रांची के विभिन्न सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक संगठनों ने शुक्रवार को रांची प्रेस क्लब में प्रेस कांफ्रेंस आयोजित कर समलैंगिक विवाह को कानूनी जामा पहनाने संबंधी प्रयासों की भर्त्सना की। कहा कि यह भारतीय संस्कृति, परंपरा, मूल्यों, विवाह पद्धति और परिवार व्यवस्था को ध्वस्त करने का कुत्सित प्रयास है। जल्द ही इस मसले पर इनका शिष्टमंडल इस पहल के विरोध में राज्यपाल से मिलकर राष्ट्रपति के नाम ज्ञापन सौंपे। आग्रह करेगा कि किसी भी सूरत में समलैंगिक विवाह को कानूनी जामा पहनाने से रोका जाए।
झारखंड के वरिष्ठ चार्टर्ड अकाउंटेंट और चिन्मय आश्रम ट्रस्ट, रांची के सचिव विनोद कुमार गढ़यान ने कहा कि किसी भी मामले में न्यायालय और न्यायाधीशों के प्रति पूरा सम्मान है किंतु मामला सर्वोच्च न्यायालय के विचाराधीन होने के बावजूद इतना जरूर कहा जा सकता है कि विवाह के जिस स्वरूप को याचिकाकर्ता गढ़ना चाहते हैं वह न तो प्राकृतिक दृष्टि से उचित कहा जायेगा और न ही व्यावहारिक तौर पर। समलैंगिक विवाह को मान्यता प्रदान करने संबंधी कानून बनाने का विचार और प्रयास सदियों प्राचीन भारतीय विवाह पद्धति परिवार व्यवस्था और भारतीय संस्कृति संस्कारों मूल्यों के खिलाफ है। इसका हर स्तर पर विरोध होना चाहिए।
ज्ञातव्य है कि सर्वोच्च न्यायालय में समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता देने के साथ ही लैंगिक सूचक पति-पत्नी शब्द की बजाय जीवनसाथी कहे जाने के प्रावधान की मांग को लेकर दायर याचिका पर सुनवाई चल रही है | याचिकाकर्ता की ओर से कहा जा रहा है कि वे किसी सार्वजनिक स्थल पर जाएं तो उन्हें लांछन या कलंक से बचाने के लिये इसे विवाह घोषित किया जाए । पुरुष और महिला के स्थान पर व्यक्ति शब्द का उपयोग करने की गुजारिश भी की गयी है|
मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड के अलावा चार अन्य न्यायाधीशों की संवैधानिक बेंच इस याचिका पर सुनवाई कर रही है | सरकार की ओर से सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता तो इस बात पर अड़े हैं कि सर्वोच्च न्यायालय को इसकी सुनवाई ही नहीं करनी चाहिए क्योंकि कानून बनाने का अधिकार उसका नहीं बल्कि संसद का है। श्री मेहता ने ये भी कहा कि पांच विद्वान और कुछ लोग अदालत में बैठकर इतने महत्वपूर्ण मामले में फैसला ले लें ये सही नहीं होगा और इसके लिए देश के सभी राज्यों की राय पूछी जाने चाहिए।
नेशनल फोरम फॉर वीकर सेक्शंस आफ द सोसायटी के राष्ट्रीय अध्यक्ष डॉ सहदेव राम ने कहा कि देश में स्वतंत्र न्यायपालिका है इसलिए सामाजिक तौर पर किसी प्रथा या प्रवृत्ति को अच्छा या बुरा मानने की समीक्षा करने का उसका अधिकार है। लेकिन चूंकि इस विषय में कानून बनाने की आवश्यकता पड़ेगी लिहाजा इसका निपटारा संसद पर छोड़ा जाए और फिर विविधताओं से भरे देश में चंद लोगों की इच्छा को पूरे समाज पर थोपना अनुचित है। इसके लिए सभी राज्यों से उनका अभिमत लेना जरूरी है। प्रारंभ में बिरसा कृषि विश्वविद्यालय के अधिकारी पंकज वत्सल ने आए हुए विभिन्न धर्मगुरुओं और समाज के प्रबुद्ध जनों का परिचय दिया।
गुरु नानक स्कूल मैनेजमेंट सोसायटी के पूर्व अध्यक्ष मेजर गुरुदयाल सिंह सलूजा ने कहा कि समलैंगिक यौन संबंधों को वैधानिक मानने के लिए देश भर में आंदोलन भी हुए जिसमें तमाम चर्चित हस्तियां भी शामिल हुईं थीं। लेकिन यथार्थ ये है कि भले ही उसके बाद से बहुत से समलैंगिक युगल एक साथ पति - पत्नी के रूप में रहने लगे हों लेकिन आज भी समलैंगिकता के प्रति समाज में अच्छी धारणा नहीं है और होनी भी नहीं चाहिए। केन्द्र सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय से सुनवाई न करने के अनुरोध के अलावा राज्यों की राय लेने भी कहा है। वैसे भी ये मामला दो व्यक्तियों की निजी अभिरुचि या स्वतंत्रता का नहीं अपितु समाज में विवाह नामक व्यवस्था के समानांतर परिपाटी खड़ी करने का प्रयास है।
जैन समाज के राजकुमार रामपुरिया ने कहा कि बिना विवाह किए लिव इन रिलेशनशिप में अनेक पुरुष और महिला संतानोत्पत्ति भी कर लेते हैं । उनके अलग हो जाने पर संपत्ति के बंटवारे और बच्चों की सामाजिक स्थिति को लेकर भी विमर्श चल पड़ा है। शहरों में अनेक विधवा महिलाएं और विधुर पुरुष अकेलेपन के कारण लिव इन में रहते हुए शेष जीवन काटने लगे हैं । कुछ मामलों में तो औलादों ने भी अपनी विधवा मां को किसी विधुर के साथ रहने के लिए राजी किया। ये एक तरह का समझौता है, एकाकीपन दूर करने का । लेकिन समलैंगिक विवाह करने वाले युगल यदि गोद लेकर बच्चे की कमी भी पूरी कर लें तब उस बच्चे को या तो मां का सुख नहीं मिलेगा या फिर पिता की छाया। आजकल अभिजात्य वर्ग की महिलाओं में किराए की कोख से संतान उत्पन्न करने का चलन है। कुछ अविवाहित नामी गिरामी हस्तियों में भी इसी तरह मां या पिता बनने की औपचारिकता पूरी कर ली जाती है। लेकिन इस सबसे हटकर भारतीय संस्कृति में सामाजिक व्यवस्था जिस परिवार नामक व्यवस्था पर टिकी है वह लिव इन या समलैंगिक विवाह के जरिए कायम नहीं रह सकेगी।
श्वेतांबर जैन तेरापंथी सभा रांची के अध्यक्ष अमरचंद बेगानी ने कहा कि सेम सेक्स मैरिज को कानूनी मान्यता मिलने से सामाजिक विघटन की त्रासदी हमारे साथ भी जुड़ती और बढ़ती जायेगी जिससे आज पश्चिम के वे देश गुजर रहे हैं जो अपने को आधुनिक मानते रहे। इस बारे में ये कहना गलत नहीं है कि सर्वोच्च न्यायालय का काम मानव और मौलिक अधिकारों की रक्षा करने के साथ - साथ सामाजिक ताने- बाने को भी बनाए रखना है। कल को कुछ लोग पशुओं के साथ शारीरिक संबंध बनाने की अनुमति मांगने खड़े हो जाएं जो कि विदेशों में कई मामलों में देखा गया है, तो क्या उनको भी सुना जायेगा । वर्ष 2018 के फैसले के बाद यदि कोई समलैंगिक जोड़ा साथ - साथ रहते हुए सहमति से यौन संबंध बनाए तो उसे रोकना कानूनन संभव नहीं है। लेकिन वह ये चाहे कि समाज उनकी इस जीवनशैली को सम्मान प्रदान करे, यह बात निरर्थक लगती है। सर्वोच्च न्यायालय क्या फैसला करता है और उसके बाद सरकार की क्या भूमिका होती है यह देखने के लिए तो प्रतीक्षा करनी होगी किंतु ऐसा लगता है चंद लोग अपनी मानसिक विकृति को कानून से अनुमति लेकर समाज पर थोपना चाहते हैं । उनकी बात पर विचार करते समय सर्वोच्च न्यायालय को ये ध्यान रखना चाहिए कि हर देश की अपनी संस्कृति और संस्कार होते हैं जो संविधान में वर्णित निर्देशक सिद्धांतों से कहीं ज्यादा प्रभावशाली हैं जिनको मुट्ठी भर लोगों के लिए उपेक्षित करना न्यायोचित नहीं होगा।
कुल मिलाकर देखा जाए तो यह पूरी तरह आकृति की विकृति को स्वीकृति प्रदान करने वाली संस्कृति हो जाएगी।
दिल्ली हाईकोर्ट में कई वर्ष वकालत करने वाली अधिवक्ता नेहा सिंह ने आरम्भ में विवाह संबंधी कानूनी और वैधानिक प्रावधानों की चर्चा की और कहा कि समलैंगिक शादी का विरोध होना ही चाहिए! देश में समलैंगिक विवाह को उचित नहीं ठहराया जा सकता!
भारत एक ऐतिहासिक, परंपरावादी और प्राचीनतम संस्कृति वाला देश है। भारत जैसे देश में शादियां सिर्फ सामाजिक वैधानिक संस्था ही नहीं, बल्कि यह एक परंपरा और संस्कृति है। ऐसे देश में कभी भी समलैंगिक विवाह को उचित नहीं ठहराया जा सकता। भारत में जैसा समाज है और जैसी संस्कृति है, इस लिहाज से देश के अंदर समलैंगिक विवाह एक तरह से अप्राकृतिक है। भारतीय समाज के अंदर इस तरह की व्यवस्था को स्वीकार करना सामाजिक व्यवस्था को एक गलत संदेश देने के अलावा और कुछ नहीं होगा। किसी भी अदालत या कोई भी याचिका, प्राकृतिक कानूनों से ऊपर नहीं हो सकती है। ऐसे में समलैंगिक विवाह से जुड़े हुए मुद्दों को किसी भी तरह कानूनी आधार नहीं मिलना चाहिए।
समलैंगिक विवाह पद्धति के खिलाफ अपनी बात रखने के लिए प्रेस कॉन्फ्रेंस में आदिवासी कल्याण मिशन आश्रम, रातू, रांची के अध्यक्ष सीताराम भगत, झारखंड सेंट्रल गुरुद्वारा प्रबंधक समिति के पूर्व कार्यकारिणी सदस्य सरदार कुलवंत सिंह, सरदार शरणजीत सिंह बल, युवा नेता डॉ अटल पांडेय, डेवलपमेंट प्रोफेशनल अर्पिता सूत्रधार, मो शफीक अलयावी, शहरकाजी, करबला चौक मस्जिद, रांची, स्वामी दिव्य ज्ञान, ब्रम्हाकुमारी ईश्वरीय विश्वविद्यालय के पिठौरिया, कांके केंद्र की प्रमुख राजमती दीदी, मसमानो आश्रम, लोहरदगा के स्वामी कृष्ण चैतन्य ब्रह्मचारी तथा रांची विश्वविद्यालय के पदाधिकारी अब्दुल बारीक सिद्दीकी भी उपस्थित थे।