टाटा का मतलब ओके होता था। चाहे नमक हो, स्टील या सॉफ्टवेयर। टाटा ब्रांड में लोगों का ऐसा भरोसा था, जैसे कोई भीतरी ईमानदारी, जिसे आंख मूंद कर लाखों भारतीय गले लगाते हों। इसका बहुत सा श्रेय रतन नवल टाटा को जाता है, जिन्होंने एक विशाल कंपनी के लिए इस ढंग से धंधा करने की राह तैयार की।
रतन टाटा ने जब 1991 में जेआरडी टाटा से कंपनी की कमान ली थी, तब तक टाटा समूह विशालकाय हो चुका था। अगले तीन दशक तक उन्होंने इस समूह को जिस तरह से चलाया, उसे अनजाने बाजारों तक देश के भीतर और बाहर लेकर गए और लगातार राजनीतिक होते गए कारोबारी माहौल में भी इसे प्रासंगिक और नेतृत्वकारी बनाए रखा, वह सब कुछ रतन टाटा के निजी व्यक्तित्व की बदौलत था।
कारोबारी दायरे के भीतर उन्हें विनम्र और संकोची व्यक्ति के रूप में जाना जाता था, जो अपने धनबल का प्रदर्शन करने में दिलचस्पी नहीं रखता। माना जाता था कि वे कंपनी के कर्मचारियों का खयाल रखते हैं, पशु प्रेमी हैं और उनका संकल्प इस्पाती है। कम से कम तीन मौकों पर उन्होंने यह कहा था कि उनके माथे पर बंदूक रखकर कोई उनसे अपनी बात नहीं मनवा सकता।
भारत में भी और देशों की तरह बिना राजनीतिक संरक्षण के विशाल कारोबार खड़ा करना संभव नहीं है। टाटा ने इस मामले में खुद को काफी हद तक तटस्थ बनाए रखा और अपनी शर्तों पर धंधा करते रहे। टाटा नैनो की शायद इकलौती परियोजना थी जब वे राजनीतिक विवाद में आए। उनका सपना दुनिया की सबसे सस्ती कार बनाना था, जिसकी राह में पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी आ गईं। उस वक्त कार के कारखाने के लिए कोलकाता से तीस किलोमीटर दूर सिंगुर में जबरन जमीन कब्जाए जाने के खिलाफ वे विरोध प्रदर्शन कर रही थीं। कुछ लोगों ने तब टाटा के व्यवहार को अहंकारी कहा था, तो कुछ और ने उन्हें अपने सपने के प्रति शिद्दत से जोड़कर देखा।
परियोजना और उसके खिलाफ प्रदर्शन के छह महीने के बाद दिसंबर 2008 में उन्होंने मीडिया से कहा था, ‘‘अगर मुझे लगता कि मैं कुछ गलत कर रहा हूं, तो सबसे पहले मैं खुद ही हट जाता। लेकिन अगर मुझे लगता है कि यह सब किसी दिखावटी सरोकार के चलते किया जा रहा है, तब तो मैं और ज्यादा अड़ जाऊंगा। मैं ऐसा आदमी हूं कि आप मेरे सिर पर बंदूक लगा दीजिए, आपकी मर्जी आप घोड़ा दबाएं या चले जाएं, लेकिन मैं अपना सिर नहीं हिलाने वाला।’’
करीब दो साल बाद जब संयंत्र का काम चाक-चौबंद पुलिस पहरे में पूरा होने वाला था लेकिन प्रदर्शन कम होने का नाम नहीं ले रहे थे, तब रतन टाटा ने अपना बंदूक वाला बयान फिर दोहराया था और सिंगुर से परियोजना को हटाने का ऐलान करते हुए उन्होंने कहा था, ‘‘मेरे खयाल से मिसेज बनर्जी ने घोड़ा दबा दिया है।’’
तब ममता बनर्जी हटने को तैयार नहीं थीं। तृणमूल ने टाटा पर ‘‘माकपा और मुख्यमंत्री के लिए काम करने’’ का आरोप लगाया था। ममता का टाटा के खिलाफ हमला चालू रहा। तीन दिन बाद गुजरात के साणंद में कारखाना ले जाने का ऐलान टाटा ने मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ एक प्रेस वार्ता में किया और कहा कि उन्हें उम्मीद है कि अगर ‘‘खराब एम है, तो अच्छे एम भी हैं।’’ सब समझ गए कि ममता के लिए खराब एम और मोदी के लिए अच्छे एम का प्रयोग किया गया था। बाद में दिल्ली में ऑटो एक्सपो में कार का लोकार्पण करते हुए टाटा ने मजाक में कहा कि कुछ लोगों ने उन्हें कार का नाम बदलकर ‘डिस्पाइट ममता’ (ममता के बावजूद) रखने का सुझाव दिया था।
दूसरी दफा रतन टाटा सायरस मिस्त्री के चलते सार्वजनिक विवाद में आए। मिस्त्री टाटासंस के नए नियुक्त किए गए अध्यक्ष थे और शापूरजी पालोनजी कारोबारी घराने से आते थे। इस घराने के साथ टाटा परिवार का पीढि़यों से रिश्ता रहा था। इस विवाद के केंद्र में भी टाटा नैनो ही थी।
टाटा समूह का 2021 में अध्यक्ष बनने के बाद मिस्त्री नैनो को 2016 में बंद करना चाह रहे थे। वे उसे वित्तीय बोझ के रूप में देखते थे। इसके चलते एक कानूनी टकराव हो गया, जिससे टाटा और मिस्त्री के निजी रिश्ते बिगड़ गए। मिस्त्री को तो कंपनी से निकाल ही दिया गया लेकिन इसके बाद नैनो भी बहुत ज्यादा दिन नहीं टिक पाई। ग्राहकों ने इस कार को पसंद ही नहीं किया। नैनो की ब्रिकी गिर गई और 2018 में साणंद के कारखाने से कोई नई कार नहीं बनी। आखिरकार 2019 में इसे बंद कर दिया गया।
रतन टाटा के जाने से कारोबारी जगत में कई लोगों को ऐसा लग रहा है कि उन्हें नैतिक राह दिखाने वाला शख्स चला गया है। लोग उन्हें भारतीय कारोबारों के रूहदार की तरह देखते थे और दुनिया के बाजारों में भारत का नाम रोशन करने वाला असाधारण मनुष्य मानते थे, जो भीतर से बहुत शांत और सभी के लिए समभाव लिए हुए था। टाटा का जाना कारोबार जगत की बड़ी क्षति है।