अपनी आदिवासी संस्कृति के लिए एक विशेष पहचान रखने वाले नगालैंड के गांवों के लोगों ने अपने इस पारंपरिक ग्यान को तो जीवन में उतारा ही है, साथ ही साथ उन्होंने अपने रोजमर्रा के जीवन में कई वैग्यानिक पद्धतियों को भी अपनाया है। दुर्गम पहाड़ों पर रहने के कारण यहां चीजों का अभाव तो है लेकिन कुछ भी बर्बाद न करने और संसाधनों के पूर्ण इस्तेमाल की संस्कृति नगालैंड के लोगों के जीवन में काफी हद तक सुगमता लेकर आती है।
हर घर के चूल्हे से कुछ ऊंचाई पर लगी लकड़ी की जालीनुमा शेल्फ हों या बारिश के पानी को एक हौद में इकट्ठा करने के लिए छतों पर लगाए गए बांस के पाइप, इनके पीछे का विज्ञान फल-सब्जियों को सुखाकर खराब होने से बचाता है और बारिश के पानी को बर्बाद जाने से रोकता है। नगालैंड में पारंपरिक ज्ञान और वैज्ञानिक दृष्टिकोण का यह संगम 26 नवंबर से 2 दिसंबर तक यहां आयोजित की गई शोधयात्रा के दौरान देखने को मिला। देश के हर राज्य में शोधयात्रा का आयोजन कर चुकी संस्था सृष्टि के संस्थापक प्रोफेसर अनिल के गुप्ता ने कहा, देश के सुदूर इलाकों में जमीनी स्तर पर मौजूद पारंपरिक ज्ञान एवं नवोन्मेषों की जानकारी जुटाने के लिए और देश के बाकी हिस्सों से जुटाए गए ऐसे ज्ञान को बांटने के लिए शोधयात्रा का आयोजन किया जाता है।
सृष्टि द्वारा साल में दो बार आयोजित की जाने वाली शोधयात्राओं की इस कड़ी में यह 38वीं शोधयात्रा थी, जिसमें देश-विदेश से आए 52 शोधयात्रिायों ने हिस्सा लिया। इन शोधयात्रियों में किसान, वैज्ञानिक, शिक्षक, उद्यमी, पत्रकार और शोधार्थी सभी शामिल थे। इन पैदल यात्राओं के दौरान गांव वालों के पारंपरिक ज्ञान को जानने के लिए जैव विविधता प्रतियोगिता और पाक-कला प्रतियोगिता जैसी स्पद्र्धाएं आयोजित की जाती हैं। इसके साथ ही स्कूली बच्चों की कल्पनाशक्ति और रचनात्मकता को बढ़ावा देने के लिए नवोन्मेषी विचारों की प्रतियोगिता भी कराई जाती है। यात्रा मार्ग के प्रत्येक गांव में 90 साल से अधिक उम्र के बुजुर्गों को सम्मानित किया गया और प्रत्येक बुजुर्ग को अपने आप में ज्ञान का एक पूरा कोश कहा गया।
फिराही गांव में 112 वर्षीय नितसांगपा ने शोधयात्रियों से कहा, मैंने अपने पूरे जीवनकाल में यह अपनी तरह की पहली शोधयात्रा देखी है। ये कुछ ऐसे नन्हें कदम हैं, जो हमारी युवा पीढ़ी के लिए मददगार और प्रेरणादायी साबित होंगे। पारंपरिक ज्ञान और शोधयात्रा के बीच के संबंध को समझाते हुए गुप्ता ने कहा, इन शोध यात्राओं के जरिए किसी क्षेत्र के पारंपरिक ग्यान का प्रबंधन 200 साल तक हो जाता है। हम बुजुर्गों के 100 साल पुराने ग्यान को रिकॉर्ड करते हैं, जो हमारी युवा पीढ़ी के लिए अगले 100 साल तक काम आएगा। शोधयात्रा के दौरान ग्रामीणों के समक्ष अन्य राज्यों के जमीनी नवोन्मेषकों की मशीनों का प्रदर्शन किया गया। जिनमें हरियाणा के धर्मवीर कंबोज की मल्टीपर्पस फूड प्रोसेसिंग मशीन, तमिलनाडु के एन शक्तिमंथन की हाथ से चलने वाली वॉटर लिफ्टिंग मशीन और मिजोरम के एल राल्टे और एल साइलो की बांस से अगरबत्ती की तीली बनाने वाली मशीन शामिल थी।खेती से जुड़े अपने नवोन्मेषों के लिए दो सप्ताह से अधिक समय तक राष्टपति भवन में राष्टपति प्रणब मुखर्जी के मेहमान के रूप में रह चुके 71 वर्षीय नवोन्मेषक अमृत अग्रवत भी इस शोधयात्रा में शामिल हुए। अब तक 37 शोधयात्राएं कर चुके अग्रवत ने कहा, इस उम्र में भी शोधयात्राओं में आने के पीछे का उद्देश्य नई चीजों को देखना, सीखना और उन पर विचार करना है। इनसे नए नवोन्मेष लाने में मदद मिलती है।