साल 2002 में महाराष्ट्र की कांग्रेस सरकार संकट में थी। मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख के लिए परीक्षा की घड़ी थी। उन्हें बहुमत सिद्ध करना था। इसके लिए कांग्रेस के विधायकों को टूटने से बचाना था। देशमुख ने कर्नाटक में वोक्कालिगा नेता और तत्कालीन मुख्यमंत्री एसएम कृष्णा को याद किया। कृष्णा ने इस काम के लिए अपने एक कैबिनेट मंत्री को चुना- डीके शिवकुमार, जिन्हें डीकेएस भी कहा जाता है।
डीके शिवकुमार ने विधायकों को बेंगलुरु के ईगलटन रिजॉर्ट में रखा। यह रिजॉर्ट डीकेएस के छोटे भाई डीके सुरेश का है। बाद में सारे विधायक फ्लोर टेस्ट में मुंबई पहुंचे और विलासराव देशमुख ने परीक्षा पास कर ली।
इसके बाद पिछले साल गुजरात राज्य सभा चुनाव में यही जिम्मेदारी डीके शिवकुमार को दी गई। उन्होंने फिर से 'रिजॉर्ट टेक्निक' अपनाई और अहमद पटेल ने कांटे की लड़ाई में जीत दर्ज की।
ये दो कहानियां याद आ रही हैं क्योंकि इन्हें फिर से दोहराया गया कर्नाटक चुनाव में। 19 मई को कर्नाटक में भाजपा के बीएस येदियुरप्पा अपना बहुमत सिद्ध नहीं कर पाए और इसके पीछे बड़ा रोल एक बार फिर डीके शिवकुमार और उनके रिजॉर्ट का रहा। डीकेएस ने कांग्रेस विधायकों को एकजुट रखने का काम किया। दो विधायक आनंद सिंह और प्रताप गौड़ा पाटिल, जिनके कथित तौर पर टूटने की खबरें आ रही थीं, वो भी फ्लोर टेस्ट में पहुंच गए और कहा जा रहा है कि डीकेएस से बातचीत के बाद ही उन्होंने अपना इरादा बदला।
ऐसा लगता है कि अगर भाजपा के खिलाफ घेरेबंदी करनी हो तो कांग्रेस के लिए डीके शिवकुमार सबसे ज्यादा काम आते हैं। इसीलिए उन्हें ‘कांग्रेस का संकटमोचक’ कहा जाता है। शिवकुमार एक मंझे हुए राजनेता हैं और उन्हें इस खेल का पुराना अनुभव है। उनका राजनीतिक सफर खुद इसका गवाह है।
डीके शिवकुमार का पूरा नाम डोड्डालाहल्ली केम्पेगौड़ा शिवकुमार है। वह सिद्दारमैया सरकार में ऊर्जा मंत्री थे।
वोक्कालिगा की जंग
आज भले देवेगौड़ा की पार्टी जेडी(एस) और कांग्रेस साथ आ गए हों लेकिन एक दौर में शिवकुमार की राजनीति पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवेगौड़ा के खिलाफ ही शुरू हुई थी। शिवकुमार ने देवेगौड़ा के खिलाफ एक लोकसभा और एक विधानसभा चुनाव लड़ा था और दोनों में ही शिवकुमार को हार का सामना करना पड़ा था लेकिन बाद में शिवकुमार ने 'कमबैक' किया और देवेगौड़ा परिवार से सियासी बदला लिया।
देवेगौड़ा और शिवकुमार दोनों वोक्कालिगा समुदाय से आते हैं। शिवकुमार ने अपनी राजनीतिक पारी 1985 से शुरू की थी। सातनूर विधानसभा सीट पर उन्होंने देवेगौड़ा के खिलाफ पर्चा भरा था। तब शिवकुमार की उम्र 25 बरस ही थी। वह यह चुनाव बड़े अंतर से हारे। चूंकि देवेगौड़ा होलानरसीपुर सीट से भी चुनाव लड़े थे इसलिए उन्होंने सातनूर सीट छोड़ दी। बाद में इस सीट पर उपचुनाव हुए और शिवकुमार जीत गए। इसके बाद उन्होंने दूसरा चुनाव भी यहीं से जीता। 1989 में वह जूनियर मिनिस्टर भी बन गए। उन्होंने बेंगलुरू के ग्रामीण इलाकों में अपना प्रभुत्व बढ़ाना शुरू किया। वोक्कालिगा और बेंगलुरू में अपनी पैठ बनाने की जंग शुरू हुई। कई जगहों पर आज उन्हें ‘टाइगर ऑफ सातनूर’ भी कहा जाता है।
कभी कुमारस्वामी को हराया था, आज साथ
आज देवेगौड़ा के बेटे एचडी कुमारस्वामी चीफ मिनिस्टर बनने वाले हैं और शिवकुमार का इसमें सहयोग रहा है लेकिन वोक्कालिगाओं की जंग में एक बार शिवकुमार ने कुमारस्वामी को पटखनी दी थी। 1999 के चुनाव में देवेगौड़ा परिवार से शिवकुमार की एक बार फिर सीधी टक्कर हुई और तब तक शिवकुमार काफी मजबूत हो चुके थे। लिहाजा उन्हें जीत मिली। शिवकुमार को उनके संपर्क और नेटवर्क के लिए जाना जाने लगा। 1999 में वह एसएम कृष्णा की सरकार में मंत्री बने।
जब हल खरीदने के लिए भेजी आर्थिक मदद
वह कर्नाटक के सबसे अमीर उम्मीदवारों में से एक हैं। 2013 के चुनाव में उन्होंने अपनी संपत्ति 250 करोड़ बताई थी।
पिछले दिनों वह एक खास वजह से चर्चा में आए थे। मध्य प्रदेश की दो लड़कियों की हल जोतते फोटो वायरल हुई थी। इस फोटो को देखने के बाद बाद शिवकुमार ने उनके पिता को 50,000 रुपए की मदद भेजी ताकि वे हल खरीद सकें।
समर्थक उनमें भावी मुख्यमंत्री देखते हैं
कर्नाटक चुनाव से पहले शिवकुमार कर्नाटक कांग्रेस का अध्यक्ष बनना चाहते थे लेकिन उन्हें चुनाव प्रचार कमेटी का अध्यक्ष बनाया गया। इससे वह नाराज भी थे और उनके पार्टी छोड़ने की सुगबुगाहटें थीं लेकिन गांधी परिवार के करीबी होने की वजह से वह पार्टी के साथ बने रहे। शिवकुमार के कुछ समर्थक तो यहां तक कहते हैं कि एक दिन शिवकुमार मुख्यमंत्री बनेंगे। 2013 के चुनाव में भी वह सीएम पद की रेस में थे।
फिलहाल, कुमारस्वामी के नेतृत्व में बनने जा रही सरकार में कांग्रेस के इस संकटमोचक को क्या पद मिलता है, ये देखने वाली बात होगी।