Advertisement

जब मैं पाकिस्तान में युद्ध-बंदी था, ऐसा हुआ था सलूक...

50 साल पहले करियप्पा के हंटर विमान को पाकिस्तान के ऊपर गोली मार दी गई थी। यह चार महीनों की आकर्षक कहानी...
जब मैं पाकिस्तान में युद्ध-बंदी था, ऐसा हुआ था सलूक...

50 साल पहले करियप्पा के हंटर विमान को पाकिस्तान के ऊपर गोली मार दी गई थी। यह चार महीनों की आकर्षक कहानी है, जो…

कोडंडेरा ‘नंदा’ करियप्पा

भारत और पाकिस्तान के बीच दूसरे, या इसे तीसरा कहा जा सकता है, युद्ध को अब लगभग तीन सप्ताह होने वाले थे और संघर्ष विराम की कोई बातचीत नहीं हुई थी। हमारे पास वास्तव में स्पष्ट जानकारी नहीं थी कि युद्ध कैसे चल रहा था, या सेना या वायु सेना जमीन या हवा में कैसे लड़ रही थी। तो यह 22 सितंबर 1965 की तारीख थी। मुझे हंटर के चार विमानों का नेतृत्व करने की जिम्मेदारी दी गई। हमने लगभग सुबह साढ़े आठ बजे उड़ान भरी।

हमारा लक्ष्य लाहौर के दक्षिण में कुछ दूरी पर स्थित दुश्मन के बख्तरबंद ठिकाने थे। एक बार प्राथमिक मिशन पूरा होने के बाद, हम दिख सकने वाले किसी भी ‘लक्ष्य’ को निशाना बना सकते थे। इससे ऐसा लगता है कि हमारा मिशन उतना सफल नहीं होने वाला था, जितना कोई चाह सकता है। उड़ान भरने से पहले ग्राउंड क्रू ने अंतिम जांच की, रॉकेट से लैस किए गए और 30 मिमी के गोले को डाला गया। तभी तकनीकी खामी की वजह से हमले से पहले एक लड़ाकू विमान को लौटना पड़ा।

कुछ मिनट तक हमारा मिशन भारतीय क्षेत्र में था, लेकिन हमेशा की तरह हम दुश्मन के विमानों की तलाश में थे। तभी तीसरे विमान के पायलट को अपने विमान में गंभीर गड़बड़ी पता चली और मैंने उसे बेस पर लौटने का आदेश दिया। और इस तरह हम सिर्फ दो बचे!

हालांकि, एक बार पाकिस्तान के हवाई क्षेत्र में घुसने के बाद दुश्मन को खोजने और उसके बख्तरबंद व्यूह को नष्ट करने के सिवा हम कुछ सोच भी नहीं सकते थे। हमने दुश्मन की ज्यादा कुछ हरकत नहीं देखी। कुछ धीमी गति से चलने वाले वाहनों से निकलने वाले धुंओं की रेखाएं थीं। हमने, थोड़ा-बहुत जो देख सकते थे, उस पर हमला किया और फिर लौटने का फैसला किया। लौटते वक्त रास्ते में हमने दुश्मन का लक्ष्य अपनी ओर देखा। उसने हम पर गोलियां चलाकर अपनी जगह बदल ली। हमने जवाबी कार्रवाई की। ऐसा करने के कुछ ही पल के भीतर मेरा विमान जमीनी आग की चपेट में आ गया।

मेरे कॉकपिट में चेतावनी वाली सभी रोशनी जलने लगी। इससे पता चलता है कि कई सिस्टम और मेरे कंट्रोल विफल हो गए थे। मेरे विमान में आग लगी थी। मेरे कॉकपिट से होकर बम का गोला गुजरा और मैंने देखा कि मेरे सिस्टम जाम हो गए हैं। मेरे 'विंग-मैन' ने रेडियो पर कहा कि आग लग गई है और मुझे विमान छोड़ देना चाहिए। मैंने उसकी बात मानी और बाहर निकल गया। जहां तक मुझे याद है कि मेरे जूते उड़ रहे हैं और चंद सेकंड के भीतर मैं अर्ध-लापरवाह स्थिति में जमीन पर पड़ा था। चंद पलों में ही मैं उन सैनिकों से घिरा हुआ था, जो मुझे हाथ बढ़ाने और खड़े होने का आदेश दे रहे थे। मैंने जवाब दिया कि मैं ऐसा नहीं कर सकता, क्योंकि मैं बुरी तरह से चोटिल हूं। सैनिक खाकी वर्दी में थे और किन्हीं वजहों से मुझे लगा कि वे भारतीय हैं। उस समय मैं तोपखाने की आवाज सुन सकता था और उनमें से एक सैनिक ने कहा, “वे तुम्हारी बंदूकें हैं, जो हम पर गोलीबारी कर रही हैं।”

अब मैं एक युद्ध बंदी था!

उस वक्त सुबह के 9 बजकर 4 मिनट दिख रहा था, क्योंकि मेरी घड़ी बंद हो चुकी थी। संभवतः ऐसा जमीन पर गिरने की वजह से हुआ। मुझसे पूछा गया कि मैं कौन हूं और मैंने कहां से उड़ान भरी। मानक प्रक्रियाओं के अनुसार, मैंने तोते की तरह अपना 'नाम, पद और संख्या' बता दिया। तभी मुझसे पूछा गया कि क्या मेरा संबंध जनरल करियप्पा से है। मैं दर्द के कारण बेहोश हो गया, या शायद मैं मूर्छित हो गया। अगली बात मुझे याद है कि मैं एक जीप के पीछे कूड़े पर पड़ा था और एक ब्रिगेडियर पूछताछ कर रहा था।

कुछ प्राथमिक उपचार के बाद मुझे लुलियानी नामक स्थान पर ले जाया गया, जहां कुछ समय के लिए इलाज के इंतजार में मुझे फर्श पर छोड़ दिया गया और फिर जैसे-तैसे अस्पताल पहुंचाया गया। मुझे आगे याद नहीं है। जब मैं आया, तो मैंने खुद को एक अस्पताल के बिस्तर और कष्टदायी पीड़ा में पाया। यह लाहौर का सैन्य अस्पताल था। अगले दिन मुझे ऑपरेशन थियेटर में ले जाया गया और बताया गया कि मेरी चोट कितनी गहरी है।

मैं लगभग एक सप्ताह तक अस्पताल में रहा। उस दौरान पाकिस्तान सेना के प्रमुख जनरल मुसा भी देखने आए। वह यह जानकर मुझे देखने आए कि मैं जनरल (केएम) करियप्पा का बेटा हूं। उन्होंने पूछा कि मुझे किसी चीज की जरूरत तो नहीं? लाहौर से मुझे रावलपिंडी ले जाया गया और वहां अस्पताल में रखा गया। इस दौरान राष्ट्रपति अयूब खान के बेटे से मेरी मुलाकात हुई। अस्पताल में इलाज और भोजन अच्छा था। फिर भी एकांत में होने के कारण मैं अन्य भारतीयों के साथ रहना चाहता था।

ऐसा जल्द हुआ और अचानक एक सुबह मुझे सैन्य अस्पताल (एमएच) से छुट्टी दे दी गई। आंखों पर पट्टी बांधकर जेल की कोठरी में ले जाया गया। यहां मुझे काले रंग के कपड़े और रबर-सोल वाली चप्पलों की एक जोड़ी दी गई थी। अब लगभग मध्य अक्टूबर आ चुका था और सर्दियां शुरू हो रही थीं। फर्नीचर के तौर पर बस एक चारपाई के सिवा कुछ नहीं दी गई थी। मुझे सेना वाले तीन कंबल भी दिए गए। दिन के समय दरवाजे बंद कर दिए जाते थे। मैं बिल्कुल अंधेरे में रहता था और रात में मद्धम रोशनी वाला बिजली का बल्ब जलता था।

यदि मैं शौचालय का उपयोग करना चाहता, तो आंखों पर पट्टी बांधकर मुझे लगभग 50 गज की दूरी पर ले जाया जाता था। वहां संतरी मेरे आने तक प्रतीक्षा करता और फिर मुझे वापस मेरे सेल में ले जाता। यहां एक मेजर ने पहली बार मुझसे पूछताछ की और उस वक्त मैंने वास्तव में पहली बार युद्ध बंदी के रूप में 'अज्ञात डर’ का अनुभव किया था। एकांत में रहने से अधिक भयावह स्थिति और कोई नहीं है। मुझे 'थर्ड डिग्री'  नहीं दिया गया था, लेकिन मुझे बताया गया था कि मेरे पास सभी सवालों के बेहतर जवाब थे, क्योंकि अगर नहीं होता, तो मुझे 'यातना देने' में कोई हिचक नहीं होती!

मुझे तब एहसास हुआ कि मानक रैंक/नाम/संख्या बताने से कोई मदद नहीं मिलेगी और इसलिए मैंने नुकसान न पहुंचाने वाली जानकारी का ‘खुलासा’ किया। यह तीन दिनों तक चला। इस दौरान मुझे सेल में बांध कर रखा गया था। मुझे दिन में दो बार खूब पौष्टिक 'चपातियां और दाल' खिलाई जाती था। सुबह सात बजे और दोपहर तीन बजे मीठी 'लंगर' चाय का मग दिया जाता था। कुछ दिनों बाद मुझे बताया गया कि मुझे मुख्य युद्ध बंदी शिविर में भेजा जाएगा। मुझे पहले रावलपिंडी में एक शिविर में भेजा गया। वहां दो दिनों के लिए फिर से 'एकांत' में रखा गया। यहां मैं एक पाकिस्तानी सेना के जेसीओ से मिला। उसे पता चला कि केएम करियप्पा का बेटा हूं, तो मेरे पास आया और कहा कि उसने सुना है कि मैं सदर कोठी में था (उसका मतलब राष्ट्रपति का घर से था)। मैंने,  निश्चित रूप से, इसका खंडन किया।

यहां से ट्रेन से दर्गई मुख्य युद्ध बंदी ले जाया गया। 38 अन्य भारतीय कैदियों के साथ मिलना मेरे लिए एक महत्वपूर्ण अवसर था। मैं उस समूह में एकमात्र एयरमैन था। मुझे बाद में पता चला कि दूसरों को एक ही परिसर में अलग-अलग बाड़ों में रखा गया था। अगले कुछ दिन साथियों को जानने में निकले। इसके तुरंत बाद मैं अन्य एयरमैन स्क्वाड्रन लीडर सिकंद और पिल्लू काकर और फ्लाइट लेफ्टिनेंट मणि लोवे, लाल सदरंगानी, एमवी सिंह और विजय मायादेव से मिला।

नवंबर के पहले सप्ताह में मणि लोवे और मुझे 'अपने बैग पैक करने' के लिए कहा गया, क्योंकि हम "कहीं" जा रहे थे। आंखों पर पट्टी बांधकर हमें एक वैन में डाल दिया गया और दर्गई से लगभग दो घंटे दक्षिण में एक जगह से दूर ले जाया गया। फिर एक-दूसरे से सटे दो डैंक, ठंड और हवा रहित सेल में डाल दिया गया।

यहां हमसे पूछताछ नहीं की गई। हम सभी जानते थे कि हम एक वायु सेना के अड्डे पर थे, क्योंकि हर शाम और रात के दौरान हरक्यूलिस विमान की आवाज सुनते थे। लगभग दस दिन बाद हम दर्गाई लौट आए।

पहला रेड क्रॉस पार्सल 7 दिसंबर को आया था। एक पैकेट, जिसने हमें रोमांचित किया वह यह था कि फिल्म स्टार आशा पारेख ने हमें सूखे मेवे भेजे थे! अब हमें एक रजाई भी दी गई, जिसके लिए लगभग 60 रुपए दिए गए, जो कैदियों के रूप में हमारा हक था। रेड क्रॉस से 'गुडीज' का मिलना इस बात का संकेत था कि हमारे घर के लोग जानते थे कि हम जीवित हैं!

31 दिसंबर के करीब आने पर हमने नए साल की पूर्व संध्या मनाने के बारे में सोचा। नए साल की पूर्व संध्या दिसंबर 1965 आ गई। तब से अब तक लगभग 50 साल हो गए हैं और मुझे यह भी अच्छी तरह से याद नहीं है कि हमें क्या खाना था। लेकिन मुझे कैंप कमांडेंट के अप्रत्याशित आगमन की याद है। उसने हमें बधाई दी और फिर अविश्वसनीय रूप से हमें कुछ मटन या चिकन दिया था? इसके बाद वह जल्द ही वहां से चला गया।

तभी अचानक 10 जनवरी को हमें कुछ खास जानकारी मिली। हमारी जानकारी का स्रोत स्वीपर था, जो एक हिंदू था। और इसलिए हमारे प्रति सहानुभूति रखता था। उसके काम की तुच्छ और अप्रिय प्रकृति को देखते हुए, इसमें आश्चर्य की बात नहीं थी कि उनके साथ आने वाले गार्ड शौचालय में प्रवेश करने से बचते थे। सिकी ने इसका फायदा उठाया और अप्रिय गंध से बचने के लिए चेहरे को ढक कर उससे बातचीत की। उसने बताया कि कुछ दिनों में एक दर्जी हमारी माप लेने आएगा, लेकिन क्यों इसके प्रति वह आश्वस्त नहीं था। दर्जी आया और कुछ दिनों के भीतर हमें गर्म ट्राउजर और शर्ट वाले कपड़े पहनाए गए। घटनाक्रम तेजी से आगे बढ़ा। इतनी तेजी से कि हमें एहसास ही नहीं हुआ कि हम अपने देश लौटने के लिए तैयार हो रहे हैं!

दरअसल, मैंने सोचा भी नहीं था कि हम 22 जनवरी 1966 को लौटंगे। हमें एक बार फिर से आंखों पर पट्टी बांधकर पेशावर ले जाया गया। यहां हमें एक फोकर एफ-27 में बैठाया गया, जो पाकिस्तानी सीओएएस को लाने के लिए दिल्ली जा रहा था। हमने लगभग 9 बजकर पांच मिनट पर अंतरराष्ट्रीय सीमा को पार किया। लगभग उसी समय जब चार महीने पहले मेरे विमान को गिराया गया था। इस तरह हमारे जीवन की एक कभी न भुला देने वाली अवधि खत्म हुई।

कोडंडेरा करियप्पा भारतीय वायु सेना के एयर मार्शल के रूप में सेवानिवृत्त हुए।

(केसी करियप्पा ने 11 अगस्त 2015 को आउटलुक के लिए एक लेख लिखा था। यह उसी पर आधारित है। )

अब आप हिंदी आउटलुक अपने मोबाइल पर भी पढ़ सकते हैं। डाउनलोड करें आउटलुक हिंदी एप गूगल प्ले स्टोर या एपल स्टोर से
Advertisement
Advertisement
Advertisement
  Close Ad