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आखिर क्यों कुपोषण से जूझ रहा है मध्य भारत का यह आदिवासी समुदाय?

पूजा सिंह मध्य भारत के मंडला और आसपास के इलाके में रहने वाले “परधान” समुदाय के लोग लंबे समय से पोषण...
आखिर क्यों कुपोषण से जूझ रहा है मध्य भारत का यह आदिवासी समुदाय?

पूजा सिंह

मध्य भारत के मंडला और आसपास के इलाके में रहने वाले “परधान” समुदाय के लोग लंबे समय से पोषण की कमी से लोहा ले रहे हैं। अपने पारंपरिक रहन-सहन, खान-पान से स्वस्थ और खुश रहने वाले इस जन-जाति के जन-जीवन पर अब खतरे के बादल घिर गए हैं। हजारों सालों से अपनी पारंपरिक मान्यताओं के आधार पर जीवन-यापन करने वाले परधानों के इस समस्या के मूल में उन्हें पारंपरिक भोजन नहीं मिल पाने को देखा जा रहा है।

दरअसल, किसी भी समुदाय के लोगों के जीवन में उनके खानपान और समूचे अस्तित्त्व पर उनकी पारंपरिक मान्यताओं का जबरदस्त प्रभाव होता है। परधान समुदाय भी इससे अलग नहीं है। गोंड आदिवासी समुदाय की उपजाति ‘परधान’ को ऐसे तो गोंडों से भिन्न नहीं माना जाता। हालांकि ऐसी तमाम लोकोक्तियां और कहावते हैं जो कहती हैं कि दोनों जातियां न केवल साथ जीते और मरते हैं बल्कि मृत्योपरांत भी वे साथ रहते हैं। उनका रहन-सहन, उनके मिथक और इतिहास उनके साथ के गवाह हैं लेकिन फिर भी सामाजिक पदसोपान में उन्हें गोंडों से कमतर दर्जा हासिल है।

पारंपरिक तौर पर परधानों को गोंडों की तुलना में चतुर माना जाता है और वे उनके दरबार में मंत्री, संगीतकार और पुजारी आदि भिन्न-भिन्न भूमिकाओं में रहा करते थे। परधान समुदाय के भीतर भी कई उपजातियां हैं जिनमें राज प्रधान प्रमुख है। माना जाता है कि राज परधान कोई और नहीं बल्कि राज गोंड पुरुष और सामान्य परधान स्त्री की संतान हैं।

पारंपरिक परधान खानपान

गोंडों तथा अन्य कई आदिवासी समुदायों के समान परधान समुदाय के खानपान में भी शाकाहार, मांसाहार और शराब सभी शामिल हैं। परधान समुदाय पर व्यापक अध्ययन करने वाले विद्वान वेरियर एल्विन के मुताबिक परधान समुदाय के भोजन में बीफ, पोर्क, चूहे का मांस आदि शामिल रहे हैं। समुदाय का शाकाहारी भोजन भी कम दिलचस्प नहीं था। उसमें बांस की भाजी, महुए से बनने वाले विभिन्न व्यंजन, कोदो-कुटकी जैसे पारंपरिक अनाज सभी शामिल थे। परंतु एक खास बात यह थी कि यह समुदाय दूसरों का छोड़ा हुआ भोजन नहीं अपनाता था।

आदिवासी समुदाय चूंकि समाज की मुख्य धारा से अलग होते हैं इसलिए उनकी पोषण प्रोफाइलिंग करना न केवल मुश्किल है बल्कि यह आवश्यक भी है। इस बारे में सरकारी आंकड़े आपकी बहुत अधिक मदद नहीं कर सकते हैं। स्वत: सर्वेक्षण और स्वाध्याय ही इसमें मददगार साबित होते हैं।

खानपान और सांस्कृतिकरण

परधानों को गोंड, बैगा तथा अन्य आदिवासियों की तुलना में अधिक आधुनिक माना जाता है। आधुनिक हिंदू समाज के साथ परधान तेजी से संपर्क में आये। उन्होंने शहरों में बसना शुरू किया और उनके खानपान पर भी इस नयी सोहबत का असर देखने को मिला। पारंपरिक मोटे अनाज की जगह गेहूं और चावल जैसे बारीक अनाज ने ले ली। बांस की भाजी और कई अन्य तरह के जंगली साग अब केवल बुजुर्गों की स्मृतियों में ही बचे हैं।

मंडला जिले में परधान समुदाय पर किये दीर्घकालिक अध्ययन में हमें कदम-कदम पर ऐसे परधान मिले जिन्होंने मांसाहार का त्याग कर दिया है क्योंकि उन्हें लगता है कि यह उनके सभ्य और सुसंस्कृत होने की राह में रोड़ा है। बीफ और पोर्क खाने वाले लोग तो वैसे भी समुदाय में अंगुलियों पर गिने जाने लायक तादाद में ही बचे हैं, लोगों से चिकन और मटन तक से परहेज करना शुरू कर दिया है। इसके लिए काफी हद तक परधानों का हिंदूकरण भी जिम्मेदार है। मंडला जिले के बंभनी और बिछिया ब्लॉक में हमें अनेक ऐसे परधान परिवार मिले जो प्रकृति पूजा से दूरी बना चुके हैं और वे हिंदू देवी देवताओं की उपासना करते हैं। शाकाहारी होना भी इसी हिंदूकरण की प्रक्रिया का एक चरण है। हालांकि शहरी इलाकों से अलग दूरदराज गांव अभी इस प्रभाव से बचे हुए हैं।

आपराधिक अतीत का सच!

सन 1931 की जनगणना तक मध्य भारत के कई इलाकों में परधानों को आपराधिक जनजाति के रूप में वर्गीकृत किया गया है। परधानों को मुख्य रूप से पालतू पशुओं की चोरी करने वाला माना जाता था। हालांकि 40 के दशक में प्रकाशित मंडला डिस्ट्रिक्ट गजेटियर में लिखा गया है कि परधान जनजाति का अतीत आपराधिक रहा है। चोरी की घटनाओं में स्त्री-पुरुष दोनों शामिल रहते थे। पुरुष इसमें सक्रिय भूमिका निभाते थे जबकि स्त्रियां जासूसी और निगरानी का काम करती थीं। बहरहाल, इस मुद्दे को कुरेदने का कोई अर्थ नहीं है क्योंकि अब यह जनजाति पूरी तरह खेती और सामान्य रोजगार को अपना चुकी है।

पोषण और बीमारियां

कई ऐसी बीमारियां भी हैं जिनका संबंध पोषण से है। या तो वे पोषण की कमी से पैदा होती हैं या फिर बेहतर पोषण उन्हें दूर रखने में मदद करता है। परधान पारंपरिक तौर पर अच्छी और बुरी शक्तियों में यकीन करते रहे हैं। पूरी आधुनिकता से पहले वे बीमारियों के लिए बुरी शक्तियों को दोषी मानते थे। हालांकि इसके लिए पोषण की कमी तथा अन्य परिस्थितियां उत्तरदायी रहती हैं। मंडला जिले के परधान बहुल इलाकों के अध्ययन में हमने पाया कि परधान समुदाय में सिकलिंग सेल, डायबिटीज, ट्यूबरकुलोसिसस जैसी बीमारियों के मामले बढ़ रहे हैं। समुदाय के बच्चों में पोषण की स्थिति बेहद कमजोर है। परधान समेत तमाम आदिवासी समुदायों को सार्वभौमिक स्वास्थ्य सुविधाओं का पूरा लाभ नहीं मिल पा रहा है। उसमें भी जनजातियों को विशेष प्राथमिकता देने की आवश्यकता है। सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत वितरित होने वाले खाद्यान्न में भी हर जगह गेहूं चावल बांटने की जगह सरकार को स्थानीय खाद्यान्न को शामिल करने पर विचार करना चाहिए।

पारंपरिक खानपान से दूर होने के बावजूद बढ़ती जागरूकता के चलते हाल के कुछ वर्षों में जनजातियों में पोषण को लेकर समझ बढ़ी है लेकिन इसके बावजूद इस बात का साफ संकेत मिलता है कि विभिन्न अन्य जनजातियों की तरह परधान जनजाति में भी स्वास्थ्य और पोषण की स्थिति सुधारने पर गंभीरता से काम किए जाने की आवश्यकता है।

यह काम केवल सरकार द्वारा अन्न उपलब्ध कराने की योजनाओं से नहीं होगा बल्कि इसे समावेशी रूप में अंजाम देना होगा। इस सिलसिले में रोजगार प्रदान करने से लेकर, खानपान को लेकर पूर्वाग्रह दूर करने, जंक फूड के बढ़ते चलन को थामने, पोषण संबंधी बीमारियों को लेकर जागरूकता बढ़ाने जैसे तमाम कदम हैं जिन्हें उठाना होगा।

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