किसान आंदोलन के बहाने झारखण्ड में कांग्रेस अब अपनी राजनीतिक जमीन को मजबूत करना चाहती है। इसके लिए पार्टी ने अपने कार्यकर्ताओं को धरना, प्रदर्शन, ट्रैक्टेर रैली के निर्देश दे दिए दए हैं। साथ ही पार्टी ने सदस्यता अभियान भी शुरू कर दिया है। इसके तहत 15 लाख नए सदस्य बनाने का लक्ष्य तय किया गया है। देखने में तो यह प्रयास उम्मीदें बढ़ाते हैं लेकिन हकीकत कुछ और है। कांग्रेस अपनी अंतर्कलह में ही फंस गई है। वरिष्ठ नेताओं का कहना है कि सत्ता में चार साल रहने के बावजूद पार्टी अपना वजूद खोती जा रही है। दिल्ली से हर फैसले का परिणाम है कि पार्टी दिशाहीन होकर चल रही है। जिसका खामियाजा उठाना पड़ सकता है।
समन्वय और नियंत्रण का अभाव
अंतर्द्वंद्व से जूझती कांग्रेस को इस काम ने ऊर्जान्वित कर दिया है। हालांकि सरकार से लेकर पार्टी तक विभिन्नक मोर्चे पर कांग्रेस की हालत को ठीक नहीं कह सकते। कांग्रेस के एक वरिष्ठन नेता कहते हैं कि गठबंधन की सरकार है मगर न्यू नतम साझा कार्यक्रम कहां हैं। इसमें पार्टी की कोई दूरदर्शिता नहीं दिखती। महाराष्ट्र में जब गठबंधन की सरकार बनी तो सरकार के बनने के पहले ही न्यूनतम साझा कार्यक्रम तय हो गया। मगर झारखण्ड में सरकार बनने के एक साल के बाद भी उस मोर्चे पर शून्य हैं। यहां तो बीते चार साल में पार्टी के भीतर भी समन्वय समिति जैसी कमेटी नहीं बन सकी कि पार्टी के चंद बड़े नेता मिल बैठ कर नीतिगत मसलों पर विमर्श करें, नीति तय करें, संघर्ष की रणनीति बनाएं। लगता है कि केंद्रीय नेतृत्व भी राज्य को नन पालिटिकल स्टेट मानता है। एक व्यक्ति एक पद के सिद्धांत के आधार पर प्रदेश अध्यक्ष को भी बदला जाना है। बदलने के लिए और कितना समय चाहिए। पूर्व केंद्रीय गृह मंत्री सुबोधकांत सहाय के करीबी नेता कहते हैं कि यहां पार्टी गैर राजनीतिक तरीके से चल रही है कभी बीडीओ, कभी एसपी और कभी आइजी के जिम्मे ( राज्य प्रशासनिक सेवा के सुखदेव भगत, भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारी अजय कुमार के बाद डॉ रामेश्वर उरांव प्रदेश अध्यसक्ष हैं)।
17 साल के संघर्ष के बाद भाजपा को सत्ता से बेदखल किया गया है। भाजपा के खिलाफ माहौल बनाने में सरकार में शामिल पार्टियों के अतिरिक्तय वामपंथी पार्टियों, संगठनों, आदिवासी संगठनों ने भी बड़ी भूमिका निभाई है। जनता की अपेक्षा पर खरा नहीं उतरेंगे तो झेलना होगा। लंबे समय बाद सत्ता में आई कांग्रेस को भी जो फायदा मिलना चाहिए था नहीं मिल पाया है। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता फुरकान अंसारी हों या सुबोधकांत सहाय प्रदेश प्रभारी आरपीएन सिंह पर निशाना साधते रहे हैं कि उनके करीब के दस लोग ही पार्टी चला रहे हैं, वही उपकृत हुए हैं।
अनिर्णय के कारण प्रदेश अध्यक्ष का मामला तो फंसा हुआ है ही केंद्रीय नेतृत्व के खिलाफ आवाज उठाने वाले पार्टी के वरिष्ठ नेता फुरकान अंसारी को भी कारण बताओ नोटिस देकर पार्टी भूल गई। संगठन के मामले में भी खामोशी है। सरकार में हिस्सेदारी के लिए बीस सूत्री व निगरानी समिति के गठन के लिए फार्मूला तक तय नहीं हो पाया है। एक कमेटी समन्वय के लिए बनी है मगर उसकी भी सिर्फ एक ही बैठक हो पायी है। पूर्व प्रदेश अध्य क्ष सुखदेव भगत और प्रदीप बालमुचू की पुनर्वापसी का मामला भी फंसा हुआ है।
दिल्ली से संगठन चलाने की परंपरा बदलनी होगी
कांग्रेस के वरिष्ठ नेता व पूर्व केंद्रीय गृह मंत्री सुबोधकांत सहाय ने आउटलुक से कहा कि दिल्ली् से संगठन चलाने की परंपरा ठीक नहीं। प्रक्रिया बदलनी होगी। संगठन प्रॉक्सी से नहीं चलता। हर छोटी-छोटी बात के लिए दिल्ली सम्मन होना ठीक नहीं। चेहरा पसंद आये या नहीं महत्वकपूर्ण जमीनी नेताओं को जिम्मेदारी देनी होगी। क्षेत्रीय पार्टियां भी चुनौती हैं।
जमीन से जुड़ी समस्यारओं को लेकर कांग्रेस ने नया आंदोलन शुरू किया। सभी अंचलों में सीओ ( अंचलाधिकारी ) के कार्यालय के समक्ष शिविर लगाकर कार्यकर्ताओं को सुनवाई करने, जनता से आवेदन लेकर सीओ से समन्वय करा उसे दूर करने, समस्या बरकरार रहने पर डीसी से मिलकर निदान निकालने का फरमान जारी किया। प्रदेश अध्यलक्ष डॉ रामेश्वर उरांव ने इसके लिए जिला स्तर पर पर्यवेक्षकों की नियुक्ति भी कर दी। पार्टी के लोग शिविर लगाकर सुनवाई कर रहे हैं। राजनीतिक प्रेक्षक मानते हैं कि कांग्रेस की यह दबाव की राजनीति है। झारखण्ड में जमीन की समस्याे बड़ी गंभीर है। सीएनटी, एसपीटी कानून की अवहेलना कर आदिवासियों की जमीन धड़ल्ले से गैर आदिवासी खरीदते और घर, मकान, दुकान, मार्केट, अपार्टमेंट, मॉल बनाते रहे। रांची में ही एक लाख से अधिक मकान गलत तरीके से आदिवासियों की जमीन पर बने हुए है। सरकारें आती और जाती रहीं मगर सिलसिला थमा नहीं।
यहां गौर करने की बात यह है कि राजस्व विभाग खुद मुख्य मंत्री हेमन्त सोरेन के अधीन है। ऐसे में सीओ दफ्तार के बाहर शिविर लगाकर सुनवाई सीधा मुख्यीमंत्री को घेरने जैसा है। झामुमो के नेता इस मुद्दे पर कुछ बोलना नहीं चाहते। हकीकत यह भी है कि हेमन्तस सोरेन ने जमीन से जुड़ी गड़बड़ी के अनेक मामलों में इधर कार्रवाई भी की। दूसरी तरफ खाद्य उपभोक्ताु संरक्षण, धान खरीद, स्वारस्य्सर , ग्रामीण विकास में भी भ्रष्टांचार और समस्याीएं कम नहीं हैं। ये विभाग खुद कांग्रेस के मंत्रियों के अधीन है। इसके बावजूद कांग्रेस ने इन विभागों के बदले राजस्व विभाग की घेराबंदी को मुनासिब समझा। सवाल यह भी उठाया जा रहा है कि जमीन के मसले पर जिलों में आब्जर्वरों की नियुक्ति की इतनी जल्दी क्यास थी। बीस सूत्री व निगरानी समितियों का जल्दं गठन किया जाना है। इसके लिए समन्व्य समिति का गठन हो चुका है। दोनों समितियों के गठन के बाद खुद प्रशासनिक कार्रवाई और भ्रष्टाहचार पर निगरानी का रानीतिक तंत्र खड़ा हो जाता।
आदिवासी बनाम मारवाड़ी, बिहारी
इधर प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष रामेश्व र उरांव ने यह बयान देकर विवाद खड़ा कर दिया कि आदिवासियों की जमीन पर मारवाड़ी और बिहारी आकर बस गये हैं। हालांकि उन्होंने आदिवासियों की जमीन पर बसे लोगों को खदेड़ने जैसा आक्रामक बयान नहीं दिया। उनके बयान के बाद कांग्रेस के नेताओं ने ही कन्नीर काट लिया। कांग्रेस विधायक दीपिका पांडेय सिंह ने तो ट्वीट कर इसे उनकी व्यक्तिगत राय करार दिया। कुछ दूसरे कांग्रेस नेताओं की भी राय ऐसी ही रही। रामेश्वकर उरांव अपने बयान पर अड़े रहे दलील दी कि बचपन में पढ़ा था कि देश में मणिपुर का इंफाल और बिहार का रांची जिला है जहां सर्वाधिक आदिवासी निवास करते हैं। इंफाल सुरक्षित है मगर रांची में आदिवासी बहुत कम हो गये।
कांग्रेस अध्यक्ष के बयान पर मारवाड़ी समाज ने भी आक्रामक तरीके से विरोध किया। इसके बाद रामेश्र उरांव अपने स्टैंड पर कायम रहे। अतिथि स्वागत का संदेश देते हुए कहा कि बाहर से आने वालों को दोना दो, कोना नहीं। यानी स्वागत में भोजन कराओ मगर रहने को जमीन मत दो। इसके बाद रांची में मदरा मुंडा की प्रतिमा के अनावरण के मौके पर अपना राग दोहरा दिया। कहा झारखण्ड सभी का मगर आदिवासियों की जमीन पर नजर न गड़ायें। आदिवासी जमीन किसी को लूटने नहीं देंगे। रामेश्वनर उरांव के बयान के समर्थन में ढोल नगाड़ा लेकर सरना समिति के लोग भी सड़क पर उतरे। रामेश्वर उरांव ने कोई गैर वाजिब बात नहीं कही मगर बार-बार इसे उकेर कर क्या संदेश देना चाहते हैं। यह मामला भी मुख्य मंत्री के राजस्वस विभाग से जुड़ा है।
कांग्रेस के ही एक वरिष्ठ नेता ने कहा कि जब रामेश्व र उरांव अनुसूचित जनजाति आयोग के अध्यक्ष थे तब तो इस मसले पर एक बार भी उनका बयान नहीं आया। इसे पूरी तरह अप्रासंगिक करार दिया। सरकार के साथ और पार्टी के भीतर समन्वय ठीक नहीं हुआ, अनिर्णय की स्थिति बनी रही तो कांग्रेस को ही इसका नुकसान उठाना पड़ेगा।