वे उलेमाओं की ही बदौलत हुई हैं। उलेमाओं को उलाहना देने वाले खुद कोई मॉडल पेश करें।
पूरे देश में 22 स्कूल चला रहे दिल्लीवासी मौलाना मोहम्मद रहमानी के अनुसार तलाक का मुद्दा राजनीतिक मुद्दा है। यह सच है कि मुसलमान महिलाओं में तालीम की कमी है। तलाक और हलाला के सिलसिले में मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने जो भ्रांतियां फैलाई हैं उन्हें मुसलमान महिलाएं तभी समझ पाएंगी जब वह पढ़ी-लिखी होंगी। रहमानी का यह भी कहना है कि मुसलमानों में अलग-अलग विचारधारा के लोग हैं। बेशक इस्लाम में तलाक है लेकिन बहुत सारी शर्तों के साथ है। दलीलें हैं। जागरुकता की कमी के चलते इसे गलत तरीके से प्रचारित किया जा रहा है।
उत्तर प्रदेश के सिद्धार्थनगर में मुसलमान लडक़े-लड़कियों के लिए पांच स्कूल चला रहे इरशाद अहमद खान का कहना है कि मुसलमान अपनी बेटियों को पढ़ा देंगे तो तलाक जैसे मसले वे खुद ही हल कर लेंगी। इरशाद का कहना है कि प्राइमरी क्लास तक तो मुसलमान लड़कियां स्कूल आती हैं लेकिन हायर एजूकेशन तक आते-आते स्कूल ड्रॉप आउट रेट बढ़ जाता है। जिसकी मुख्य वजह पर्दा भी है।
कम समय में हालात तेजी से बदलेंगे: आरिफ मोहम्मद खान
मुसलमानों की बड़ी समस्या शिक्षा और रोजगार है। आंकड़े गवाह हैं कि मुस्लिम समुदाय के लडक़े-लड़कियां उच्च शिक्षा में बेहद पिछड़े हुए हैं। इसमें कोई दो राय नहीं है कि महिलाओं की स्थिति ज्यादा खराब है। इसकी बड़ी वजह समुदाय के धार्मिक रहनुमा हैं। भारत में जब वर्ष 1824 में आधुनिक शिक्षा की शुरुआत हुई तो मुस्लिम धर्मगुरुओं ने अंग्रेजी शिक्षा का अर्थ ईसाइयत को अपनाना बताया और इसका खासा विरोध किया। उसी साल सरकार ने जब कोलकाता में एक संस्कृत कॉलेज स्थापित करने की घोषणा की तो राजा राममोहन राय के नेतृत्व में कई हिंदू नेताओं ने मिलकर सरकार को एक ज्ञापन दिया कि हमें संस्कृत कॉलेज की जरूरत नहीं है बल्कि उन लोगों ने ऑञ्चसफोर्ड और कैंब्रीज की तर्ज पर आधुनिक शिक्षा देने वाले कॉलेज की मांग की। वहीं इसके उलट 1835 में मुस्लिम धर्म गुरुओं ने 8000 मदरसा अधिकारियों के हस्ताक्षर वाला एक ज्ञापन सरकार को दिया जिसमें आधुनिक शिक्षा को प्रतिबंधित करने की मांग की गई। उन्होंने दावा किया कि अंग्रेजी में जिस दर्शन और तर्क की शिक्षा दी जाती है वह इस्लाम के खिलाफ है। यह आंकड़े किसी और ने नहीं बल्कि खुद सर सैयद अहमद खान ने केंद्रीय विधानपरिषद के समक्ष दायर अपने शपथपत्र में दिए थे। इन आंकड़ों के आधार पर, उन्होंने दृढ़ता से कहा था कि मुसलमानों ने यूरोपीय विज्ञान और साहित्य से सबसे कम लाभ प्राप्त किया। मौलवी हजरात या धर्मगुरुओं द्वारा आधुनिक शिक्षा का विरोध कभी नहीं थमा। उन्होंने सर सैयद को धर्मच्युत ठहराते और उनका सिर कलम करने के लिए 68 से ज्यादा फतवे जारी किए। मुस्लिम समुदाय में आज जो थोड़ी बहुत आधुनिक शिक्षा पाई जाती है वह मौलवियों के विरोध के बावजूद है और इसका श्रेय सर सैयद अहमद और अन्य दूरदर्शी मुसलमानों को जाता है जिन्होंने मौलवियों के विरोध को अनदेखा करते हुए मुस्लिम बच्चों को शिक्षित करने के लिए हर प्रकार का बलिदान दिया।
आज के दौर में इन मुद्दों को उठाने वाले लोगों की कोई कमी नहीं है। आज आप बेहद उत्साहित महसूस करते हैं जब आप युवा मुस्लिम लड़कियों को पैदल और साइकिल से कॉलेज जाते हुए देखते हैं। खासकर इस तरह के दृश्य उन ग्रामीण इलाकों में विशेष तौर पर सुखद लगते हैं, जहां महज दो दशक पहले तक लड़कियों को घर के बाहर पैर रखने की भी इजाजत नहीं थी। मैं बहुत आशावादी महसूस कर रहा हूं और इन शिक्षित लड़कियों को देखकर मुझे लगता है कि बहुत कम समय में हालात तेजी से बदल जाएंगे। अगर एक लडक़े की शिक्षा एक परिवार का भाग्य बदल देती है, तो लड़कियों की शिक्षा आने वाली पीढय़िों पर बहुत सकारात्मक प्रभाव डालेगी।