देवघर की चर्चा होते ही जेहन में पहली तस्वीर बाबा वैद्यनाथ और देवघर के पेड़े की उभरती है। कांवड़ लेकर कोई जाता है तो लौटते समय अपने परिजनों, मित्रों के लिए प्रसाद के रूप में पेड़ा लाना नहीं भूलता। इसकी अलग पहचान है मगर अब हजारीबाग के कोहबर सोहराय पेंटिंग की तरह इसे नई पहचान दिलाने की तैयारी चल रही है।
वैश्विक पहचान दिलाने के लिए इसे जीआइ ( ग्लोबल इंडिकेशन ) टैगिंग दिलाने की कवायद की जा रही है। जिला प्रशासन इसकी तैयारी को लेकर सितंबर में पेड़ा व्यापारियों के साथ एक दौर की बैठक कर चुका है।
हजारीबाग के कोहबर सोहराय पेंटिंग को जीआइ टैगिंग दिलाने में मददगार नेशनल स्कूल ऑफ लॉ बेंगलुरू के सत्यदीप सिंह इसके लिए भी लगे हुए हैं। सत्यदीप सिंह ने आउटलुक से कहा कि देवघर के पेड़े का 120 वर्षों का इतिहास है। देवघर के बाबाधाम मंदिर के करीब में ही तीन-चार सौ पेड़ा की दुकानें हैं। देवघर से कोई 20-22 किलोमीटर दूर बासुकीनाथ के रास्ते में घोरमारा के पेड़े की अपनी पहचान है, पूजा का प्रसाद है तो जुबान का जायका है। यहां कोई पांच-छह सौ दुकानें हैं। देश में पेड़े का इतना बड़ा कलस्टर कहीं नहीं है। यहां सुखाड़ी मंडल की सौ साल पुरानी दुकान है। अब इस नाम से कुछ और भी दुकानें खुल गई हैं। इसके पूर्व कर्नाटक के पेड़े और तिरुपति के लड्डू को जीआइ टैगिंग हासिल हो चुका है। देवघर के पेड़े की जीआइ टैगिंग के लिए आवेदन प्रक्रिया में है। डाक्युमेंटेशन, दुकानों के निबंधन, सोसाइटी के रजिस्ट्रेशन का काम चल रहा है।
अलग है अर्थव्यवस्था
प्रसाद और जायका के साथ इसकी अलग अर्थव्यवस्था है। सिर्फ सावन के महीने में ही कोई 75 लाख लोग जलाभिषेक करने बाबाधाम आते हैं। लौटते समय हाथ में प्रसाद के रूप में पेड़ा का बंडल जरूर होता है। एक अनुमान के अनुसार सिर्फ सावन में दो-तीन सौ करोड़ रुपये से अधिक के पेड़े का कारोबार हो जाता है। बिहार, झारखंड, यूपी, एमपी, नेपाल सहित विदेश से भी बड़ी संख्या में लोग आते हैं। यहां के पेड़े की पहचान, मार्केटिंग पहले से है। जीआइ टैगिंग से इसमें और इजाफा होगा। वैश्विक पहचान मिलेगी। असर कारोबार पर भी पड़ेगा।