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शहरनामा/डूंगरपुर: सिंघाड़े के आकार में बसा हुआ शहर

पहाड़ पर सिंघाड़ा राजस्थान के दक्षिणी छोर पर सिंघाड़े के आकार में बसा हुआ शहर डूंगरपुर को...
शहरनामा/डूंगरपुर: सिंघाड़े के आकार में बसा हुआ शहर

पहाड़ पर सिंघाड़ा

राजस्थान के दक्षिणी छोर पर सिंघाड़े के आकार में बसा हुआ शहर डूंगरपुर को पहाड़ियों की नगरी कहा जाता है। स्थानीय वागड़ी भाषा में डूंगर का अर्थ है पहाड़ी। ऊंचाई से देखने पर लगता है, मानो अरावली पर्वत शृंखला की पहाड़ियों ने इसे अपनी बाहों से घेर रखा है। लेकिन इसके नामकरण की एक अलग लेकिन दिलचस्प कहानी है। नगर के रूप में डूंगरपुर की नींव वीरसिंह देव ने 14 अक्टूबर 1282 को रखी थी। उससे पहले यह एक पाल (गांव) था, जिसे ‘डूगर नूं घर’ कहा जाता था। प्रचलित कथा के अनुसार गुहिलोत अहाड़ा राजवंश के रावल वीरसिंह देव अपनी राजधानी वागड़ वटपद्रक (बड़ौदा) से शासन कर रहे थे। उस समय डूंगर या डूंगरिया भील इस पाल का मुखिया होता था। वह यहां से 7 किलो मीटर दूर थाणा गांव के एक सेठ की कन्या पर मोहित हो गया और सेठ पर बेटी से खुद की शादी कराने का दबाव बनाने लगा। मर्यादा रक्षार्थ सेठ (सालाशाह) वीरसिंह देव के पास पहुंचा और दोनों ने मिलकर एक योजना बनाई। योजनानुसार सेठ ने शादी के लिए हां कह दिया। निश्चित तिथि पर बारात वर्तमान डूंगरपुर से थाणा के लिए चली। बीच में जगह-जगह बारातियों का पकवान और शराब से शानदार स्वागत किया गया। बारात जब तक अपने गंतव्य तक पहुंची तब तक सभी बाराती अपनी सुधबुध खो चुके थे। ठीक इसी समय राजपूत सैनिकों ने उन पर आक्रमण कर दिया। हालांकि भील परंपरागत रूप से तीर-धनुष और तलवार चलाने में पारंगत होते हैं लेकिन अत्यधिक नशे में होने के कारण डूंगरिया सहित सभी भील मारे गए और इस पाल पर वीरसिंह देव का अधिकार हो गया। लेकिन डूंगरपुर नाम रखने का कार्य रावल डूंगरसिंह के शासनकाल में 1358 में हुआ। जैन मुनी जयानंद अपनी पुस्तक वागड़ प्रवास गीतिका (1370) में इसे गिरिपुर कहते हैं।

पूरब की पहाड़ी का सूरज

शहर की सुंदरता में चार चांद लगाने वाली गेप (गैब) सागर झील डूंगरपुर की हृदयस्थली कही जा सकती है। 656 बीघा में विस्तृत इस झील का निर्माण 1428 में रावल गोपीनाथ ने कराया था। पूरब की पहाड़ियों से निकलकर सूरज सबसे पहले इसी झील में अपनी छवि निहारता है और फिर शहर को नींद से जागता है। साइबेरिया के सारस भी यहां प्रवास के लिए आते हैं। इसके एक किनारे उदय विलास महल है, जो 1877 से राजपरिवार का निवास स्थान है। इससे पूर्व 13वीं शताब्दी में निर्मित जूना महल राजनिवास हुआ करता था। राजपूती स्थापत्य का उत्कृष्ट नमूना यह महल सात मंजिला है, जिसमें दुर्लभ भित्तिचित्र हैं। बादल महल, विजयगढ़ किला, श्रीनाथजी का मंदिर, राजराजेश्वर मंदिर, फतहगढ़ी, कालीबाई पैनोरमा आदि अन्य दर्शनीय स्थल हैं।

विभूतियों से शोभा

खानवा के युद्ध (1527) से शुरू करें, तो राणा सांगा के साथ बाबर से युद्ध करते हुए वीरगति को प्राप्त हुए रावल उदयसिंह यहीं के थे। आजादी की लड़ाई की बात करें, तो प्रजा मंडल की सहायता से संघर्ष करने वाले ‘वागड़ गांधी’ श्री भोगीलाल पंड्या की कर्मभूमि डूंगरपुर ही थी। न्याय के क्षेत्र में डॉ. नागेंद्र सिंह बहुत बड़ा नाम है। अंतरराष्ट्रीय न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश (1985-88) का पद सुशोभित करने से पूर्व वे भारत के निर्वाचन आयुक्त (1972-73) भी रहे। महारावल लक्ष्मण सिंह ने राजस्थान विधानसभा के स्पीकर के रूप में कार्य किया। खेल के मैदान में भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड के अध्यक्ष रहे राजसिंह डूंगरपुर का नाम कौन क्रिकेट प्रेमी नहीं जानता।

नाथूसिंह राठौर के बिना अधूरा

अगर लेफ्टिनेंट जनरल नाथूसिंह राठौर का जिक्र न हो, तो यहां की मिट्टी के चरित्र को समझना शेष रह जाएगा। आजादी के बाद सेनाधिकारियों और रक्षा मंत्री के साथ नए सेनाध्यक्ष की नियुक्ति पर चर्चा करते हुए पंडित नेहरू ने कहा कि सेना का संचालन करने के लिए पर्याप्त अनुभव किसी भारतीय के पास नहीं है। ऐसे में किसी अंग्रेज अधिकारी को ही सेनाध्यक्ष बनाना ठीक रहेगा। सबने इसका समर्थन किया लेकिन नाथूसिंह ने बिना किसी भय के विरोध करते हुए कहा, ‘‘सर, अभी-अभी आजाद होने के कारण देश चलाने का अनुभव भी हमारे पास नहीं है, तो क्या प्रधानमंत्री पद भी किसी अंग्रेज को दे दें।’’ पंडित नेहरू सहित सभी हैरान रह गए। नेहरू ने कहा, ‘‘आप ही बन जाओ।’’ नाथूसिंह ने यहां भी सच्चे सिपाही की मिसाल पेश करते हुए कहा, ‘‘हमारे वरिष्ठ के.एम. करियप्पा इसके लिए सबसे योग्य हैं।’’ यहां की मिट्टी ही पुकारती है, ‘पधारो म्हारो देस’ सा।

लापसी गुगरी का स्वाद

डूंगरपुर खान-पान के लिहाज से बहुत से अनोखे स्वाद संजोए हुए है। दाल-बाटी-चूरमा ऐसा भोजन है, जो सामान्य घर से लेकर राजपरिवार तक की रसोई की शान है। बाटी के साथ दाल उड़द की होती है, जिसमें थोड़ी-सी चने की दाल भी मिलाई जाती है। मोटे पिसे गेहूं, गुड़ और घी से बनी लापसी (लापी) का स्वाद एक बार लग गया, तो कोई मिठाई रास नहीं आएगी। दो-पुड़ की रोटी, पूरी, खीर, मालपुआ, जिसे यहां काली रोटी कहने का रिवाज है, कढ़ी जैसे पारंपरिक भोजन का स्वाद लेने बहुत लोग यहां आते हैं। नए गेहूं से बनने वाली गुगरी, कच्चे आम को उबालकर बनने वाला सिसुडा, गोरख इमली (जंगल जलेबी), किकोडा की सब्जी, ग्वारफली, मक्के की रोटी, बेरड़, बेसन के गट्टे और नुक्ती यानी बूंदी भी यहां विशिष्ट भोजन का दर्जा प्राप्त है। गुजरात से सीमा लगने के कारण डूंगरपुर में ढोकला और फाफड़ा भी बहुत लोकप्रिय है।

उपेन सिंह उपेन

(राजकीय महाविद्यालय में एसोसिएट प्रोफेसर)

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