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राजेंद्र पाल गौतम प्रकरण: केजरीवाल बताएं कि यह कैसा धर्म, कैसी राजनीति

देश में धर्म और राजनीति के अलग-अलग रिश्ते रहे हैं। शताब्दी दर शताब्दी इसकी गवाह रही है। कभी मेलमिलाप...
राजेंद्र पाल गौतम प्रकरण: केजरीवाल बताएं कि यह कैसा धर्म, कैसी राजनीति

देश में धर्म और राजनीति के अलग-अलग रिश्ते रहे हैं। शताब्दी दर शताब्दी इसकी गवाह रही है। कभी मेलमिलाप हुए तो कभी प्रतिद्वंद्विता। कितने साम्राज्य आए और गये। धर्म और राजनीति के बीच लगभग वैसी ही स्थिति रही। राजतंत्र से लोकतंत्र भी आ गया। मिठास नहीं, कड़वाहट ही बढ़ी।

इसकी नवीनतम घटना थी दिल्ली सरकार में समाज कल्याण रहे राजेंद्र पाल गौतम के द्वारा दिल्ली के डॉ. आंबेडकर भवन में लगभग दस हजार दलितों को बौद्ध धर्म की दीक्षा दिलाना और बाबा साहेब डॉ. आंबेडकर की बाइस प्रतिज्ञा दिलाना। दीक्षा समारोह में डॉ. आंबेडकर के पड़पोते राजरतन आंबेडकर भी मौजूद थे। दीक्षा समारोह में दिल्ली, मेरठ, गाजियाबाद के साथ हरियाणा, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, पंजाब तथा महाराष्ट्र से भी बड़ी संख्या में दलित समाज के लोग शामिल हुए थे।

5 अक्टूबर को हुए दीक्षा समारोह पर दो-चार भाजपाइयों ने तुरत-फुरत बवाल मचा दिया। कुछ टीवी चैनलों और अखबारों ने उसे तुरंत कैच कर लिया। शोर-शराबा इसलिए भी होना था क्योंकि धर्म और राजनीति के पहरुए एक हो गए। अजीबोगरीब बयान आने शुरू हो गये। राजनीति के खिलाडिय़ों ने इसे हिंदू देवी-देवताओं के खिलाफ मान लिया। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल पर दबाव पड़ा तो उन्होंने दलित समाज के मंत्री पर दबाव डाल दिया, क्योंकि केजरीवाल किसी भी सूरत में हिंदू मतदाताओं को नाराज नहीं करना चाहते थे। और दलित मंत्री ने तुरंत इस्तीफा दे दिया।

कहना न होगा कि कुछ भाजपा नेताओं ने कहा, हम जीत गए। पर कैसी जीत। धर्म को और संकुचित कर या सांप्रदायिकता फैलाकर अगर कोई जीतता है तो वह जीत नहीं होती। कुछ नेताओं और बुद्धिजीवियों ने टीका-टिप्पणी की। उनके अनुसार दीक्षा लेना व्यक्तिगत आस्था तक ही सीमित रखना चाहिए था। क्यों इतने लोगों को बुलाया। दूसरे इस कार्यक्रम की तिथि के रूप में आयोजकों ने अशोक विजयादशमी लिखा। अशोक ने जिस दिन कलिंग पर विजय की, उसी दिन उसका ह्रदय परिवर्तन हुआ और उसने बौद्ध धर्म स्वीकार किया। टीकाकारों का मत है कि ऐसा नहीं लिखना चाहिए था।
यही नहीं, बिना वजह राजेंद्र पाल गौतम को कठघरे में खड़ा कर दिया गया। उन पर आरोप लगाया गया कि उन्होंने हिंदू देवी देवताओं के बारे में गलत कहा या उनकी बेइज्जती की। भाजपाइयों की उस बात को केजरीवाल ने भी आंख मींचकर मान लिया और अपनी ही पुराने साथी से बिना सोचे-समझे इस्तीफा मांग लिया। जबकि दीक्षा समारोह में देवी-देवताओं के खिलाफ कुछ भी नहीं बोला गया।

सबसे गलत और अशोभनीय व्यवहार किया पुलिस के अधिकारियों ने। विधायक और मंत्री रहे शख्स को पहाडग़ंज थाने में बुलाया गया। लगभग चार घंटे थाने में बैठाया गया। फिर पुलिस अधिकारी ने पूछा कि 22 प्रतिज्ञाएं लेने की आज की तारीख में क्या प्रसांगिकता है।
दलित समाज के कार्यकर्ताओं का सवाल है कि आप पार्टी ने तथाकथित आरोपों और मुकदमों में घिरे सत्येन्द्र जैन और मनीष सिसोदिया से तो केजरीवाल ने इस्तीफा नहीं मांगा, जबकि एक दलित मंत्री पर फौरन हरकत में आ गए। इस पर केजरीवाल ने विचार नहीं किया। इससे भी आगे देखें, किसी दलित को कोई सवर्ण क्यों मजबूर करे कि उन्हें उसी बाड़े में बंद रहना है जिससे मुक्ति के लिए नागपुर में 6 दिसंबर, 1956 को बाबा साहेब डॉ. आंबेडकर ने पहल की थी।

यह कैसा धर्म है और यह कैसी राजनीति है। जैसा कुछ नेताओं ने बना दिया या मान लिया। इसमें न मानवता है, न बंधुत्व और न दलितों के लिए सम्मान। लोकतंत्र में कौन-से धर्म की फसल उगाने में लगे हैं आज के राजनीतिक लोग। क्या किसी को हक नहीं है कि अपना जीवन अपनी तरह से जीये। वह किसकी पूजा करे, यह उसे तय करने दो। जैसा भारतीय संविधान देश के हर नागरिक को अधिकार देता है। उसके अधिकार को छीनने का हक छुटभैया नेताओं को किसने दिया।
इन सब सवालों की कश्मकश में 6 अक्टूबर से ही दलित समाज के लोग हैं। 5 अक्टूबर की घटना के बाद लखनऊ, इलाहाबाद, अलीगढ़, मेरठ, आगरा आदि शहरों में बड़ी संख्या में दलितों ने बौद्ध दर्शन को अपनाया है, जो मानवीय है। और भी शहरों में दलित हिंदू धर्म को छोडऩे का मन बना रहे हैं।

आजादी से पहले और बाद में धर्म अलग अलग लोगों के द्वारा अलग-अलग रूप में उभर कर सामने आया है। वह चाहे आर्य समाज के द्वारा परिभाषित किया गया हो या सावरकर के द्वारा। देश में शंकराचार्यों की अलग परिभाषा रही हैं। कितने ही शंकराचार्य तो दलितों के मंदिर प्रवेश का विरोध करते रहे। दुखद बात यह भी रही कि मीडिया ऐसे सवालों को खूब उछालती रही। अनेक टीवी चैनल बहस कराते रहे। कहने का आशय यह है कि समाज में सौहार्द का ख्याल न रखकर जातिवादियों को उत्तेजित करते रहे। 5 अक्टूबर की दीक्षा समारोह के बहाने भी यही हुआ। बेवजह हिंदू देवी-देवताओं का अपमान का आरोप गौतम पर थोप दिया गया। बार स्वयं गौतम ने पूछा कि उन्होंने देवी-देवताओं का अपमान कैसे हुआ तो कोई संतोषजनक जवाब नहीं आया। यहां तक केजरीवाल का भी अभी तक इस मामले में कोई बयान नहीं आया।

जाहिर है, धर्म के बहाने कुछ नेताओं को राजनीति की आग को दहकाना था। जैसा उन्होंने किया भी। पर यहां एक सवाल और शेष रह जाता है कि जिन्होंने यह आग भडक़ाई, वह किसके इशारे पर किया। कौन महारथी हैं, जो पर्दे के पीछे से अपनी चाल चल रहा है, कौन है वह जो बाबा साहेब डॉ. आंबेडकर और दलित समाज की भावनाओं को ठेस पहुंचाने की साजिश रच रहा है। स्वयं केजरीवाल मौन है। क्या सबब है उनके चुप रहने का। यह भी दुखद आश्चर्य है कि एक नहीं अनेक बार दलितों के मतों से सत्ता के सिंहासन पर बैठनेवाला आखिर ऐसा धर्मराज क्यों बन गया कि अपने पुराने साथी गौतम से किनारा ही कर लिया। क्या धर्म इतना संकुचित हो गया है कि मानवीय रिश्तों को भुला दिया जाए।
बाबा साहेब डॉ. आंबेडकर ने एक बार कहा था, धर्म मनुष्य के लिए है न कि मनुष्य धर्म के लिए। आज स्थिति इसके उलट हो गई है। अब राजनीतिक लोग धर्म को चाहे जैसा इस्तेमाल करें। भले ही समाज में अशांति हो, दंगा हो, आगजनी हो। क्या यही राजनीति है। आखिर कब तक ऐसा चलेगा। समाज के कुछ लोगों को तो आगे आना होगा।

(मोहनदास नैमिशराय प्रतिष्ठित दलित लेखक हैं। व्यक्त विचार निजी हैं)

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