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अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस विशेष: अदृश्य महिलाएं

हम 8 मार्च को विश्व नारीवादी दिवस मनाएंगे। ये दिवस महिलाओं को सम्मान व गौरव प्रदान करेगा। हम किसी फिल्म...
अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस विशेष: अदृश्य महिलाएं

हम 8 मार्च को विश्व नारीवादी दिवस मनाएंगे। ये दिवस महिलाओं को सम्मान व गौरव प्रदान करेगा। हम किसी फिल्म कलाकार को या खेल हस्ती को ब्रांड एम्बेसडर बनाएंगे। पर्यावरण की ब्रांड एम्बेसडर भी कोई फिल्मी हस्ती ही होगी। फिर इनको चुनावों में वोट बैंक के रूप में लाएंगे। वो ट्विटर के जरिये हमारा प्रचार प्रसार करेगी। उस ब्रांड एम्बेसडर का उसके क्षेत्र में उसके विषय से जुड़े ग्राउंड पर क्या असर होगा, कोई असर होगा भी या नहीं इससे कोई मतलब नहीं है। इन खास महिलाओं को उन आम महिलाओं से कोई वास्ता नहीं है।

 

 

हिंदुस्तान में ऐसी करोड़ों अदृश्य महिलाएं रहती हैं। जिनको नारीवाद की इस छदम बहस से कोई फर्क नहीं पड़ता। भले ही नारीवाद का चौथा चरण चल रहा हो या प्रथम चरण की बात हो। वे अपने रोजमर्रा के जीवन को उसी उम्मीद, हौंसले और विश्वास के साथ जीती हैं। कोई सरकार उनकी सुने या न सुने। उनको सम्मान दे या न दे। उनके कार्यों को महत्व दे या न दें। उनके रोजगार को लाइट एंड साउंड शो की बलि चढ़ाए। या उनके मेले- महोत्सवों को अधिकारी लोग अपने जीजा -साले की इवेंट कम्पनी को दे दें। या फिर बड़े सर्कस कम्पनियों को फायदा पंहुचाने के लिए उनके करतबों पर रोक लगा दें। या जंगल के अधिनियमों से बांध देने पर भी वे बगैर किसी अपेक्षा के साथ सहज रूप से जीते रहेंगे।

 

 

इन अदृश्य महिलाओं के बहुत से रूप हैं उन्हीं में से कुछ रूपों को हम देखते हैं। नायक भोपा घुमन्तु समुदाय है। जो फड़ बाचने का काम करते हैं। फड़ एक कपड़े का थान होता है, जिसपर बहुत से चित्र बने होते हैं। ये चित्र किसी जीवन गाथा से जुड़े रहते हैं। इन कथाओं में लोक देवता पाबूजी, रामदेव जी और देवनारायण के जीवन के किस्से रहते हैं। भोपा -भोपी उन चित्रों को देखकर अपने लोक वाद्द "रावण हत्थे" की मधुर धुन पर कथा को गाकर सुनाते हैं। नाचते हैं। जिसे हम आजकल स्टोरी टेलिंग कहते है वो काम तो ये लोग सदियों से करते आ रहे हैं।

 

 

अनपढ़ भोपी महिला एक रात में औसतन 12 से 14 हज़ार शब्द गाती है। वो भी ऊंची टेर में और लहजे के साथ। भोपे को उन शब्दों को एक बार गाना पड़ता है जबकि भोपी को हर शब्द को दो बार गाना होता है। जिससे गीत में लय बनी रही उसको सुनने वालों को मिठास का अहसास हो। ये फड़ गायन 7 रात तक चलता है। माने तो वो अनपढ़ भोपी महिला इस दौरान कूल 70 से 80 हज़ार शब्द गाती है। जबकि हमारी एक सामान्य पुस्तक में 70 से 80 हज़ार शब्द होते हैं। हम उनको अनपढ़ कहते हैं।

कालबेलिया समुदाय की महिलाओं को महज काले व लाल रंग की ड्रेस तक सीमित कर देते हैं। ज्यादा होता है तो बस सजी-धजी नर्तकी के रूप में देखते हैं। उसके रोजमर्रा के जीवन के अन्य पक्षों की कोई बात ही नहीं होती। कालबेलिया महिला पुरुष के ही जैसे ही सुबह फेरी पर जाती है। उसके पास विभिन्न प्रकार की जड़ी- बूटियां रहती है। वो बहुत से नुस्खे जानती है। महिलाओं को दुर्लभ उत्पाद" सुरमा" देती है।

 

 

उसे सैंकड़ो की संख्या में गीत याद है। गांवों में महिलाएं उनसे हालरिया सुनती हैं। फाग सुनती है। लूर सुनती है। बच्चे के बधावे सुनती है। ऐसी मान्यता है, जोगण जब गीत गाएगी तो बच्चे की उम्र बढ़ जाएगी। उसके नृत्य को सम्पूर्ण नृत्य माना जाता है जिसमें गति, लोच व फुर्ती तीनो तत्वों का समावेश रहता है। वो बीन की धुन पर एड़ी से लोच नृत्य करती है। जो बिन की धुन पर टिका है। डेरे को संभालना हो या भेड़ -बकरी चराना हो ये उस महिला की जिम्मेदारी रहती है। लेकिन हम उनको केवल सांप नचाने वालों में समेट देते हैं।

गाड़िया लुहार समुदाय की महिला की जिम्मेदारी घण कूटने की रहती है। अनुभवी लुहार लोहे को गढ़ने का काम करता है। छोटे बच्चे का काम पंखे को चलाना होता है जबकि महिलाओं की जिम्मेदारी लोहे पर चोट मारने की होती है जिसे घण कूटना कहा जाता है। दिन भर लोहा पीटती है और सुबह- सुबह नजदीक गांव व ढाणी में फेरी पर जाने का काम भी उन्ही महिलाओं का रहता है। फेरी के जरिये वो अपना समान बेचकर आती हैं। डेरे को संभालती है। बच्चों को संभालती है। उसका कहीं कोई योगदान शामिल नहीं होता।

 

 

पशुचारक घुमन्तु समुदाय की महिलाओं ख़ासकर रायका- रैबारी समुदाय की महिलाओं के कार्य की गिनती कहीं नहीं है। गर्भवती हो या बूढ़ी हो। जवान हो या बच्ची। वर्ष के 8 से 9 महीने पशुओं के साथ घूमते हुए ही बिताने हैं।  डेरा लगाने व उखाड़ने, भेड़ बकरियों की दवा दारू करने, छोटे बच्चों को संभालने, दूध दोहने, डेरे का स्थान तय करने की रहती है। वो डेरे के बड़े बुजुर्गों व बच्चों का भी ध्यान रखती हैं। रोटी पानी की भी व्यवस्था करती हैं। किन्तु इनकी गिनती कहीं नहीं हैं। 

गवारिया घुमन्तु समुदाय की महिलाएं सर पर टोकरा रखकर सुबह पहले बगैर कुछ खाए फेरी पर निकल लेती हैं। उनके टोकरे में महिलाओं से जुड़ा समान रहता है। टिकी, बिंदी से लेकर कड़े, चूड़े- चूड़ियां, मालाएं व महिलाओं के अंडर गारमेंट्स। उनके टोकरे का वजन 20 से 30 किलो के बीच रहता है। जिसे वो अपने सर पर उठाकर दिन भर घुमती है।

 

 

जिन महिलाओं के छोटे बच्चे हैं वो उन्हें भी अपने साथ रखती हैं। गली चौराहों पर टोकरा लेकर बैठी रहती हैं। उनको हम कहां स्थान देते है?

नट डफ बजाता है और नटनी रस्सी पर चलती है। तरह- तरह के करतब दिखाती है। न सर पर कोई पल्लू और न माथे पर घूंघट। बेधड़क और बेख़ौफ़। जबकि इन करतबों के देखने वाली महिलाएं घूंघट में कैद रहती हैं। पीढ़ियों से वे लोग ये काम करते आ रहे हैं। किंतु उन महिलाओं का कहीं जिक्र नहीं होता। भाट समुदाय के लोग जिन कठपुतलियों को नचाते हैं। उन कठपुतलियों के पेंट से लेकर श्रृंगार करने उनकी  वेशभूषा तय करने का कार्य वो भाट महिला ही करती है। ढोलक बजाकर गीत गाती है किन्तु हमारे लिए उसके कार्यों का कोई मूल्य नहीं हैं।

ऐसे ही बंजारे, बहुरूपिया, कलंदर, मदारी, सिंगीवाल, कुचबंदिया, देवी पूजक, बागरी, मदारी, कंजर, बेड़िया, पेरना, सांसी, जोगी, फ़कीर, पारधी, पासी, मुल्तानी, भांड, तुरी, शोरगर जैसे हिंदुस्तान में 1200 से ज्यादा घुमन्तु समुदाय हैं। जिनकी महिलाओं का कहीं जिक्र नहीं हैं।

 

 

हम बदनसीब लोग हैं। हम पहले यूरोप की कैटेगरी को फॉलो करते हैं। उनके विचार, परम्पराओं, भाषा, पहनावे की नकल करते हैं। जब उसमें दिक्कत आती है तो फिर उन्ही के चश्में नारीवादी बहस का हम चोला ओढ़ते हैं। दरअसल ये छद्म बहस है। जो कुछ एनजीओ को लाभ पहुँचाने हेतु ली जाती है। हमारे यहां न एकेडमिक्स में इस क्षेत्र में कोई काम हुआ और न हीं तथाकथित समाजसेवीओं ने इनका कहीं जिक्र किया।

घुमन्तु समुदायों की महिलाओं के लिए किन नारीवादियों ने आज तक बोला है जरा इतिहास के तथ्य उठाकर देख लीजिए फर्जी नारीवादियों की चिट्ठी सामने आ जाएगी। ये समुदाय हर राज्य में हैं किंतु किसी भी सरकार ने इन लोगों के कुछ नहीं किया। भोपाल आदिवासी संग्रहालय ने जरूर कुछ पहल की है किंतु वो अभी सुरुवाती चरण में हैं। आज यदि कोई हाशिये पर है तो यही समुदाय हैं किंतु फिर भी इन महिलाओं की कोई बात नहीं करता।

 

 

ये महिलाएं हमें नई उम्मीद देती हैं। आशा की किरण दिखलाती हैं। इन्ही समुदायों के पास बरकत है। इनके पास ही आज हस्तशिल्प बचा है। इनके पास ऐसी कलाएं हैं, जो हमे आत्ममुग्द कर देते हैं। इनके पास मनोरंजन हैं। यही हमारे मौखिक इतिहासकार हैं। ये हमारी सॉफ्ट पावर है। हमारी साझा धरोहर है। हमारी ताकत और पहचान है। किंतु हमारे लिए उनकी बोली,भाषा, ज्ञान तथा हुनर से कोई वास्ता नहीं है।

(लेखक स्कॉलर एवं एक्टिविस्ट हैं।)

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